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बुद्धिजीवी किंकर्त्तव्यविमूढ़ है

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बुद्धिजीवी   किंकर्त्तव्यविमूढ़   है

श्यामनारायण मिश्र

गज समस्या का उठाता सूंढ़ है
जीविका  का  प्रश्न  पूरा रूढ़ है

एक भद्दा  अंग  भी  ढंकता नहीं
चीथड़ों   की   हो   गई हड़ताल
मौत की मछली फंसाने के लिए
भूख बुनती  हड्डियों  के  जाल
वैताल सा निर्वाह लटका गूढ़ है

हर शहर है बागपत की आत्मा
अलीगढ़,  दिल्ली,  मुरादाबाद,
गांव की हर गली  में है घूमता
जातीयता का क्रूरतम उन्माद
हार  बैठा  मूढ़  छप्पर  ढूंढ़ है

राजनैतिक  दल  जलाने  को  खड़े
आसाम की यह अर्द्ध जीवित लाश
आदमी के तांडव की देख  क्षमता
तड़तड़ा    कर    टूटता   आकाश
बुद्धिजीवी   किंकर्त्तव्यविमूढ़   है
***     ***     ***

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!

दिवाली तब दिवाली हो

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-- करण समस्तीपुरी  

दुआ हर ओर से आए, दिवाली तब दिवाली हो।
दिया हर घर में जल जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥

जले आहुतियाँ पहले सभी कलुषित विचारों की।
अँधेरा मन का मिट जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥


न जानें कौन से रस्ते से वन को थे गए रघुवर।
अवध में लौट कर आएँ, दिवाली तब दिबाली हो॥





विदेशी क़ैद में विष्णु-प्रिया बैठी सिसकती हैं।
जो अपने घर चली आए, दिवाली तब दिवाली हो॥

न माँगे भीख होरी, ना मरे बुधिया कुपोषण से।
मिले जब काम हाथों को, दिवाली तब दिवाली हो॥

ये भ्रष्टाचार, ये आतंक, ये महँगाई है 'केशव'।
इन्हें कोई मिटा जाए, दिवाली तब दिवाली हो॥


-: ज्योति-पर्व की अनंत मंगल-कामनाएँ :-

थानेदार बदलता है

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थानेदार बदलता है

श्यामनारायण मिश्र



कितना ही सम्हलें लेकिन हर क़दम फिसलता है
जाने  क्यों हर  बार  हमें  ही  मौसम  छलता  है।

खेतों खलिहानों में मंडी की दहशत फैली
बनिया  सीख गया है साहू सेठों की शैली
ज़मींदार था स्थिर, थानेदार बदलता है।

गौशाले  की  सांठ  -  गांठ   है   बूचड़ख़ाने   से
फिर भी है कुछ नहीं शिकायत तुम्हें ज़माने से
दूध  नहीं  चूल्हे  पर  अब  तो ख़ून उबलता है।

पात - पात  संगीत  डाल  कंदील कसी थी
रात किसी बंजारे की दुनिया यहीं बसी थी
उजड़ा  हुआ  सवेरा  बरगद को खलता है।

फ़ुरसत में ... इशक़ वाले लव की तलाश

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फ़ुरसत में ... 111

इशक़ वाले लव की तलाश

मनोज कुमार

‘दाग अच्छे हैं’ स्लोगन वाले दौर में कोयला अभी तक काला ही है! किसी ने एक चिंगारी जलाई और ऐसी आग लगी कि ‘शोले’ दहक उठे हैं। ‘शोले’ का फ़ेमस डायलोग तो आपको याद होगा ही, “अब तेरा क्या होगा कालिया?” आज का यह “कालिया” सिर्फ़ ‘सरदार’ का नमक खाने वाला वफ़ादार ही नहीं रह गया है, बल्कि ‘असरदार’ चरित्र-निर्माण, संस्कृति सेवा आदि करने वाले प्रतीकों के रूप में दिख रहा है। अब जब कोयले की आंच से शोले दहके हैं, तो दोनों पक्ष कह ही सकते हैं – “अब तेरा क्या होगा कालिया?”

कोयले का धुंआ प्रदूषण बढ़ाता है। इससे धुंध घनी हो जाती है। धुंध भरी सुबह को तेज़ क़दमों से चलते वक़्त किसी से टकरा जाना अच्छा लगता है। यह अच्छा लगना तब और भी खूबसूरत हो जाता है, जब टकराने वाला आपकी कार्बन कॉपी लगे। इस तरह के व्यक्तित्व से टकराने से जो तड़ित-सम प्रकाश फूटता है, उससे आस-पास छाए धुंध की गहनता विरलता में परिणत होती प्रतीत होने लगती है। मॉर्निन्ग वाक तो एक बहाना होता है, अपन को तो आज भी ट्रैक सूट पहने जॉगिंग कम, चहलक़दमी ज़्यादा करते हुए कुछ ख़ास शक्लों की तलाश रहती है, जो मेरे साहित्य सृजन की प्रेरणा बन सकें। पिछले दिनों इन चेहरों का ऐसा अकाल पड़ा था कि मेरी सृजन-सरिता सूख ही गई थी। आज जब अपने कार्बन कॉपी से टकराया तो बलबला कर सोता-सा फूट पड़ा।

मेरे दिल में सृजन के हज़ारों विषय उथल-पुथल मचाए रहते हैं और दिमाग़ मुझे बराबर ‘यस’ – ‘नो’ के द्वन्द्व में घेरे रहता है – जीवन प्रांगण में आज एक बार फिर से क्रांति की रणभेरी बजने लगी है। मेरी लेखनी का चक्का जाम करने वाले मज़दूर दिमाग के सामने सृजन की क्रांति का मशाल लिए दिल ने मैदान-ए-जंग में डटकर मुक़ाबला किया और अंततोगत्वा जीत मेरी ‘फ़ुरसत’ की ही हुई। विजय के उल्लास में दिल बल्लियों उछल रहा है।

जिससे टकराया था, उसने ‘फ़ुरसत में ..’ मुझे कहीं कुछ पढ़ लिया होगा, और शायद वह मेरी विलक्षण शैली, विनोदी स्वभाव और किस्सागोई का मुरीद भी बन गया हो। लेकिन जिस अंदाज़ में उसने मुझे महिमा-मंडित किया वह उसके मेधावी होने का प्रमाण दे रहा था। हम दोनों उस सैर-सपाटा पार्क के चक्कर लगाते रहे और एक-दूसरे को सुनते-सुनाते रहे। जब मैं अपने विनोदी स्वभाव के नमूने स्वरूप कोई लतीफ़ा सुनाता तो वह पूरी तन्मयता से सुनता और बड़ी ज़ोर से हंसता। फिर वह नहले पर दहला मारने के अंदाज में अपनी बातें रखता और इतने ज़ोर से मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए कहता, “बोल गुरु कैसी रही?

