Quantcast
Channel: मनोज
Viewing all articles
Browse latest Browse all 465

आँच –119

$
0
0

आँच –119
                       आचार्य परशुराम राय 
                     
आँच के पिछले अंकमें श्री देवेन्द्र पाण्डेयकी कविता पहिएकी गयी समीक्षा पर विद्वान मित्रों एव पाठकों ने काफी रोचक टिप्पणियाँ की हैं। मैंने कुछ बातों का प्रत्युत्तर दिया और बाद में अपने ही उत्तरों पर बहुत क्षोभ हुआ। यह सोचकर कि क्या यह आवश्यक था। हो सकता है मेरे उत्तर से उन्हें ठेस पहुँची हो। कवि धूमिल या आदरणीय डॉ.नामवर सिंह आदि के नाम पर मनोनुकूल विचार नहीं बनाए जा सकते। उस समय धूमिल की कविताएँ मेरे पास नहीं थीं। इसलिए साक्ष्य के अभाव में बातें करना या प्रत्युत्तर देना उचित नहीं जान पड़ा। पर प्रत्युत्तर दे डाला। फिर एकाएक विचार आया क्यों न इस पर एक अलग से आँचका उपांक लिखा जाए।

सबसे पहले कविता में प्रवाह की बात करते हैं। जब कविता में प्रवाह की बात की जाती है, तो पता नहीं लोग बिदक क्यों जाते हैं। माना जाता है कि हिन्दी में छन्द-मुक्त कविता का प्रारम्भ महाकवि निराला ने किया। इस प्रकार की कविता के विषय में अपनी पुस्तक पंत और पल्लवमें उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि आधुनिक कविता का आधार कवित्त (एक प्रकार का वार्णिक वृत्त या छंद) है। हालाँकि उनकी छन्दमुक्त कविताओं में मात्रिक छंदों का प्रयोग भी मिलता है। यह एक अलग चर्चा का विषय है। इसे उनकी रचनाओं को लेकर देखा जा सकता है। यहाँ  सवैया, कवित्त और दोहा की एक-एक पंक्ति लेकर छन्दमुक्त कविता के रूप में ढालकर देखते हैं -

सवैया                                कवित्त
पुर ते                                 चंचला चमाके
निकसी रघुबीर बधू                       चहुँ ओरन ते
धरि धीर                               चरजि गई थी
दए मग में डग द्वै।                      फेरि
                                     चरजन लागी री।
दोहा
सुनहुँ भरत
भावी प्रबल
बिलखि कहेउ मुनिनाथ।

आप निराला की किसी कविता को लें, इसी प्रकार की प्रांजलता मिलेगी। प्रवाह गद्य में भी पाया जाता है। लेकिन दूसरे प्रकार का। इसके लिए किसी भी सशक्त लेखक को ले सकते हैं, चाहे डॉ. विद्यानिवास मिश्र हों या डॉ. नामवर सिंह। वैसे गद्य प्रवाह का आनन्द जितना परमपूज्य आचार्य रजनीश जी या परमपूज्य श्री जे. कृष्णमूर्ति में मुझे मिला उतना अन्य में नहीं। कविता में प्रांजलता और बिम्बों को अछूत समझने वाले लोगों के लिए मैं यहाँ कविवर धूमिल की कविताओं से कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ-    

भलमनसाहत 
और मानसून के बीच में 
ऑक्सीजन का कर्ज़दार हूँ
मैं अपनी व्यवस्थाओं में 
बीमार हूँ                                                                                   (उसके बारे में)
        
जो छाया है, सिर्फ़ रात है
जीवित है वह - जो बूढ़ा है या अधेड़ है
और हरा है - हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है

चेहरा-चेहरा डर लगता है
घर बाहर अवसाद है
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है।                                                     (गाँव)

हवा गरम है
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआये हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाय
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा।
यह सही है कि नारों को
नयी शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे। 
                                                         (सिलसिला)
     कविवर धूमिल बिम्बों को अछूत नहीं मानते थे। इनकी शब्द-योजना में लाक्षणिक प्रयोग की बहुलता है। या यों कहिए कि इनकी कविताओं में नए मुहावरे और लक्ष्यार्थ पाठक को अभिभूत कर देते हैं। इनकी कविताओं में प्रांजलता का कहीं अभाव नहीं है। यह याद दिलाना चाहता हूँ इनका काल साठोत्तरी कविताओं का काल है। छंदों के ज्ञाता यदि इन कविताओं में एक सतर्क नजर डालें, तो उन्हें इनमें भी छंद नजर आएँगे।

