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फ़ुरसत में ... फ़ुरसत से ...!

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फ़ुरसत में ... 118

फ़ुरसत से ...!

facebook-profile-imageमनोज कुमार

महत्वपूर्ण यह नहीं कि ज़िन्दगी में आप कितने ख़ुश हैं, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि आपकी वजह से कितने लोग ख़ुश हैं।वास्तव में कुछ लोगों की कुछ खास बातें, उनकी कुछ खास अदाएं, उनके कुछ खास अंदाज हमें भरपूर खुशी देते हैं, वहीं कुछ लोगों के हाव-भाव, आदत-अंदाज हमें चिढ़-कुढ़न और घुटन दे जाते हैं। कुछ ऐसे भी अन्दाज़ होते हैं लोगों के जिससे हँसी आती है, गुस्सा आता है और कभी-कभी खीझ भी पैदा होती है। इन तमाम मिले-जुले भावों को एक साथ पैदा करने के पीछे उनके तकियाकलाम का अन्दाज़ छिपा होता है।

अब देखिये न, एक महानगरीय मित्र से बातचीत में अभी मैंने बस इतना ही कहा था कि “फ़ुरसत में जब होते हैं तो, कभी-कभी... और हमेशा भी, अपनी माटी ‘कस’ कर याद आती है।” तो छूटते ही उनके मुंह से निकला, “ओह शिट! मुझे भी अपना नैटिव प्लेस विजिट किए हुए कितने दिन हो गए!” ऐसा लगा मानो उन्होंने अपने “नेटिव प्लेस” से अपनी मुहब्बत को उस एक तकियाकलाम “ओह शिट” में समेट दिया हो।

ये तकियाकलाम भी ग़जब की चीज़ है। बिना इस तकिया की टेक लिये सामने वाला अपना कोई भी कलाम मुकम्मल नहीं कर सकता।सच पूछिये तो यह फ़ुरसत से फ़ुरसतियाने और बैठकर विचारने वाली चीज़ है ही नहीं। यह तो बरबस ही निकलता है, ... निकलता रहता है। इसका मुख्य संवाद के विषय से कोई संबंध नहीं होता। आम लोग‘माने’, ‘मतलब’, ‘आंए’, ‘हें’, ‘हूं’, आदि बोलते पाए जाते हैं, तो खास लोग‘ओके’, ‘आई मीन’, ‘यू नो’, ‘एक्चुअली’ आदि। हमारे एक प्रोफ़ेसर थे, वे तो ‘एक्चुअली’ में ‘श’ लगाकर उसे लंबा खींचते थे ... ‘एक्चुअलिश्श्श्श्श्श’! उनकी इस विशेषता ने उन्हें एक उपनाम ही दे दिया था। जब कोई पूछता कि अभी किसकी क्लास है, तो उत्तर होता, ‘एक्चुअलिश्श्श्श्श्श की’।

बड़े प्यारे-प्यारे तकियाकलाम होते हैं। तकियाकलामों में भी रिजनल वैरिएशन होता है। अपनी ‘माटी’ से हमने बात शुरू की थी – तो चलिए वहीं की बात लाऊं। रेलवे कॉलोनी में जब हम रहते थे, तो हमारे पड़ोसी थे ओझा जी। उनको ‘जो है सो कि’बोलने की आदत थी। ‘हम पटना पहुंचे, तो जो है सो कि वहां बहुते ठंढ़ा लगा’। दूर कहाँ जाएँ, हमारे घर में मौजूद हमारी उत्तमार्ध का तो अंदाज और भी निराला है। उनकी कही गई बातों के रिक्त स्थानों की पूर्ति हमें ‘अथी’में ढूँढकर करनी होती है। एक बानगी -

“ज़रा-सा अथी देना ..!”

‘? ? ?’

“अथी कहां रख दिए?”

‘? ? ?’