मेरा कार्बन कॉपी मुझे बातों ही बातों में उस जगह ले गया जहां मैं जाना नहीं चाहता था। कहने लगा, ‘यार ! बता – इस जीवन में तूने इकतरफ़ा प्यार कितनी बार किया है?’ मैं चौंका। आश्चर्य और प्रश्न मिश्रित भाव लिए जब मैंने उसके चेहरे की तरफ़ देखा, तो कुछ ज़्यादा ही खुलते हुए उसने कहा, “अरे यार! ‘इशक़’ वाला ‘लव’ … अब भी नहीं समझा? … तूने तो किया, पर उसे पता भी नहीं चला!”

कार्बन कॉपी की बातों से मुझे मेरी ही लिखी हुई एक पंक्ति का स्मरण हो आया – ‘हमारे स्वभाव में ही था झट से किसी के प्रेमपाश में बंध जाना और नसीब में था फट से उस बंधन का टूट जाना।’ ये उन भूले-बिसरे दिनों की नादानियां हैं, जिसे आज मेरे कार्बन कॉपी ने याद दिला दी। पढ़ाई-लिखाई के बीच ‘इशक़’ तो होता था, ‘लव’ नहीं हो पाता था। ‘इशक़’ और ‘लव’ के बीच कैरियर का सांप कुंडली मारकर बैठ जाता और ‘कैरियर चौपट न हो जाए’ की फुंफकार में ‘लव’ की फुसफुसाहट गुम हो जाती थी। ‘स्टुडेंट ऑफ द इयर’ जीत जाता था, लेकिन ‘लवर ऑफ द डे’ भी हार जाता था। हम तो मध्यमवर्गीय बच्चे थे, - जो पालथी मारकर पढ़ते थे। इसलिए हम पढ़ाकू तो बने रहे, - लड़ाकू न बन सके।

आज कार्बन कॉपी ने मेरी इस नादानी को सुन कर मुझे ‘डरपोक’ करार दिया। सच ही तो कहा उसने। मैं क्रांतिकारी तो बन ही नहीं सका। मैंने न कभी क्लास बंक की, न कभी लाइब्रेरी या कैंटिन में बैठा, न कभी नुक्कड़ों पे गॉसिप की, न कभी नौटंकी, सिनेमा, क़व्वाली देखने के लिए रात-रात भर घर से बाहर रहा, न कभी देखी गई फ़िल्म के क़िस्से सुनाने के लिए पार्क में महफ़िल जमाई। कितनी ही चीज़ें छूट गईं या छोड़ता चला गया। शुभचिंतक टाइप के मित्र लानत भेजते। कहते – बड़का प्राइज जीत लेगा। छात्रों में कई उद्दंड किस्म के भी थे, जो पढ़ाकू छात्रों के विकेट उखाड़ने की ताक में लगे रहते थे। उनके बाउंसरों को झेलते हुए ‘पिच’ पर अपनी विकेट सही-सलामत रखना भी बड़े धैर्य और कौशल का काम था। विकेट पर टिके रहना तो आया पर तेज़ी से रन बनाने की कुशलता न आ पाई। लिहाजा छोर बदलने का सिलसिला थमा-सा ही रहा।

IMG_4383इस तरह से एक उदासीनता द्वारा सर्जित वातावरण में अपनी भावना दबा देने का जो अपराधबोध रहा, उससे मुक्ति के लिए क़लम का सहारा लिया, और गाहे-ब-गाहे फ़ुरसत में कुछ लिख-लिखा लिया। लेकिन उस पढ़ाकू पारिवारिक माहौल में जाने क्यों लिखना भी अपराध माना जाता था। फिर भी, चोरी-छिपे ही सही, लिखने का क्रम ज़ारी रहा। उन दिनों के बड़े-बड़े, नामी-गिरामी, प्रेरक लेखकों की रचनाओं के गहन अध्ययन से दिल से यह आवाज़ उठी कि सतत लेखन के लिए प्रेरक-शक्ति चाहिए। अब यह शक्ति या प्रेरणा तो किसी के ‘इशक़’ में पड़ कर ही प्राप्त की जा सकती है। समस्या यह कि मुझ जैसे निठल्ले के लिए ऐसी प्रेरणा उपलब्ध होना एक टेढ़ी खीर थी। एक तरफ़ जहां लड़कियां मां-बाप, समाज से डरती थीं, वहीं दूसरी तरफ़ हमारे ‘लव गुरु’ ऐसे थे जिन्होंने अपनी किताब लिख कर कहा था, “इस उपन्यास का लिखना मेरे लिए वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना; और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वह प्रार्थना मन ही मन दोहरा रहा हूं।”जी हां, उन दिनों गुनाहों का देवतामध्यमवर्गीय जीवन की कहानी ही तो थी। आदर्श प्रेमिका की जो छवि उसमें गढ़ी गई थी उसे आज तक खोज रहा हूं। मिली नहीं। मुश्किल हमारी यह थी कि बिना इस प्रेरणा के लिख कैसे पाऊंगा? इसलिए झूठ-सच का झट से वाला ‘इशक़’ और फट से वाला ‘ब्रेकअप’ गढ़ता गया और रचता गया।

जो गुनाह कभी किया नहीं, उस गुनाह को बार-बार दुहराता रहा। लेकिन मेरा कार्बन कॉपी उसे मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। किसी ने कहा है,‘इंतज़ार करने वालों को उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वालों से छूट जाता है।’पता नहीं मैंने इंतज़ार नहीं किया या कोशिश नहीं की। लेकिन तलाश मेरी बदस्तूर ज़ारी है। इंशा अल्लाह, अगर कभी यह तलाश पूरी हुई तो ‘फ़ुरसत में...’ ज़रूर मिलेंगे। और अगर इस तलाश में आप मेरी मदद कर सकें, तो ज़रूर ख़बर कीजिएगा। त्त-उम्र एहसानमन्द रहूँगा!

