Quantcast
Channel: मनोज
Viewing all articles
Browse latest Browse all 465

50. सत्य और ईमानदारी के सिद्धांत पर

$
0
0

 गांधी और गांधीवाद

मेरे लिए सत्य सर्वोच्च सिद्धांत है, जिसमें अन्य अनेक सिद्धांत समाविष्ट हैं। यह सत्य केवल वाणी का सत्य नहीं है अपितु विचार का भी है, और हमारी धारणा का सापेक्ष सत्य ही नहीं अपितु निरपेक्ष सत्य, सनातन सिद्धांत, अर्थात ईश्वर है। - महात्मा गांधी

50. सत्य और ईमानदारी के सिद्धांत पर

1895

प्रवेश

गांधीजी को अपनी इस धारणा पर दृढ़ विश्वास था कि सत्य से समझौता किये बिना कानून का अभ्यास करना असंभव नहीं है। सत्य और ईमानदारी के सिद्धांत के बल पर गांधीजी अपना कानूनी पेशा निभाते गए और उन्हें सफलता मिलती गई। सत्य ही एकमात्र कसौटी थी जिसके आधार पर वह अपने मुवक्किल और न्यायालय के प्रति अपने कर्तव्य का मूल्यांकन करते थे। उनके अनुसार कानून की प्रक्रिया में एक वकील द्वारा किया जाने वाला सबसे बड़ा अपराध न्याय की विफलता में भागीदार होना है। कानूनी पेशे के प्रति गांधीजी का संपूर्ण दृष्टिकोण उपरोक्त सिद्धांत पर आधारित था। इन नियमों काउन्होंने निर्भीकता से पालन किया।

पारसी रुस्तमजी का मामला

अपनी आत्मकथा में वे पारसी रुस्तमजी की कथा का बयान करते हैं। वह न सिर्फ़ उनका मुवक्किल था बल्कि एक घनिष्ठ मित्र भी था। व्यापार के अपने पेशे में वह कभी कभार स्मगलिंग भी करता था। यह सिलसिला बहुत दिनों से चला आ रहा था। जब यह अपराध उजागर हुआ तब तक वह काफ़ी गड़बड़ी कर चुका था। कठिन परिस्थितियों में घिरा रुस्तमजी अपनी नैय्या डूबती देख गांधीजी की शरण लेना बेहतर समझा। वह दौड़ा उनके पास आया और सब कुछ बता कर खुद को बचाये जाने के लिए गिड़गिड़ाने लगा। गांधीजी ने कहा, यह तो उनके हाथ में है कि तुम बचोगे या नहीं। जहां तक मेरा सवाल है तुम तो जानते ही हो मेरे काम करने का ढंग। मैं तो ग़लती की स्वीकारोक्ति में विश्वास रखता हूं।

रुस्तमजी ने कहा कि आपके सामने की गई मेरी स्वीकारोक्ति क्या काफ़ी नहीं है?

गांधीजी ने जवाब दिया, ग़लती तुमने सरकार के खिलाफ़ की है इसलिए स्वीकारोक्ति भी उनके समक्ष ही किया जाना चाहिए। गांधीजी कहने पर वे दोनों एक बड़े वकील के पास गए। सारी बात सुनने और समझने के बाद उसने कहा कि तुम इसका नतीज़ा भी सुन लो। कस्टम अधिकारी और एटर्नी जनरल से मैं तो बात करूंगा, पर अगर सिर्फ़ फाइन पर वह नहीं माने तो तुम्हें जेल जाने के लिए भी तैयार रहना होगा। गांधीजी इस कोशिश में कामयाब हुए कि मामला फाइन देकर ही बंद कर दिया गया।