इसे दुर्भाग्य कहा जाय या सौभाग्य कि इनकी रचनाओं को एक विशेष खेमे द्वारा हाइजैक कर लिया गया और अन्य खेमों ने इनकी ओर देखने का कष्ट नहीं किया या इनकी कविताओं का अध्ययन उस खेमे से बाहर करने का कोई साहस नहीं जुटा पाया। हो सकता है ऐसा हुआ भी हो और मुझे पढ़ने का सुअवसर न मिल सका हो। जहाँ तक मुझे पढ़ने को मिला एक खेमे विशेष के हितों को सिद्ध करनेवाले आयामों का विश्लेषण ही किया गया है। इनकी कविताओं के ऐसे कई पहलू हैं, जिनपर विद्वान लोग चर्चा करें, तो अच्छा रहेगा।

कविता के विषय में उनके मन्तव्य को समग्रता में देखना होगा। अपने मन के अनुकूल एक वाक्य को लेकर उनकी पूरी दृष्टि को वैसा ही मान लेना बेमानी होगा। श्री अनूप शुक्ल के फुरसतियाब्लॉग पर उद्धृत आभार सहित कविता के विषय में उनके कुछ विचार यहाँ दिये जा रहे हैं- 

1.  कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
2.  कविता
भाष़ा में
आदमी होने की
तमीज है।
3.  कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफनामा है।

  धूमिल की काव्यशैली, भाव-भंगिमा आदि को समझने के लिए मात्र एक चश्मे से देखने के बजाय खुली आँख और खुले मन से देखने और समझने की आवश्यकता है, अपनी अक्षमता को छिपाने के लिए नहीं।

     अब आगे बढ़ते हैं इस (/) चिह्न की ओर जिसको लेकर काफी हाय-तौबा मची। इसकी शुरुआत, जहाँ तक मेरी समझ है, व्यावसायिक पत्रों में अपनी अनभिज्ञता को ढकने के लिए प्रयोग हुआ और आज भी हो रहा है, ताकि अपने मनोनुकूल उसे व्याख्यायित किया जा सके। जहाँ तक मैंने हिन्दी भाषा पढ़ी है, विराम चिह्नों में इसका उल्लेख नहीं किया गया है। वर्तमान में केन्द्रीय विद्यालय के लिए प्रकाशित दो ख्यातिलब्ध विद्वानों द्वारा लिखित व्याकरण की पुस्तक में विराम चिह्नों पर चर्चा तक नहीं हुई है। भाषा के प्रारम्भिक दौर में इनका प्रयोग नहीं होता था। परन्तु लिखित भाषा को समझने में कठिनाई को दूर करने के लिए इनका प्रचलन शुरु हुआ। इनके अभाव में प्रायः सही भाव समझने में कठिनाई होती है और पाठक कुछ का कुछ समझ लेता है, जैसे इस वाक्य को देखिए- उसे रोको मत जाने दो। इसे पढ़कर पाठक क्या समझेगा - उसे जाने देना है या रोकना है, विराम चिह्न के सही प्रयोग के बिना समझना कठिन है।

जैसा कि पाठक विद्वानों ने चर्चा की है कि (/) का प्रयोग समकालीन कविता में ऐसे विन्यासपरक संकेतों का चलन समाप्त हो चुका है और इसके स्थान पर पंक्ति बदलकर लिखना या (/) चिह्न का प्रचलन शुरु हो गया है। इस विषय में कुछ कहना उचित नहीं है। क्योंकि शायद समकालीन कविता मैंने नहीं पढ़ी है। इसका प्रयोग कविता में ब्लॉग पर ही देखा है, अन्यत्र नहीं।
कुछ मित्रों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि कविता एकदम परफेक्ट है और आचार्य परशुराम राय के विचारों से सहमत नहीं हैं। यहाँ पाठकों के लिए तो नहीं, हाँ कवि के लिए मेरा सुझाव है कि प्रशंसक और विरोधी दोनों ही मनुष्य के विकास में बाधक होते हैं।पहिएकविता में बिखराव बहुत है। रिक्शेवालों के लिए चीटियों की तरह अन्नकण मुँह में दबाए विशेषण का प्रयोग पूरे सन्दर्भ में अनावश्यक है, अतएव कवि को सदा जागरूक होकर लोगों के विचारों को ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि भीड़-भाड़ में प्रायः सभी वाहन धीरे-धीरे चलने लगते हैं। यदि आदरणीय सलिल वर्मा की बात मान लें कि बालकनी से देखा गया दृश्य हो सकता है, तो और भी वाहन, जैसे सायकिल आदि के लिए क्यों नहीं लिखा गया। कहने का तात्पर्य यह कि कविता लिखने के बाद उसमे प्रयुक्त सभी पदों का उपयुक्तता के आधार पर मूल्यांकन स्वयं करना चाहिए। यही नहीं और भी ऐसे पद अनावश्यक पड़े हैं। एक पंक्ति में यही कहूँगा कि इसे कविता योग्य रूप देने के लिए पुनरावलोकन करने की आवश्यकता है। पूरी कविता का निचोड़ यह है कि कविता उतनी स्तरीय नहीं है, जैसा प्रशंसकों ने बताया है। केवल एक तथ्य को प्रकाशित करने के लिए कि पहियों पर दौड़नेवाले मनुष्य की अन्तिम यात्रा बिना पहिए की होती है, के लिए जो विस्तार दिया गया है, उसकी जरूरत नहीं है। क्योंकि वर्णन सामान्य है, अन्यथा बाह्य प्रकृति का भी समावेश होता।