नया जब साल आया है…

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नया जब  सालआयाहै

-- करण समस्तीपुरी


जश्नहो, खूबमस्तीहो।
हरमहंगीचीजसस्तीहो।
येभ्रष्टाचारमिटजाए
भलेसरकारमिटजाए।
नया जब  सालआयाहै।
तोदिनखुशहालजाए।
होटूजी, सीडब्ल्यूजी।
एकजनलोकपालजाए।
नया जब  सालआयाहै।
तोदिनखुशहालजाए।


शतकों पे शतक जल्दी,
सचिनकेबल्लेसेनिकले।
रनोंसेहो, विकेटसेहो,
याअंपायरकीगलतीसे।
हारेंमैचकोईहम,
कोईफ़ार्मेट, कोईदलहो।
विजयधोनीकेहाथोंमें,
मगरहरहालजाए।
नया जब  सालआयाहै।
तोदिनखुशहालजाए।

भलेदुल्हनबनेकोई,
होशादीसल्लूमियाँकी।
अनुपमखेरकेसरपे,
भीअबकुछबालजाए!
न कोई दामिनी हो,
 ना घटे दिल्ली की दुर्घटना,
हवश चढ़ने से पहले उसका,
 अंतिम काल आ जाए,
बहन-बेटी की अस्मत के,
लूटेरे छूट जाएँ गर,
जले दुनियाँ, गिरे बिजली,
 या फिर भूचाल आ जाए।



रहेकायमअमीरोंकीअमीरी,
मेरेमौला!
मगरमुफ़लिसकीथालींमेंभी,
रोटीदालजाए।
तरसताहैजोसदियोंसेकरण,
इक-पैसेकीखातिर,
उसकेघरोंमेंस्वीसबैंकका,
 मालजाए।
नया जब  सालआयाहै,
तोदिनखुशहालजाए



नववर्ष 2013आपसबोंकेलियेअतिशयमंगलमयहो!

कस्तूरी मृग पर है दृष्टि भयानक बाघ की

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कस्तूरी मृग पर है दृष्टि भयानक बाघ की

श्यामनारायण मिश्र

फागुन

उनके नाम लिखे हैं

अपने हिस्से में हैं रातें माघ की

 

उमर पराई हुई

बंजरों से लड़ते-लड़ते

उनके खेत मेड़ तक जिनके

पांव नहीं पड़ते

झुठलाने को

तुला हुआ है

समय कहावत घाघ की

 

औरों की डोली

देने को कंधे हैं अपने

उपवासों के भोगे अनुभव

पारण के सपने

अपना ही

मन रहे रिझाते

दुहराते धुन फाग की

 

तोते हो गये अपने ओंठ

बोल औरों के कहते

हम कुम्हार के चाक हो गये

चक्कर सहते-सहते

अपने

कस्तूरी मृग पर है

दृष्टि भयानक बाघ की

किस्मत टूटी नाव चढ़ी है

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किस्मत  टूटी नाव चढ़ी है

श्यामनारायण मिश्र
मन में चलती बुन उधेड़ है
रामरती  का पति अधेड़ है

घर में दो दो समवयस्क हैं कहने को बेटे
मर्द सुनाता दिले शेर के किस्से लेटे लेटे
ठिठुरा कुल परिवार पड़ा है
सर  पर जाड़ा प्रेत खड़ा है
नंगे  सभी  ऊन  देने को
घर  में केवल एक भेड़ है

देहरी  से  पनघट  तक  चलते  चर्चे ही चर्चे
बनिया का लड़का आंगन में फेंक गया है पर्चे
आने को खलिहान जुआर है
खाते  में  लिक्खा उधार है
सूद चुकाने को  संध्या का
अंधकार और बड़ी  मेड़ है

मन  में  सपनों  की  किताब का कोरा है पन्ना
जिसमें ताजमहल लिखने की धूमिल हुई तमन्ना
किस्मत  टूटी नाव चढ़ी है
खेने को कुल  उमर पड़ी है
व्यथा सुनाने को आंगन में
तुलसी का बस एक पेड़  है

खड़ा शीश पर नौटंकी का कालू

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खड़ा शीश पर नौटंकी का कालू
श्यामनारायण मिश्र
कोई दिन
हो गया कलेऊ
कोई दिन ब्यालू
बूढ़ी चाची
कहती बेटे
सबके राम दयालू
 
सोच-सोचकर
हुआ अजीरन
मन है खट्टा-खट्टा
अभी रसोई में
बाक़ी है
चूल्हा और सिलबट्टा
कल के लिये सुरक्षित
सींके पर
रक्खे दो आलू
 
धनिया के
आलिंगन का सुख
दुख ने बढ़ा दिया है
यौवन जैसा
ज्वार देह में
ज्वर ने चढ़ा दिया है
उसने भी
कर दिया विदा
अपना स्वभाव झगड़ालू
 
रात बिताई
अंधकार में
इच्छायें खेते
थिगड़े कंबल
में अपनी ही
गर्मी सेते-सेते
खड़ा शीश पर
हरिश्चन्द की
नौटंकी का कालू
***

प्रलय के काले मेघ उठे

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प्रलय  के काले मेघ उठे
श्यामनारायण मिश्र
फूस  नहीं  चढ़  पाया नंगी मिट्टी की दीवारें
लगता  रूठा  देव  प्रलय  के काले मेघ उठे।

एक खेत था  बाक़ी वह भी पिछले साल बिका
कौड़ी-कौड़ी  वैद  खा  गये  बेटा  नहीं  टिका
किसी तरह झमिया छमिया के हाथ लगी हल्दी
रमिया शादी जोग हो  गई कैसे इतनी जल्दी
पहले लगन तिलक पचहड़ से शादी होती थी
अब तो  नये  नये  न जाने कितने नेग उठे

ख़ूब  याद  है  साथ  पड़ी वो ईद और होली
रंग खेलने घर आया था  असगरख़ां हमजोली
सदा बांधती रही राखियां  असलम को  बिन्दू
थे वे सच्चे मुसलमान और हम सच्चे  हिन्दू
दुराभाव  की  बात  सोचना दोजख़  जैसे था
आज अचानक  इस  हाथों  में कैसे तेग उठे

रामदीन  के  पैसा  था तो बनवा दिया कुआं
बहू-बेटियां  उठवाता  है  उसका  ही  रमुआ
जोत रहे हैं मंदिर में  दी  दान  भूमियों को
चढ़ता नहीं बुखार तलक  मक्कार सूमियों को
दया धरम उठ गये जगत से प्रेम भाव खोया
इन्सानों के मन में पशुओं  से  आवेग  उठे

