भारतीय काव्यशास्त्र – 126
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में अनुप्रास अलंकार पर चर्चा की गई थी। कुछ आचार्य अनुप्रास के तीन भेद- छेकानुप्रास, वृत्त्यानुप्रास और लाटानुप्रास मानते हैं। कुछ आचार्य इसके पाँच भेद, अर्थात् उक्त तीन के अतिरिक्त दो और मानते हैं - श्रुत्यानुप्रास और अन्त्यानुप्रास। पिछले अंक में छेकानुप्रास, वृत्त्यानुप्रास और लाटानुप्रास पर चर्चा की जा चुकी है। इस अंक में श्रुत्यानुप्रास और अन्त्यानुप्रास पर चर्चा की जाएगी।
पिछले अंक में लाटानुप्रास पर चर्चा करते समय कुछ बातें छूट गई थीं। आगे बढ़ने के पहले उन्हें यहाँ पूरी कर लेते हैं। काव्यप्रकाश में अनुप्रास के केवल तीन भेद ही बताए गए हैं, जिनकी चर्चा पिछले अंक में की जा चुकी है। हाँ, इसमें लाटानुप्रास के पाँच भेद बताए गए हैं -
1. जहाँ अनेक पदों की आवृत्ति हो,
2. जहाँ केवल एक पद की आवृत्ति हो,
3. जहाँ एक ही समास में पद की आवृत्ति हो,
4. जहाँ दो अलग-अलग समासों में एक ही पद की आवृत्ति हो और
5. जहाँ पद की आवृत्ति समास में और फिर बिना समास के हो।
इन सभी को आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में सोदाहरण स्पष्ट किया है। पर, अन्य आचार्यों ने लाटानुप्रास को इस रूप में नहीं देखा है। चूँकि हिन्दी में संस्कृत भाषा की तरह समासों का प्रयोग नहीं होता है। इसलिए इसे यहीं छोड़ा जा रहा है। जहाँ तक मुझे देखने को मिला, हिन्दी में लाटानुप्रास के भेदों की चर्चा नहीं की गई है। आचार्य विश्वनाथ ने अनुप्रास के पाँच भेद मानते हुए श्रुत्यानुप्रास और अन्त्यानुप्रास की चर्चा की है। हिन्दी में भी आचार्यों ने इनकी चर्चा की है। अतएव इनपर यहाँ चर्चा की जा रही है।
आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में श्रुत्यानुप्रास की परिभाषा इस प्रकार की है -
उच्चार्यत्वाद्यद्येकत्र स्थाने तालुरादिके।
सादृश्यं व्यञ्जनस्यैव श्रुत्यानुप्रास उच्यते।।
अर्थात् तालु, कण्ठ, मूर्धा, दन्त आदि किसी एक स्थान से उच्चरित होनेवाले व्यंजनों की जहाँ आवृत्ति हो, तो वहाँ श्रुत्यानुप्रास होता है। जैसे -
दृशा दग्धं मनसिजं जीवयन्ति दृशैव याः।
विरूपाक्षस्य जयिनीस्ताः स्तुमो वामलोचनाः।।
अर्थात् दृष्टि से जले हुए कामदेव को जो दृष्टि से ही जीवित करती है, अर्थात् भगवान शिव को, जिनके तीसरे नेत्र से भस्मीभूत कामदेव जिन सुलोचनाओं के कटाक्ष से पुनः जीवित हो जाते हैं, प्रसन्न करनेवाली उन वामलोचनाओं की हम स्तुति करते हैं।
यहाँ तालु से उच्चरित होनेवाले वर्ण ज, य तथा दन्त वर्ण स, त आदि की आवृत्ति होने के कारण श्रुत्यानुप्रास अलंकार है। हिन्दी में तुलसीदास जी की निम्नलिखित पंक्ति में श्रुत्यानुप्रास देखा जा सकता है -
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई।
यहाँ त, ल, न, द आदि दन्त-वर्णों की आवृत्ति होने से श्रुत्यानुप्रास है। इसके अतिरिक्त त, स आदि की एक बार से अधिक आवृत्ति होने के कारण यहाँ वृत्यानुप्रास भी है।
जहाँ पद या चरण के अन्त में यथासम्भव स्वर, विसर्ग, अनुस्वार आदि सहित व्यंजन की आवृत्ति हो, तो उसे अन्त्यानुप्रास कहते हैं। साहित्यदर्पण में अन्त्यानुप्रास की परिभाषा निम्नवत् की गई है -
व्यञ्जनं चेद्यथावस्थं सहाद्येन स्वरेण तु।
आवर्त्यतेSन्त्ययोज्यत्वादन्त्यानुप्रास एव तत्।।
इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण दिया गया है-
केशः काशस्तबकविकासः कायः प्रकटितकरभविलासः।
चक्षुर्दग्धवराटककल्पं त्यजति न चेतः काममनल्पम्।।
अर्थात् कास के फूल के समान केश सफेद हो चुके हैं। शरीर दो पैरों पर खड़े ऊँट के बच्चे की तरह हो गया है। आँखें जली कौड़ी की तरह हो गई हैं। फिर भी कामना को चित्त जरा भी नहीं छोड़ता।
इस श्लोक में पहले दो चरणों में आसः की विकासः और विलासः में आवृत्ति हुई है। इसी प्रकार तीसरे और चौथे चरण में ल्पम्की कल्पम्और अल्पम्के रूप में आवृत्ति हुई है। अतएव यहाँ श्रुत्यानुप्रास है। निम्नलिखित सोरठा हिन्दी में उदाहरण स्वरूप दिया जा रहा है -
कुंद इंदु सम देह, उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह, करहु कृपा मर्दन मयन।।
इसमें पहले और तीसरे चरण में देह और नेह तथा तीसरे और चौथे चरण में अयनतथा मयनमें श्रुत्यानुप्रास है। वैसे सोरठा में प्रायः प्रथम एवं तृतीय चरणों में ही अन्त्यानुप्रास देखने को मिलता है। पर इस सोरठे के दूसरे और चौथे चरणों में भी अन्त्यानुप्रास है। इसके अतिरिक्त कुंद, इंदुपदों के अंत में भी अन्त्यानुप्रास है।
अन्त्यानुप्रास के कई भेद किए जा सकते हैं - 1. पद के अंत में, 2. सभी चरणों के अन्त में (सवैया), 3. विषम और सम चरणों के अंत में (चौपाई छंद), 4. सम चरणों के अन्त में (दोहा), 5. विषम चरणों के अंत में (प्रायः सोरठा में) समान वर्णों की आवृत्ति होती है। यहाँ सम चरण का अर्थ दूसरा और चौथा, विषम चरण का अर्थ पहला और तीसरा है।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में यमक और पुनरुक्तवदाभास अलंकारों पर चर्चा होगी।
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