हमारी सीतापुर वाली चाची की हर बात में ‘बुझे कि नहीं’टाँका रहता है। “आज हमारे साथ तो गजबे हो गया ... बुझे कि नहीं...” कुछ तकियाकलाम के साथ ऐक्शन भी जुड़ा होता है। ख़ासकर बातों को रहस्यमय बनाने और आपसे अपनापन दिखाने के लिये इसका प्रयोग होता है “का कहें सर्र ...! असल बात तो ई है कि.. ” और कहते हुये अपने स्वर को फुसफुसाहट में तब्दील करना किंतु तीव्रता इतनी कि हर अगल-बगल वाले को बात सुनाई दे जाए और अन्दाज़ ऐसा कि बस जैसे वो घोड़े के मुँह से (फ्रॉम हॉर्सेस माउथ) सुनकर आ रहे हैं।

कुछ तकियाकलाम तो सायास निकाले जाते हैं। प्रायः इसके प्रयोग से वे स्वयं अथवा अपने पूर्वजों को ग्लोरिफ़ाई करते हैं (भले ही उनके अतीत में कोई क्राउनिंग ग्लोरी न रही हो) जैसे मैनेजर की आदत है कि वह हर सूक्ति के साथ कहेगा, “मेरे पिताजी कहा करते थे ...”, भले ही वह बात उनके पिताजी ने नहीं, गोस्वामी तुलसीदास जी ने कही हो। वैसे भी आपके पास उसे वेरिफाई करने के लिए कोई उपाय नहीं है। इस तरह के लोगों के प्रयास से आज कबीरदास के दोहों में इतने दोहे जुड़ गए हैं कि स्वयं कबीरदास भी आज अगर हमारे बीच होते तो आश्चर्य करते कि उन्होंने इतने सारे दोहे रच डाले थे!

बिना रफ़ू के गप करने वाले कुछ लोग अपने सायास तकियाकलामों से हमें अकसर ‘झेला’ देने को तैयार बैठे होते हैं। मेरे पिता जी के एक अनन्य मित्र की बात, “तुम लोग क्या पढ़ोगे, हम लोग तो मात्र दो घंटा सोते थे, बाक़ी समय पढ़ते रहते थे।” ने इतना पकाया कि इच्छा होने लगी पढ़ना ही छोड़ दें। ज़िन्दगी में सिर्फ़ एक बार विदेश यात्रा किए, वह भी काठमांडू का, रतन जी बात-बात में आपको जता ही देंगे कि उन्होंने विदेश यात्रा की है। “जब हम काठमांडू गए थे तो वहां एक बात नोट की ..” , जैसे भारत में नोट करने लायक कोई बात उन्हें मिली ही नहीं। ऐसे लोग अपने विदेश यात्रा या किसी खास पोजिशन के ग्लोरिफिकेशन के कारण न सिर्फ़ इरिटेशन बल्कि ऊब पैदा करते हैं। ऐसे लोग स्वयम का विज्ञापन करने के चक्कर में ख़ुद को हास्यास्पद बना लेते हैं। नतीजा यह होता है कि वे हमारी नज़रों में या हमारे दिल में जो सम्मान रखते थे, ख़ुद से, ख़ुद की हरकतों से ध्वस्त करा देते हैं। जहां एक ओर ‘आंए’, ‘बांए’, ‘शांए’ जैसे अनायास निकलने वाले तकियाकलाम प्रायः लोग अपनी कमियों को छुपाने के लिए आदतन इस्तेमाल करते हैं, वहीं सायास तकियाकलाम अपनी हैसियत को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने के लिए।

आईए आज विदा लेने से पहले आपको एक अनायास निकलने वाले तकियाकलाम और सायास निकाले जानेवाले तकियाकलाम की जुगलबंदी से आपको रू-ब-रू कराता चलूं। पटना के दिनों की एक बात का ज़िक्र करता चलूं। एक लॉज में हम पांच मित्र साथ रहते थे। मिलकर खाना-वाना बनाते और प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करते। हरि भाई की हर सेंटेन्स में एक बार ‘आंए’बोलने की आदत थी। “हमारा तो केमिस्ट्री का प्रिपरेशन पूरा हो गया .. आंए।” उनके इस ‘आंए-आंए’ से सबको चिढ़ होती थी। एक दिन सबने विचार किया कि इसको छुड़वाया जाए। सुबह से ही, जो उनसे बात करता, अपने वाक्य में ‘आंए’ का प्रयोग ज़रूर करता।

“.. और हरि भाई कहां से आ रहे हैं आंए?”