श्रमकर पत्थर की शय्या पर

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श्रमकर पत्थर की शय्या पर

आज एक मई है। यानी कि मजदूर दिवस! इन श्रमकरों के श्रम के बिना हम जीवन में कुछ नहीं हासिल कर सकते। उनका श्रम वंदनीय है। मुम्बई में श्रमिकों की सभा को संबोधित करते हुए 15 दिसम्बर 1907 को लोकमान्य तिलक ने कहा था,

“अपनी खेती अपने काम के आए, अपनी मेहनत अपनी रोटी कमा लाए, इसी का नाम स्वराज्य है। मज़दूरी जब इस भावना के बिना होती है तब पशु की मेहनत के बराबर होती है।”

श्रमजीवी हमारे लिए तरह-तरह की रंगबिरंगी दुनियां तैयार करते हैं पर उनका स्वयं का जीवन विभिन्न प्रकार के संकटों से घिरा रहता है। मैक्सिम गोर्की के शब्दों में कहें तो , “वे अपने कन्धों पर उठाकर हजारों मन अनाज जहाज पर लादते हैं ताकि अपना पेट पालने के लिए एक-दो-सेर अनाज उपलब्ध कर सकें।

पर इनका जीवन एक अंधियारी रात की तरह है होती है, एक भयंकर स्वप्न-सा। ये लोग ज़िन्दगी भर अपना खून पसीना एक करते हैं, परन्तु इनका स्वयं का जीवन अज्ञान के घोर अन्धकार में बीतता है।

हम इन मेहनतकशों को सलाम करते हैं! उन्हें बेहतर सुविधाएँ मिलनी चाहिए… पर इसकी चिंता कौन करता है? मालिको के शोषण का शिकार न हों इसके लिये क़ानून तो हैं पर कितने सक्षम, सक्रिय और सफल, यह किसी से छुपा नहीं है। आज भी श्रमजीवियों की हालत बहुत अच्छी नहीं है. कुछ संस्थानों मे अच्छे वेतनमान मिल रहे हैं लेकिन अधिकांश श्रमजीवियों को अभी भी सम्मानजनक वेतन नहीं मिल पाता। यह दुःख की बात और चिंता का विषय है।

जब किसी श्रमकर को दिनभर मेहनत-मशक्कत कर शाम और रात में ज़मीन पर सोये देखता हूँ तो मन भावुक हो जाता है और कविता की कुछ पंक्तियां बन जाती हैं। इन्हें ही प्रस्तुत कर रहा हूँ, दुनिया के तमाम मेहनतकश सच्चे मजदूरों के लिए-

दिन जीते जैसे सम्राट, चैन चाहिए कंगालों की।
रहते मगन रंग महलों में, ख़बर नहीं भूचालों की।
 
तरु के नीचे श्रमकर सोये, पत्थर की शय्या पर।
दिन भर स्वेद बहाया, अब घर लौटे हैं थककर।
शीतलता कुछ नहीं हवा में, मच्छर काट रहे हैं।
दिन भर की झेली पीड़ाएं, कह-सुन बांट रहे हैं।
अम्बर ही बन गया वितान, चिंता नहीं दुशालों की।


 

जब से अर्ज़ा महल, तभी से तुमने नींद गंवाई।

सुख सुविधा के जीवन में, सब आया नींद न आई।
कोमल सेज सुमन सी, करवट लेते रात ढ़लेगी।
समिधा करो कलेवर की, तब यह जीवन अग्नि जलेगी।
दुख शामिल रहता हर सुख में, उक्ति सही मतवालों की।

किसी काम का नहीं, अनर्जित जीवन में जो आया।
सुख व शांति उसी ने पाई, जिसने स्वेद बहाया।
सार्थक सृजन हेतु करना है, त्याग हमें आराम का।
पर अब तक जो जिया अलस, वह जीवन है विश्राम का।
सुख सुविधाओं के जंगल में, गुंजलिका जंजालों की।

टॉल्सटॉय और गांधी

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गांधी और गांधीवाद-150

1909

टॉल्सटॉय और गांधी


गांधी जी के जीवनीकार लुई फ़िशर लिखते हैं, “मध्य रूस में एक स्लाव रईस उन्हीं आध्यात्मिक समस्याओं से जूझ रहा था, जिस पर दक्षिण अफ़्रीका में इस हिंदू वकील का ध्यान लगा था।” सबसे पहले पढ़ी, टॉल्सटॉय की पुस्तक ‘द किंगडम ऑफ़ गॉड विदिन यू’ के अध्ययन से गांधी जी काफ़ी प्रभावित थे। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर का राज्य तुम्हारे हृदय में है। उसे बाहर खोजने जाओगे तो वह कहीं न मिलेगा। काउंट लियो टॉल्सटॉय (सितंबर 9, 1828 – नवंबर 20, 1910) के लेख गांधी जी का मार्गदर्शन करते थे और उनके संघर्ष में शांति प्राप्त करते थे। “मेरे जेल के अनुभव” में गांधी जी कहते हैं, “टॉल्सटॉय के लेख तो इतने सरस और इतने सरल होते हैं कि चाहे जो धर्म-प्रेमी उन्हें पढ़कर उनसे लाभ उठा सकता है। उनकी पुस्तक पढ़कर यह विश्वास अधिक होता है कि यह मनुष्य जैसा कहता था, वैसा ही करता भी रहा होगा।” आधुनिक सभ्यता, औद्योगिककरण, यौन संबंध और शिक्षा आदि अनेक विषयों पर टॉल्सटॉय की समीक्षा से गांधी जी पूरी तरह सहमत थे।

1828 में जन्मे लियो काउंट टॉल्सटॉय एक रईस व्यक्ति थे। किंतु 57वें वर्ष की उम्र में उन्होंने अमीरी के जीवन का त्याग कर दिया और सादा जीवन जीने लगे। नंगे पांव चलना शुरू कर दिया। सिगरेट पीना, मांस-मदिरा सेवन छोड़ दिया, सादे पोशाक में किसानों की तरह रहते और खुद ही खेती कर उपजाए अन्न से जीवन यापन करते। लंबी-लंबी दूरियां या तो पैदल या साइकिल से तय करते। 1891 में अपने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी सारी दौलत अपनी पत्नी और बच्चों को दे दिया और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिताने के उद्देश्य से ग्रामीण इलाके में चले गये। गांव के प्राइमरी स्कूल के बच्चों को पढ़ाने वाले इस व्यक्ति ने नोबेल पुरस्कार लेने से मना कर दिया, क्योंकि वे किसी का दिया धन तो स्वीकार कर ही नहीं सकते थे।