नेटाल रेलवे के श्रमिक का मामला

नेटाल की रेलवे में भारत से आए बहुत से मज़दूर काम करते थे। इनकी भी दशा दयनीय ही थी। 1895 अप्रैल-मई के आसपास उनमें से 71 पर मजिस्ट्रेट मि. डिलन के समक्ष पुलिस पर हमला करने का आरोप लगाया गया।उनका पुलिस के साथ कुछ झगड़ा-झंझट हो गया था। मामला यह था कि रेलवे की तरफ़ से इन मज़दूरों को लकड़ी दी जाती थी, जिस पर वे अपना भोजन बनाते थे। पर रेलवे ने बचत के दृष्टिकोण से यह निर्णय लिया कि उन्हें अब कोयला दिया जाएगा। पर समस्या यह थी कि कोयला बिना लकड़ी की सहायता से जल नहीं सकता था। उसे जलाने के लिए वे जहां-तहां से लकड़ी का जुगाड़ करते थे। 17 मई 1895 को जब वे लकड़ीके साथ जा रहे थे तो एक "देशी"कांस्टेबल ने उन्हें रोक लिया और उन्हें गिरफ्तार करने के लिए आगे बढ़ा। इसके बाद, यह आरोप लगाया गया कि, "उनमें से सात लोग लाठी लेकर घूमे"और उसकी पिटाई की। बाद में यूरोपीय कांस्टेबल पी.सी. मैडेन अकेले ही घटनास्थल पर गया और बिना किसी प्रतिरोध के उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

हालाकि इस बार प्रोटेक्टर बीच में आया और उसने इसे छोटी ग़लती मानते हुए यह कहकर छोड़ देने की अनुशंसा की कि यह उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरत है। अप्रवासियों के संरक्षक ने गवाही दी कि उसने बैरकों का दौरा किया था, और पाया कि पुरुषों के लिए चूल्हे पर अपना खाना पकाना बिल्कुल असंभव था; उनमें ईंधन नहीं जलता था। मज़दूरों ने लगातार इसकी शिकायत की थी। उन्होंने इस विषय पर रेलवे के महाप्रबंधक श्री हंटर को पत्र लिखा था, और उन्हें जवाब मिला था कि इस पर तुरंत ध्यान दिया जाएगा। पिछले 17 दिनों से वे अपने भोजन को पकाने के साधन के बिना रह रहे थे। इन लोगों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया गया है। फैसला सुनाते हुए मजिस्ट्रेट ने टिप्पणी की कि सबूतों के आधार पर वे लोग वह चीज़ लेने के दोषी हैं जिसे लेने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था, और उसके बाद पुलिस के साथ अनुचित व्यवहार किया। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें दृढ़ता से महसूस हुआ कि वे एक बहुत खराब परिस्थिति में काम कर रहे थे। उनके साथ वैसा ही बुरा व्यवहार किया गया है जैसा प्राचीन समय के यहूदियों के साथ किया जाता था, जब उन्हें फिरौन के आदेशों का पालन करने और बिना भूसे के ईंटें बनाने के लिए मजबूर किया जाता था। मैं उन्हें कोई भी सज़ा नहीं देने जा रहा हूँ, और वे जा सकते हैं।

पर नेटाल एडवर्टाइज़र ने इस निर्णय के खिलाफ़ बहुत उल्टा सीधा लिखा जिसका गांधीजी ने डटकर विरोध किया और कहा कि भारतीय समुदाय को नीचा दिखाने के लिए अखबार में बढ़ा-चढा कर लिखा गया है। क्षमा याचना के साथ नेटाल एडवर्टाइज़र ने गांधीजी का बयान छापा।

रेलवे राशन विवाद

जून 1895 में नेटाल रेलवे के 255 श्रमिक उनके कोटे के दिए जाने वाले राशन से उत्पन्न विवाद के कारण अपने काम पर नहीं गए। उन्हें डेढ़ पौंड चावल प्रति दिन दिया जाता था। चावल की जगह पर सप्ताह में तीन दिन उन्हें दो पौंड मकई या अन्य अन्न दिया जाने लगा। उन्हें मकई पसंद नहीं आता था। जब उन्हें जबरदस्ती मकई ही दिया जाने लगा तो वे प्रोटेक्टर से मिले। उनके शिकायत की सुनवाई तो हुई ही नहीं, उलटे उपद्रव फैलाने के आरोप में उन्हें ही गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर 1891 के कानून 25 की धारा 101 का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया, जो कर्मचारियों को एक साथ काम छोड़ने से रोकता था।उनके लिए गांधीजी अदालत में उपस्थित हुए और एक सप्ताह की मोहलत मांगी ताकि मामले का निपटारा आपसी बात-चीत से कर लिया जाए।

