भारतीय काव्यशास्त्र – 125
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में वक्रोक्ति अलंकार पर चर्चा की गयी थी। इस अंक में अनुप्रास अलंकार पर चर्चा की जाएगी।
वर्णों की समानता (आवृत्ति) को अनुप्रास कहा गया है- वर्णसाम्यमनुप्रासः। भले ही व्यंजनों के साथ संयुक्त स्वरों में समानता न हो, लेकिन व्यंजनों में समानता होनी चाहिए। ऐसा होने पर अनुप्रास अलंकार होगा। अनुप्रास की व्युत्पत्ति की गई है- अनुगतं प्रकृष्टश्च न्यासः इति अनुप्रासः। इसका अभिप्राय वही है जो ऊपर दिया गया है। अनुप्रास के तीन भेद किए गए हैं- छेकानुप्रास, वृत्त्यानुप्रास और लाटानुप्रास।
छेक का अर्थ होता है चतुर। शायद इसका प्रयोग चतुर लोग ही करते हों। छेकानुप्रास में वर्णों की आवृत्ति एक बार होती है। जैसे-
ततोSरुणपरिस्पन्दमन्दीकृतवपुः शशी।
दध्रे कामपरिक्षामकामिनीगण्डपाण्डुताम्।।
हिन्दी की निम्नलिखित कविता इसके लिए उद्धृत की जा रही है-
बगरे बीथिन में भ्रमर, भरे अजब अनुराग।
कुसुमित कुंजन में फिरत, फूल्यो स्याम सभाग।।
जहाँ एक या अनेक वर्णों की एक बार से अधिक आवृत्ति हो, वहाँ वृत्त्यानुप्रासहोता है। वृत्त्यानुप्रास में वृत्ति शब्द समझना आवश्यक है। यहाँ वृत्ति का अर्थ रीति, संघटना, शैली या मार्ग से है। इसमें गुण का भी समन्वय देखा जाता है। आचार्य उद्भट ने अपने काव्यालङ्कार-संग्रह नामक ग्रंथ में तीन प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख किया है- उपनागरिका (मधुरा), कोमला और परुषा।
आचार्य मम्मट ने उपनागरिका की परिभाषा यों की है- माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णैरु-पनागरिकोच्यते, अर्थात् माधुर्य व्यंजक वर्णों की जहाँ आवृत्ति हो, वहाँ उपनागरिका वृत्त्यानुप्रास होता है। आचार्य वामन ने इसे वैदर्भी कहा है। इसके लिए आचार्य मम्मट ने निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है-
अनङ्गरङ्गप्रतिमं तदङ्गं भङ्गीभिरङ्गीकृतमानताङ्ग्याः।
कुर्वन्ति यूनां सहसा यथैताः स्वान्तानि शान्तापरचिन्तनानि।।
अर्थात् कामदेव की रंगशाला की तरह स्तनों के भार से नतांगी (झुके हुए शरीरवाली) की चेष्टाओं ने उसके (नायिका के) शरीर को अपने अधीन कर लिया है कि ये चेष्टाएँ (हाव-भाव) युवकों के चित्त को तुरन्त अन्य विषयों की चिन्ता से मुक्त कर अपने में रमा लेती हैं।
हिन्दी में कवि देव रचित निम्नलिखित कवित्त उपनागरिका वृत्त्यानुप्रास के लिए उद्धृत किया जा रहा है-
मंद-मंद चढ़ि चल्यो चैत-निसि चंद चारु,
मंद-मंद चाँदनी पसारत लतन तें।
मंद-मंद जमुना-तरंगिनि हिलोरैं लेति,
मंद-मंद मोद मंजु-मल्लिका-सुमन तें।
देव कवि मंद-मंद सीतल सुगंध पौन,
देखि छबि छीजत मनोज छन छन तें।
मंद-मंद मुरली बजावत अधर धरे,
मंद-मंद निकस्यौ मुकुंद मधुबन तें।।
मानस की ये पंक्तियाँ इस वृत्त्यानुप्रास का एक आदर्श उदाहरण हैं-
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि।
कोमला वृत्त्यानुप्रास में माधुर्य और ओज में प्रयुक्त होनेवाले वर्णों को छोड़कर अन्य वर्णों की आवृत्ति होती है, अर्थात् य, र, ल, व, स आदि वर्णों की आवत्ति पाई जाती है। कुछ लोग इसे ग्राम्या वृत्ति भी कहते हैं। आचार्य उद्भट इसे कोमला और आचार्य वामन पाञ्चालीमानते हैं। इसके लिए काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है। इसमें एक वियोगिनी बाला की दशा का वर्णन किया गया है-