गांधी जी वर्षों से लियो टॉल्सटॉय को पत्र लिखने का साहस संजो रहे थे। 81वां जन्मदिन मना चुके टॉल्सटॉय से गांधी जी का सबसे पहला व्यक्तिगत संपर्क एक लंबे पत्र के द्वारा हुआ। यह पत्र अंग्रेज़ी में वेस्टमिन्स्टर पैलेस होटल, 4 विक्टोरिया स्ट्रीट, एस. डब्ल्यू, लंदन से 1 अक्तूबर 1909 को लिखा गया था। वहां से यह पत्र मध्य रूस में टॉल्सटॉय के पास यासनाया पोलियाना भेजा गया था। नवयुवक गांधी द्वारा टॉल्सटॉय को लिखे इस पत्र में अपार श्रद्धा और कृतज्ञता निवेदित किया गया था। साथ ही उन्होंने इस रूसी उपन्यासकार को ट्रांसवाल के सविनय अवज्ञा आंदोलन से अवगत कराया था। टॉल्सटॉय ने अपनी डायरी के 24 सितंबर 1909 (रूसी तारीख़ें उन दिनों पश्चिमी तारीख़ों से तेरह दिन पीछे चलती थीं) के विवरण में लिखा था, “ट्रांसवाल के एक भारतीय से मनोहारी पत्र प्राप्त हुआ। इस पत्र ने मेरे हृदय को छुआ।”

गार्हस्थिक कष्टों से त्रस्त, आसन्न मृत्यु की छाया में खड़े वयोवृद्ध टॉल्सटॉय ने यास्नाया पोल्याना से अक्तूबर (20 अक्तूबर) 1909 के रूसी भाषा में लिखे अपने जवाबी पत्र में अत्यधिक हर्ष और प्रसन्न विस्मय व्यक्त किया था।  टॉल्सटॉय की पुत्री ताशियाना ने इसे अंग्रेज़ी में अनुवाद करके गांधी जी को भेजा। वार एंड पीस, अन्ना केरोनिना और ए कन्फ़ेशन के रचयिता टॉल्सटॉय ने लिखा था, “मुझे आपका बड़ा दिलचस्प पत्र मिला, जिसे पढ़कर मुझे बहुत आनंद हुआ। ट्रांसवाल के हमारे भाइयों तथा सहकर्मियों की ईश्वर सहायता करे। कठोरता के विरुद्ध कोमलता का और अहंकार तथा हिंसा के विरुद्ध विनय और प्रेम का यह संघर्ष हमारे यहां हर साल अपनी अधिकाधिक छाप डाल रहा है। … मैं बंधुत्व की भावना से आपका अभिवादन करता हूं और आपसे संपर्क होने में मुझे हर्ष है।”

नवम्बर 101909 को जब समझौते की सारी उम्मीदें ध्वस्त हो गईं, गांधी जी ने टॉल्सटॉय को दूसरा पत्र लिखा। इसमें उन्होंने बताया कि किस प्रकार प्रवासी भारतीय महान संघर्ष से जुड़े हैं। अगर यह आन्दोलन सफल रहा तो यह न सिर्फ़ भारत बल्कि विश्व के अन्य देशों को भी उदाहरण पेश करेगा। उन्हें विश्वास था कि इस अहिंसक सत्याग्रह से जीत उन्हीं की होगी। इस पत्र के साथ उन्होंने पादरी जोसेफ़ डोक की लिखी पुस्तक, “M.K. Gandhi : An Indian Patriot in South Africa” भी संलग्न कर दिया था। उन्हें आशा थी कि टॉल्सटॉय इसे पढ़ेंगे, लेकिन उन दिनों वे गंभीर रूप से अस्वस्थ थे। जब वे इसे पढ़ सके, अप्रील 1910 में, तो पढ़कर मंत्रमुग्ध हो गए।

टॉल्सटॉय को गांधी जी ने 4 अप्रैल 1910 को फिर एक पत्र लिखा और उस पत्र के साथ उन्होंने हाल ही में लिखी अपनी पुस्तिका ‘इंडियन होम रूल’ (हिन्द स्वराज्य) की एक प्रति भेजी। उन्होंने लिखा था, “आपका एक नम्र अनुयायी होने के नाते मैं आपको अपनी लिखी हुई एक पुस्तिका भेज रहा हूं। यह मेरी गुजराती रचना का मेरा ही किया हुआ अंग्रेज़ी अनुवाद है। ... यदि आपका स्वास्थ्य इज़ाजत दे, और यदि आपको यह पुस्तिका पढ़ने का समय मिल सके, तो कहने की आवश्यकता नहीं कि पुस्तिका पर आपकी आलोचना की मैं बहुत ही कद्र करूंगा।”

पत्र मिलने के बाद अपनी डायरी में टॉल्सटॉय ने लिखा था, “गांधी का पत्र और पुस्तक यूरोपीय सभ्यता की तमाम कमियों का और उसकी संपूर्ण अपूर्णता का भी, बोध प्रकट करते हैं।” 8 मई 1910 को लिखे अपने जवाबी पत्र में उन्होंने लिखा था, “प्रिय मित्र! आपका पत्र और आपकी पुस्तक मिली। जिन बातों और प्रश्नों की आपने अपनी पुस्तक में विवेचना की है, उनके कारण मैंने उन्हें दिलचस्पी से पढ़ा है। निष्क्रिय प्रतिरोध केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि सारी मानवता के लिए सर्वाधिक महत्व का प्रश्न है।”

इस प्रकार दोनों में पत्र-व्यवहार चलता रहा। टॉल्सटॉय उन दिनों काफ़ी बीमार चल रहे थे। गंभीर आध्यात्मिक निराशा की हालात में थे। अपनी मृत्यु की निकटता को स्पष्ट महसूस कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि ईसा के उपदेशों में उपलब्ध आनंद की कुंजी का उपयोग करने से मानवता ने इंकार कर दिया है। इसलिए उन्हें गहरा आंतरिक विषाद था। लेकिन गांधी जी का विश्वास था कि वह अपना और दूसरों का सुधार कर सकते हैं। वे ऐसा कर भी रहे थे। यह चीज़ उन्हें आनंद प्रदान करती थी।