“रात को खूब सोए .. आंए” ...

“नाश्ता कर लिए .. आंए”

कुछ देर तक तो हरि भाई ने हमारी हंसी को मज़ाक़ ही समझा और हमारी बातों का हंस-हंस कर जवाब देते रहे। फिर जब यह सिलसिला घंटा भर से भी अधिक चला तो वे बेचारे सीरियस होने लगे। कभी झल्ला कर तो कभी उकताकर जवाब देते। दो घंटे जब इसी तरह बीत गए और “आँए” का सिलसिला नहीं थमा, तो वे गुस्साने भी लगे। लेकिन इधर हम चार थे वे एक, सो तीसरे घंटे से उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा। उनकी ख़ामोशी ने हम पर भी असर किया। और चिढ़ाने वालों की संख्या घटती गई। फिर धीरे-धीरे सब अन्य काम में लग गए बिल्कुल सामान्य ढंग से। एकाएक ग़ौर किया तो पाया कि हरि भाई कमरे से गायब हैं। इधर-उधर ढ़ूंढ़ा लेकिन उन्हें खोज नहीं पाए। शाम हो चुकी थी। अंधेरा घिरने लगा था। मोड़ पर कुछ सामान लेने गया तो मेरी नज़र चाय की दुकान के सामने की बेंच पर पड़ी। देखा हरि भाई बड़े दुखी अवस्था में बैठे थे। उनसे पूछा “आप यहां क्यों बैठे हैं? हम सब आपको चारो तरफ़ खोज रहे थे।”

हरि भाई बोले “तुमने, .... सबने मेरा मजाक बनाकर रख दिया है, आँए। इतना परेशान किया तुम लोगों ने कि मन किया गंगा में कूद कर जान दे दूं, आँए।” मामला इतना संगीन हो चुका था कि उस समय उनकी “आँए” सुनकर न तो हँसी आ रही थी, न खीझ हो रही थी।

बात यहां तक बढ़ जाएगी यह तो कल्पना से भी परे थी। हमने किसी तरह से समझा-बुझाकर हरि भाई को वापस बुलाया। सबसे यह बात बताई। जो माहौल बन चुका था उसमें हरि भाई को समझाना भी मुश्किल था कि ‘यह तो हम सब आपके भले के लिए कर रहे थे ताकि आप इस अनावश्यक दुहराए जाने वाले शब्द से मुक्ति पाएं, यह आपके व्यक्तित्व के विकास में बाधक है।’ या शायद हमारा समझाने की तरीक़ा सही नहीं था।

अगले दिन शाम को जब मैं कोचिंग से लौटा तो देखा कि उस चौकी से, जिस पर हरि भाई अपना डेरा-डंडा डाले रहते थे, चादर-तकिया सब चीज़ नदारद है। हमने पूछा, “हरि भाई कहां हैं?”

शंकर ने बताया, “हरि भाई लॉज छोड़कर चले गए।” यह तो ‘रक्षा में हत्या’हो गई। हम तो हरि भाई के मुंह से अनायास निकलने वाले तकियाकलाम को छुड़ाने के लिए सायास प्रयास कर रहे थे, लेकिन हरि भाई तो मैदान से ही कूच कर गए। मैंने एक लम्बी-सी सांस ली।

आज महसूस हुआ कि किसी के साथ दोस्ती का महत्व इसमें नहीं है कि कोई उसके साथ होने से कितनी खुशी महसूस करता है बल्कि उसमें है कि उसके नहीं रहने से कितना ख़ालीपन महसूस करता है।मैं उस दिन बहुत ख़ालीपन महसूस कर रहा था।

*** बस ***


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