अपसारय घनसारं कुरु हारं दूर एव किं कमलैः।
अलमलमालि मृणालैरिति वदति दिवानिशं बाला।।
अर्थात् रात-दिन बाला यही कहती रहती है कि हे सखि, कपूर को हटाओ, हार को तो दूर ही रखो, इन कमल के फूलों का क्या काम, अर्थात् ये भी व्यर्थ हैं।
हिन्दी में एक कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ इस वृत्त्यानुप्रास का उदाहरण हैं-
नवल कँवल हू ते कोंवल चरन हैं।
परुषा वृत्यानुप्रास में ओज गुण में प्रयुक्त होनेवाले कठोर वर्णों और संयुक्ताक्षरों की आवृत्ति होती है। इसलिए भयानक, वीर, रौद्र आदि रसों में इसका प्रयोग किया जाता है। आचार्य वामन इसे गौडी और आचार्य उद्भट परुषाकहते हैं। काव्यप्रकाशमें निम्नलिखित श्लोक इसके लिए उद्धृत किया गया है। यह श्लोक हनुमन्नाटकम् में रावण की उक्ति है -
मूर्ध्नामुद्वृत्तकृत्ताविरलगलद्रक्तसंसक्तधारा-
धौतेशाङ्घ्रिप्रसादोपनतजयजगज्जातमिथ्यामहिम्नाम्।
कैलासोल्लासनेच्छाव्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदर्पोधुराणां
दोष्णां चैषां किमेतत्फलमिह नगरीरक्षणे यत्प्रयासः।
अर्थात् उद्धत होकर लगातार कंठ से बहती अविरल रक्त की धार से भगवान शिव के चरणों के धोने से उनकी कृपा से प्राप्त विजय से जगत में मिथ्या महत्ता को प्राप्त मेरे इन दस सिरों और कैलास को उठाने की इच्छा से आविष्ट उत्कट अभियान के गर्व से युक्त मेरी भुजाओं का क्या यही फल है कि अपनी इस नगरी की रक्षा के लिए मुझे प्रयास करने की आवश्यकता आ पड़ी।
हिन्दी के लिए मानस की निम्नलिखित पंक्तियाँ इसके लिए उदाहरण रूप में ली जा सकती हैं -
जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे।।
हनुमंत अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे।।
जहाँ पदों की आवृत्ति होती है, वहाँलाटानुप्रासहोता है। पदों की आवृत्ति में पुनरुक्ति दोष तथा पुनरुक्तवदाभास अलंकार होने की सम्भावना बनती है। आचार्य मम्मट ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है -
शाब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदे तात्पर्यमात्रतः।
अर्थात् तात्पर्य मात्र से भेद होने पर शब्द की आवृत्ति हो, तो लाटानुप्रास होता है।
दक्षिणी गुजरात को लाट देश कहा जाता था। वहाँ के लोगों प्रिय होने या वहाँ के कवियों द्वारा ऐसा प्रयोग किए जाने के कारण ही इसे लाटानुप्रास कहा जाता है। इसके लिए काव्यप्रकाश में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया गया है-
यस्य न सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य।
यस्य न सविधे दयिता दवदहनस्तुहिनदीधितिस्तस्य।।
अर्थात् जिसके समीप प्रियतमा नहीं है, चन्द्रमा उसके लिए दावानल की तरह हो जाता है और प्रियतमा जिसके पास होती है, दावानल उसके लिए चन्द्रमा की तरह शीतल अर्थात् आनन्ददायक होता है।
हिन्दी की निम्नलिखित कविता इसके उदाहरण के रूप में द्रष्टव्य है-
राम हृदय जाके नहीं, बिपति सुमंगल ताहि।
राम हृदय जाके, नहीं बिपति सुमंगल ताहि।।
इस अंक में बस इतना ही। अगले अंक में अनुप्रासालंकार पर कुछ और चर्चा होगी।