20 नवंबर, 1910 को, अपनी मृत्यु से कुछ ही दिनों पहले टॉल्सटॉय ने गांधी जी को पत्र लिखा, “मैं तो अब अधिक दिन न रहूंगा, लेकिन ट्रांसवाल के सत्याग्रह संग्राम का महत्व विश्व मानवता के इतिहास में सदा बना रहेगा।”

आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के बारें में टॉल्सटॉय की समझौताविहीन निंदा ने गांधी जी पर स्थायी प्रभाव डाला। जब टॉल्सटॉय की मृत्यु हुई, तो गांधी जी ने लिखा था, “स्वर्गीय काउंट टॉल्सटॉय के बारे में हम श्रद्धा के साथ ही कुछ लिख सकते हैं। हमारे लिए वे इस युग के महानतम व्यक्तियों में मात्र  एक नहीं, कुछ और भी थे। जहां तक संभव हुआ है, हमने उनकी शिक्षाओं पर चलने का प्रयास किया है।”

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“लुटेरा” - अच्छी और अलग फ़िल्म

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“लुटेरा” - अच्छी और अलग फ़िल्म


शोभा कपूर और एकता कपूर द्वारा बालाजी मोशन पिक्चर्स बैनर तले निर्मित ‘उड़ान’ फेम निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणे द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘लुटेरा’ का हर फ्रेम एक पेंटिंग की तरह सजा हुआ है। यह एक गंभीर निर्देशक की ऐसी फ़िल्म है जो अहिस्ता-आहिस्ता दिल में समाती चली जाती है और वहीं बस जाती है। मोटवाणे ने इस फ़िल्म में कहानी कहने की एक ऐसी कला ईजाद की है जिसमें दृश्य कहानी कहता है, कलाकारों की आंखें बोलती हैं, उनकी भाव-भंगिमाएं कहानी को बहा ले जाती हैं और दर्शक भाव-विभोर होकर इसके हरेक दृश्य में डूब जाता है। साहित्यिक भाषा में कहें तो फिल्म में चाक्षुष बिम्ब से चित्र भरे पड़े हैं। इस बात का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि 140 मिनट की इस फ़िल्म के सभी संवादों को अगर एक साथ कर दिया जाए तो संवादों की अदायगी में लगा समय 20मिनट से अधिक केनहीं होगा।

यह फ़िल्म सिर्फ़ दो व्यक्तियों, वरुण (रणवीर) और पाखी (सोनाक्षी), की कहानी है। जगह बंगाल का माणिकपुर गांव। फ़िल्म के पूर्वार्ध में ऐसा लगता है कि बांगाल के कैनवास पर चित्रकारी की गई है। फ़िल्म के छायाकार महेन्द्र शेट्टी ने कलाकारों की, कहानी की, और जिस पृष्ठभूमि पर कहानी का ताना-बाना बुना गया उन पृष्ठभूमियों की, मासूमियत, कोमलता और सहजता को एक-एक फ्रेम में इस ख़ूबसूरती को यूं क़ैद किया है कि दर्शक हर दृश्य से प्यार करने लगे। कथानक उस काल का है जब ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन हो रहा था। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में, जब भारतीय सरकार द्वारा ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति की घोषणा की जाने वाली थी, वरुण पुरातात्ववेत्ता के रूप में दर्शकों के सामने आता है। पाखी उस क्षेत्र के ज़मींदार रायचौधरी (बरुण चंदा) की पुत्री है। पहली नज़र के दीवाने प्यार की तरह पाखी वरुण के प्यार में डूब जाती है। वरुण के दिल में भी उसके लिए कुछ-कुछ होता है। लेकिन परिस्थियां कुछ ऐसी करवट लेती हैं कि वरुण पाखी से तय विवाह नहीं कर पाता बल्कि आपराधिक पृष्ठभूमि में चल रहे इस प्यार को छोड़ वह बहुमूल्य मूर्ति लेकर भाग जाता है।

नसीब उन्हें फिर मिलाता है। इस बार हिमाचल प्रदेश के डलहौजी में। पुलिस से भागता फिरता वरुण क्षय रोग से पीड़ित पाखी के घर में शरण लेता है। अपने अंतिम दिन गिन रही पाखी नफ़रत-प्यार और भूली-बिसरी बातों के मायाजाल में फंसी रह जाती है। उसके घर के सामने एक पेड़ है। उस पेड़ की अंतिम पत्ती में वह अपनी ज़िन्दगी की डोर बांधे उस पत्ती के गिरने का इंतज़ार करती है। यह दृश्य संभवतः अमेरिकी लेखक ओ. हेनरी की कहानी ‘द लास्ट लीफ’से प्रेरित लगती है।

अभिनेताओं के चयन में काफ़ी सूझ-बूझ दर्शाई गई है। इसके पहले ‘बैंड बाजा बारात’ और ‘लेडिज़ वर्सेस रिक्की बहल’ से अपना सिक्का जमा चुके रणवीर न सिर्फ़ लुक में अच्छे लगे हैं, बल्कि उनकी बॉडी-लैंगुएज से भी उन्होंने अभिनय की छाप छोड़ी है। वरुण प्रेमी भी है, लुटेरा भी। प्यार के लिए मर-मिटने वाला भी और धोखेबाज़ भी। वरुण के चरित्र की जटिलता को उन्होंने अपने अभिनय के द्वारा बखूबी प्रस्तुत किया है।

अब तक अन्य मसाला फ़िल्मों में ग्लैमरस रोल कर चुकीं सोनाक्षी ने इस चुनौतीपूर्ण फ़िल्म के ज़रिए अपनी अभिनय क्षमता का अद्भुत प्रदर्शन किया है। एक बंगाली बाला को साड़ी पहन कर उन्होंने जीवन्त कर दिया है तथा अपने नेचुरल एक्टिंग से जीवन के दोनों पक्षों, जब वह प्रेम रस में डूबी होती हैं तब, और जब प्रेम में छली जाने के बाद में दर्द में डूबी होती हैं तब, उन्होंने अपने चेहरे की भाव-भंगिमाओं के द्वारा बेमिसाल अभिनय का प्रदर्शन करते हुए अपने चरित्र को जीवंत कर दिया है। प्रेम और पीड़ा की सघनता को जीती, अवसाद में डूबी नायिका के रूप में यह उनका अभिनय ही था कि प्रेमिका को नायक द्वारा दिया गया धोखा एक बार तो दर्शक को खराब लगता है, पर नायक से नफ़रत नहीं होती। नायिका प्यार में धोखा देने वाले को कोई सज़ा नहीं दिलाना चाहती, ख़ुद को मिटाने की राह पर चल देती है। उनकी संवाद अदायगी की सरलता, मासूमियत और भोलापन इस फ़िल्म की प्रेम कहानी को अलग स्तर पर ले जाता है। उनकी यह प्रभावशाली भूमिका उन्हें एक से अधिक पुरस्कार दिला दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बंगाली ज़मींदार और पाखी के पिता की भूमिका में बरुण चंदा ने अपने सधे अभिनय का प्रदर्शन किया है। पुलिस अधिकारी की भूमिका में आदिल हुसैन भी लाजवाब हैं। वरुण के मित्र के रूप में विक्रांत मैसी ने भी अपनी जबर्दस्त उपस्थिति दर्ज़ कराई है। दिव्या दत्ता ने भी अपनी छोटी सी भूमिका में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