लेकिन रेलवे विभाग के श्री हैमंड ने कहा कि वे आरोप वापस लेने के लिए तैयार नहीं हैं, और पीठासीन मजिस्ट्रेट कैप्टन लुकास ने निर्णय दिया कि चूंकि इन लोगों को कानून का उल्लंघन करने के दोष के लिए उनके समक्ष लाया गया था, इसलिए वे कानून के परे नहीं जा सकते। मजिस्ट्रेट इससे सहमत नहीं हुआ और दंड स्वरूप उसने एक शिलिंग का ज़ुर्माना लगा दिया साथ ही यह भी आदेश दिया कि यदि वे इसका भुगतान नहीं करते हैं तो उन्हें तीन दिन के कारावास की सज़ा भुगतनी होगी। इस बीच गांधीजी की रेल अधिकारियों से बात हुई और समझौता हुआ कि छह पौंड अनाज की जगह श्रमिकों को आठ पौंड अनाज दिया जाएगा। जब समझौता हो गया तो श्रमिकों ने सोचा कि एक शिलिंग का ज़ुर्माना न देकर वे तीन दिन का कारावास ही भुगतेंगे। पर गांधीजी के समझाने से कि केन्द्रीय मुद्दा तो सुलझ गया है उन्हें दं दे कर काम पर लौट जाना चाहिए, श्रमिक ने वैसा ही किया।

उपसंहार

जिस तरह से दोषी मजदूरों ने शुरू में जुर्माना भरने से इनकार कर दिया और जेल जाना पसंद किया, उससे एक तरह से आने वाली घटनाओं का पूर्वाभास हो गया था। यह तथ्य कि वे तर्क के आगे झुक गए, एक स्वस्थ संकेत था। नेटाल सरकारी रेलवे के महाप्रबंधक ने समझौता कराने में निभाई गई भूमिका के लिए गांधी को धन्यवाद दिया।

***    ***    ***

मनोज कुमार

पिछली कड़ियां

गांधी और गांधीवाद : 1. जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि, गांधी और गांधीवाद 2. लिखावट, गांधी और गांधीवाद 3. गांधीजी का बचपन, 4. बेईमानी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकती, 5. मांस खाने की आदत, 6. डर और रामनाम, 7. विवाह - विषयासक्त प्रेम8. कुसंगति का असर और प्रायश्चित, 9. गांधीजी के जीवन-सूत्र, 10. सच बोलने वाले को चौकस भी रहना चाहिए11. भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के कारक12. राजनीतिक संगठन13. इल्बर्ट बिल विवाद, 14. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय, 15. कांग्रेस के जन्म के संबंध में सेफ्टी वाल्व सिद..., 16. प्रारंभिक कांग्रेस के कार्यक्रम और लक्ष्य, 17. प्रारंभिक कांग्रेस नेतृत्व की सामाजिक रचना, 18. गांधीजी के पिता की मृत्यु, 19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए, 20. शाकाहार और गांधी, 21. गांधीजी ने अपनाया अंग्रेज़ी तौर-तरीक़े, 22. सादगी से जीवन अधिक सारमय, 23. असत्य के विष को बाहर निकाला, 24. धर्म संबंधी ज्ञान, 25. बैरिस्टर बने पर वकालत की चिन्ता, 26. स्वदेश वापसी, 27. आजीविका के लिए वकालत, 28. अंग्रेजों के जुल्मों का स्वाद, 29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव, 30. अनवेलकम विज़िटर – सम्मान पगड़ी का, 31. प्रवासी भारतीयों की समस्या का इतिहास, 32. प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुए सक्रिय अहिंसा का स..., 33. अपमान का घूँट, 34. विनम्र हठीले गांधी, 35. धार्मिक विचारों पर चर्चा, 36. गांधीजी का पहला सार्वजनिक भाषण, 37. दुर्भावना रहित मन, 38. दो पत्र, 39. मुक़दमे का पंच-फैसला, 40. स्वदेश लौटने की तैयारी, 41. फ्रेंचाईज़ बिल का विरोध, 42. नेटाल में कुछ दिन और, 43. न्यायालय में प्रवेश का विरोध, 44. कड़वा अनुभव, 45. धर्म संबंधी धारणाएं, 46. नेटाल इन्डियन कांग्रेस, 47. बालासुन्दरम का मामला, 48. सांच को` आंच कहां, 49. सत्य और ईमानदारी का मार्ग

 


Viewing all articles
Browse latest Browse all 465

Latest Images

Trending Articles



Latest Images

<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>