 कवि के बचाव पक्ष में कमर कसने का कोई कारण नहीं समझ में आया। क्योंकि कोई ऐसी अनर्गल बातें उसमें नहीं लिखी गई थीं और न ही उसे कूड़ा कहा गया है। कुछ मित्रों की टिप्पणियाँ मुद्दे से हटकर थीं। उनका उद्देश्य जो भी रहा हो, कोई मायने नहीं रखता। नये विचार सुविधाजनक हों, कोई बात नहीं, लेकिन पुरातन इतने खटकने नहीं चाहिए। बिजली चली जाती है तो सुविधाकारक नवीन उपकरण काम नहीं करते। प्राकृतिक सुविधाएँ ही काम करती हैं। पाठ्यक्रमों में हम सूर, तुलसी, कबीर आदि को स्थान देना पिछड़ेपन की पहिचान समझते हैं। इसलिए उन्हें पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए मुर्दाबाद, जिन्दाबाद के नारे लगाने में हम नहीं हिचकते। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि इनसे अधिक कौन आधुनिक है। रामचरितमानस का पाठ करते हैं। पर कविवर धूमिल आदि को पढ़ते हैं। एक बहुत बड़ा तबका है जो मानस का पाठकर मुक्ति की आशा करता है। लेकिन कविवर धूमिल को पढ़कर नहीं। कविवर धूमिल, आदरणीय डॉ.नामवर सिंह आदि जिनके नाम लिए गए हैं, वे ही केवल काव्य-जगत के नियन्ता नहीं हैं। दूसरी बात कि जो कविता लिखते हैं, उनमें से कितनों ने इन्हें पढ़ा है या जो इनको समझते हैं। मैं यह भी बता दूँ कि मैंने उक्त रचनाकार एवं आलोचक को पढ़ा है और उनका आदर करता हूँ, और उनके विचार कालातीत नहीं हैं।

       अंत मेंएकहाइकूउसके दोअनुवाददिए जा रहेहैं।एकजापानीहाइकूकेअंग्रेजीअनुवादकाहिन्दी के दो प्रसिद्धकवियोंद्वाराकिएगएअनुवादनीचेदिएजारहेहैं।मैंउनकेनामयहाँजानबूझकरनहींदेरहाहूँ।टिप्पणीमेंकहींदूँगा -
The old pond     एक पुराना तालाब                   ताल पुराना 
A frog jumps in   और उछलते मेढक की आवाज         कूदा दादुर
Plop.           पानी के अन्दर।                    गडुप।         
  
आप सभी काव्य-मर्मज्ञों से अनुरोध है कि बताएँ कौन सा अनुवाद अच्छा है, चाहे शैली की दृष्टि से या शिल्प या काव्यात्मकता की दृष्टि से या ओवर आल।

यहाँ नाम इसलिए नहीं दे रहा हूँ कि खेमेबाजी न शुरु हो जाय।

इस अंक का समापन निम्न पंक्तियों से करते हुए इस स्तम्भ से विदा ले रहा हूँ-


बन्दउ ब्लॉग प्रमुख गन चरना।

छमहु जानि दास निज सरना।।

*****

                                                             

Viewing all articles
Browse latest Browse all 465

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>