तकनीकी पक्ष को देखें तो फ़िल्म एक पीरियड फ़िल्म है और परिवेश को जीवन्त प्रस्तुत करने के लिए इसके प्रोडक्शन डिजायनर और कॉट्यूम डिजायनर निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। लगता है उन्होंने काफ़ी शोध के बाद 1950के दशक के चरित्र और परिवेश को संवारा और निखारा है। संवाद लेखक अनुराग कश्यप के सहज-सरल शब्दों में संप्रेषित संवादों की बात न की जाए तो उनके प्रति नाइंसाफ़ी होगी। फ़िल्म के उतार-चढ़ाव और जटिलतम परिस्थितियों को उन्होंने सहज-सरल संवादों से सजाया-संवारा है। अमित त्रिवेदी और अमिताभ भट्टाचार्य ने भावपूर्ण और परिवेश के अनुकूल संगीत दिया है। मोनाली ठाकुर का गीत ‘संवार लूं ..’ बेहद लोकप्रिय हो चुका है। मोहन शेट्टी की सिनेमैटोग्राफी का एंगल और विजन ने फ़िल्म की ख़ूबसूरती को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके कैमरावर्क के कारण यह फ़िल्म एक कविता की तरह पर्दे पर दिखती है। एडिटिंग से थोड़ी शिकायत तो रह ही जाती है। चुस्त और कुशल एडिटिंग इस फ़िल्म की गति को बढ़ा सकती जहां चूक तो हो ही गई है।  


हालांकि अपनी धीमी गति से कभी-कभी, खास कर मध्यांतर के बाद फ़िल्म ऊब पैदा करती है, और यह प्रेम कहानी आपके धैर्य की परीक्षा लेती प्रतीत होती है, लेकिन इसके बावजूद फ़िल्म की कई विशेषताएं एक बार तो इसे देखने लायक बनाती ही हैं। ज़िन्दगी सरल रेखा नहीं है। आदमी जो सोचता है वह होता नहीं है। अगर ऐसा होता तो ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती। अनहोनी के धागे से बुनी गई यह कहानी दर्शक, कहानी सबको प्रश्नवाचक के घेरे में रखती है और इस सिनेमा की यही खूबसूरती है। इस फ़िल्म में एक कहानी है, जो कहानी प्रेम कहानी है। इसीलिए आजकल की बिना कहानी की फ़िल्मों से अच्छी और अलग है यह फ़िल्म। इसी तरह के प्रयोग और दर्शकों का इन प्रयोगों में विश्वास, माड़-धाड़ और तड़क-भड़क से अलग अच्छी, साफ-सुथरी फ़िल्म के निर्माण में निर्माता-निर्देशकों को प्रेरित करेंगी। निर्देशक की यह दूसरी ही फ़िल्म है और इस फ़िल्म को देखकर उनसे और भी कई साफ-सुथरी, अच्छी फ़िल्मों की उम्मीद बंधती है।

जोहांसबर्ग में टॉल्सटाय फार्म की स्थापना

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गांधी और गांधीवाद-151
1909

जोहांसबर्ग में टॉल्सटाय फार्म की स्थापना

लंदन से गंधी जी 1909के अंत तक वापस आ गए। वहां का उनका राजनीतिक उद्देश्य पूरा नहीं हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका उपनिवेश की नीति को रोकने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी। दक्षिण अफ़्रिका वापस आने पर एक परीक्षा की घड़ी उनके सामने थी। उन्हें अब लगने लगा था कि धीमे पड़ चुके सत्याग्रह को तेज़ करना होगा। इसके लिए स्वैच्छिक त्याग करने वाले सत्याग्रहियों को उन्हें एकजुट रखना था। सत्याग्रही को बलिदान देने योग्य होने के लिए सादगी, शुद्धि, संयम और अनुशासन अपनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता था। इसके साथ ही सत्याग्रही के जेल जाने पर उसके परिवार व आश्रितों की देखभाल का प्रश्न भी महत्वपूर्ण था। हालांकि एक तरफ़ सत्याग्रह आंदोलन पूरे उत्साह और जोश से चल रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ जेल, देश-निकाला और भारी-भारी ज़ुर्मानों से सत्याग्रह आंदोलन को सरकार द्वारा कुचलने का भरपूर प्रयास किया जा रहा था। लेकिन जोश हमेशा तो बना नहीं रह सकता था। धीरे-धीरे आंदोलन संकट के दौर में पहुंचा। प्रतिबद्ध सत्याग्रही तो जेल आते-जाते रहे, लेकिन बहुसंख्यक आंदोलनकारी थक गये थे। सरकार का अड़ियल रवैया बरकरार था, अतः आंदोलन लंबा खिंचनेवाला था।

आंदोलन जब लंबा खिंचने लगा तो लोगों का उत्साह धीरे-धीरे कम होने लगा। एक बार तो यह हालत हो गई कि केवल प्रमुख सत्याग्रही ही बचे। तब तक भारतीय समुदाय ने आंदोलन पर लगभग 10,000पाउंड खर्च कर दिए थे। लेकिन खर्च की भी एक सीमा थी। गांधी जी को हर माह 165पाउंड की ज़रूरत थी, जिससे वे लंदन और जोहान्सबर्ग में ऑफिस चला पाते, ज़रूरतमंद परिवारों की मदद कर पाते, और ‘इंडियन ओपिनियन’ को चला पाते। लड़ाईलंबे अरसे तक चलानी थी, इसके लिए पैसे की चिंता गांधी जी को तो थी ही। गांधी जी जनसेवा पर ही लगभग पूरा समय और शक्ति लगा रहे थे। इसलिए वकालत के पेशे के लिए उनके पास कम समय ही बचा था और रुचि भी काफ़ी कम ही थी। इसलिए पहले की तरह इस पेशे से हो रही आय को जनसेवा के काम लगा पाने का साधन उनके पास नहीं था। संयोग से केपटाउन में उतरते ही गांधी जी को तार मिला कि सर रतनजी जमशेदजी टाटा ने सत्याग्रह कोष में 25हज़ार रुपया दिया है। उस समय इतना रुपया काफ़ी था। इस सहायता से गांधी जी का काम चल निकला।

