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गुरु पूर्णिमा

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गुरु पूर्णिमा


श्री गुरुवे नमः॥

 'गुरु'शब्दस्वयंमेंहीअलौकिकश्रद्धाकाप्रतीकहै। भारतकीसमृद्धगुरु-शिष्यपरम्पराकीशाश्वतउज्ज्वलताआजभीविद्यमानहै।अबतोगुरु-वंदनामेंसारा संसारभारतकाअनुसरणकररहाहै।जोअखंडब्रह्माण्डरूपमेंचरऔरअचरसबमेंव्याप्तहै, जोब्रह्मा, विष्णुऔरदेवाधिदेवमहेशहैं, उन्हेंहमरासतसतनमन

गुरु गोविन्द दोऊ  खड़े   काके  लागूं  पां

बलिहारीगुरुआपकीगोविन्ददियोमिलाय।।

संतकबीरदासकीयेपंक्तियांहमारेदेशकीसभ्यताऔरसंस्कृतिमेंगुरुकेमहत्वकोअभिव्यक्तकरतीहैं।आज गुरु पूर्णिमा हैयह अपने आध्यात्मिक गुरुओं के सम्मान में मनाया जाने वाला पर्व हैहर मनुष्य के जीवन को दिशा देने में गुरुओं की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैअपनी बात मैं उपनिषद की एक कहानी से शुरु करता हूं। एक राजा का बेटा रास्ता भूल-भटक कर एक जंगल में पहुंच गया। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। जंगली पशुओं के बीच रह कर वह दीन-हीन जीवन बिता रहा था। संयोग से उधर रहते एक साधु की नज़र उस पर पड़ी। उस साधु ने उसे राजा का बेटा होने की बात याद दिलाई। और उसे उसके पिता के राज्य तक लौटने का रास्ता बता दिया। बस क्या था! वह पूछते-पाछते अपने पिता के राज्य में पहुंच गया और पिता का उत्तराधिकार रज्य के रूप में पाकर सुखी जीवन बिताने लगा।

इस कहानी से यह स्पष्ट है कि भूला-भटका भी यदि समुचित मार्ग-दर्शन पा ले तो सही गंतव्य तक पहुंच सकता है। आज का मानव दुखी-दीन बना हुआ है। उसे अपने स्थान तक पहुँचाने वाला कोई मार्गदर्शक नहीं मिला है, अगर मिला है तो उस गुरु की वाणी पर सत्यनिष्ठा का अभाव है।सन्त कबीरदास ने गुरु को कुम्हार और शिष्य को घड़ा का प्रतिरूप बताते हुए कहा है

गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढय खोट।

अन्तर    हाथ-सहार    दय,     बाहर-बाहर    चोट॥

अर्थात सद्गुरु अपनी कृपा से सर्वथा तुच्छ और तिरस्कारपात्र व्यक्ति को भी आदर का पात्र बना देते हैं। जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाते समय बांया हाथ घड़े के पेट में लगाए रहता है और दाएं हाथ से थापी पीट-पीट कर उसे सुडौल-सुघड़ गढ डालता है, ठीक उसी प्रकार गुरु करता है।

जिन गुरुओं ने हमें गढ़ा है उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का दिन ही गुरु पूर्णिमा हैगुरु शिष्य के हृदय के अज्ञान के अंधकार को ज्ञान-रूपी प्रकाश से उज्ज्वल बनता है।गुरु'शब्द में 'गु'का अर्थ है अज्ञानऔर गुफाजो 'अंधकार'का प्रतीक है  और 'रु'का अर्थ है 'प्रकाश'अर्थात् गुरु का शाब्दिक अर्थ हुआ 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला मार्गदर्शक'। सही अर्थों में गुरु वही है जो अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करे और उस ओर शिष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे। ऐसे गुरु को यदि सामान्य जन न समझे तो कबीर उसे अंधा मानते हैं।

कबिरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।

हरि रूठे   गुरु ठौर है,    गुरु रूठे नहि ठौर॥

गुरु के बिना ज्ञान मिलना संभव नहीं हैबिना गुरु की कृपा के मनुष्य अज्ञान रूपी अन्धकार में भटकता रहता हैवह मोह के बंधन में बंधा रहता हैउसे मोक्ष नहीं मिलताउसे सत्य और असत्य का भेद पता नहीं चलताउचित और अनुचित का ज्ञान नहीं होताकबीर दास ने कहा है,

गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष

गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष

हिन्दू परंपरा में आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता हैपुराणों के अनुसार गुरु पूर्णिमा को महाभारत, पुराण और वेदों के रचयिता वेद व्यास का जन्म दिवस माना जाता हैउनके सम्मान में इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता हैप्राचीन काल से ही गुरुओं की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही हैगुरु की प्राप्ति सबसे बड़ी उपलब्धि है और गुरु के लिए कुछ भी अदेय नहीं है।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।

शीश दिये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान॥

इस संसार के विष से भरे जीवन को अपनी सिद्धि और करुणा के सहारे गुरु अमृतमय बनाकर हमें हमारे लक्ष्य तक पहुंचा देता है। इसी तरह साधक गुरु को ब्रह्मा, गुरु को ही विष्णु और गुरु को ही सदा शिव, बल्कि यहां तक कि गुरु को ही परब्रह्म के रूप में नमन करता है।

गुरुर्ब्रह्मा   गुरुर्विष्णुः   गुरुर्देवो    महेश्‍वरः।

गुरुः साक्षातपरंब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः॥

गुरु की महिमा अपरंपार है। उसे मैं तुच्छ क्या समेट सकता हूं।

सब  धरती  कगद    करूं,  लेखनि  सब  बन   राय।

सात समुद की मसि करूं गुरु गुन लिखा न जाए॥

गुरु के अलावा साधक का पथ-प्रदर्शक कोई नहीं होता। सिद्धि दिलाना तो गुरु के हाथों में होता है। गुरु वही है जो शिष्यों को समझाने में दक्ष है। जो दिव्यात्मा हमें मनुष्यत्व से देवत्व में परिवर्तित कराने में सामर्थ्यवान होता है वही गुरु है। यदि शिष्य गुरु की आवश्यकता को सही प्रकार से समझता है और उसकी पूर्ति के लिए प्राणपण से संलग्न रहता है तो उसको कोई विशेष अनुष्ठान व साधना की आवश्यकता नहीं पड़ती

ध्यान्मूलं गुरोर्मूर्ति पूजामूलं गुरोःपदम्‌।

मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा॥

सच्चा गुरु वह है जो अज्ञान से ज्ञान की और ले जाए और शिष्य के हाथों में बोध का दीप सौंप देकबीरदास के शब्दों में,

पीछैं लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥

हे गुरु आपका बार-बार नमस्कार है।

अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम।

तत्पददर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः॥

***   ***   ***

मनोज कुमार


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