यह तो सही था कि किसी भी धनराशि से सत्याग्रह की आत्मशुद्धि की, आत्मबल की लड़ाई नहीं चल सकती थी।इस आंदोलन के लिए चारित्र्य की पूंजी ही सबसे बड़ी पूंजी थी। एक तरफ़ तो यह हाथी और चींटी की लड़ाई थी, वहीं दूसरी तरफ़ कितनी देर चलेगी कोई कह नहीं सकता था। एक तरफ़ जनरल बोथा और जनरल स्मट्स ने एक इंच भी न हटने की प्रतिज्ञा ले रखी थी तो दूसरी तरफ़ सत्याग्रहियों ने भी मरते दम तक जूझने की क़सम उठा रखी थी। सत्याग्रहियों के लिए समय सीमा कोई मानी नहीं रख रहा था, एक वर्ष लगे या अनेक वर्ष! उनके लिये लड़ाई ज़ारी रखना ही प्रमुख बात थी। लड़ाई का मतलब था जेल जाना, देशनिकाला होना, सरकारी दमन का बढ़ना। प्रवासी भारतीयों पर सरकारी दमन का असर होने लगा। कई व्यापारियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कई लोग आजीविकाविहीन हो गये। आजीविका के बिना सत्याग्रही उद्विग्न होते जा रहे थे। भूखों रहकर और अपनों को भूखों मारकर भी लड़ाई में जुटे रहने वालों की संख्या कम होती गई। कई आंदोलन से अलग हो गए। जेल जाने वाले सत्याग्रहियों की संख्या कम होती गई। थोड़े से चुने हुए पक्के लोग ही गिरफ़्तार हो रहे थे। जेल गए सत्याग्रहियों के परिवार के सदस्य काफ़ी मुसीबत में थे। गांधी जी को अच्छा नहीं लगता था कि जेल जाने वाले सत्याग्रहियों को अपने परिवार की सुरक्षा के बारे में इस प्रकार से चिंतित होना पड़े। कौम की ख़ातिर वे नौकरी, धंधा, आमदनी, सबकुछ छोड़कर जेल गए थे।उनकेबाल-बच्चे, बूढ़े, मां-बाप आदि बड़ी कठिनाई में थे। गांधी जी को लगता था कि कौम का फ़र्ज़ है कि वे इन बेसहारा परिवारों की परवरिश करें।

सत्याग्रह-मंडल ऐसे सत्याग्रहियों के परिवार के भरण-पोषण के लिए हर महीने पैसे देता था। लेकिन अबसत्याग्रहियों के परिवारों के भरण-पोषण के लिए इकट्ठा किया गया कोष धीरे-धीरे खाली होता जा रहा था। गांधी जी की वकालत तो लगभग बंद-सी ही थी। जो कुछ भी उनकी जमा-पूंजी थी, वह भी सत्याग्रह की भेंट चढ़ चुकी थी।इंडियन ओपिनियन’ को चलाने के लिए भी पैसों की ज़रूरत थी। खर्च को काफ़ी हद तक कम किए बिना सत्याग्रह की लड़ाई को लंबे समय तक चला पाना लगभग असंभव था। गांधी जी को लगा कि यह मुश्किल एक ही तरह से हल हो सकती है कि सारे कुटुंबों को एक जगह रखा जाए और सब साथ रहकर काम करें। इसलिए गांधी जी ने सत्याग्रही क़ैदियों के परिवारों को किसी सहकारी खेत पर बसाने का निश्चय किया। लेकिन गांधी जी के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था कि सत्याग्रहियों के परिवार के सौ दो सौ लोगों को कहां रखा जाए।ऐसी जगह कहां मिलेगी? शहर में इतना लंबा-चौड़ा स्थान मिल भी नहीं सकता था जहां बहुत से परिवार घर बैठे कोई उपयोगी धंधा कर सकें। यह तो स्पष्ट था कि उन्हें ऐसा स्थान पसंद करना था जो शहर से न बहुत दूर हो और न बहुत नजदीक। गांधी जी से जुड़े अधिकांश सत्याग्रही ट्रांसवाल में बसे हुए थे। आश्रम की स्थापना फिनिक्स में हुई थी। ‘इंडियन ओपीनियन’ वहां छपता था। थोड़ी खेती भी वहां होती थी। और भी कई सुविधाएं वहां थीं। पर यह स्थान ट्रांसवाल से चार सौ मील दूर था। आन्दोलन का केन्द्र जोहान्सबर्ग था और फीनिक्स वहां से इतनी दूर था कि रेल द्वारा वहां जाने में पूरे तीस घंटे लगते थे। इतनी दूर कुटुंबों को लाना बहुत ही टेढ़ा और महंगा काम था। ट्रांसवाल के लोगों की व्यवस्था स्थानीय तौर पर ही करना उन्हें श्रेयस्कर लगा। गांधी जी ने निश्चय किया कि एक आश्रम ट्रांसवाल में भी स्थापित किया जाए जहां सत्याग्रहियों को उनके परिवार के साथ बसाया जाए। कई सत्याग्रही जेल में थे। उनके बच्चे अनाथ हो गए थे। यदि आश्रम बन जाता तो इन बेसहारा परिवारों को एक सहारा मिल जाता।

हरमन कालेनबे
लेकिन नया आश्रम बनाना आसान काम नहीं था। गांधी जी के पास इतना धन नहीं था। इस विषय पर उन्होंने अपने मित्र हरमन कालेनबाख से चर्चा की। उन्होंने मदद का आश्वासन दिया। गांधी जी के जर्मन शिल्पकारमित्र हरमन कालेनबाख ने उनकी इस परियोजना को मूर्त रूप देने के लिए जोहान्सबर्ग से 21 मील दूर लॉलेस्टेशन के पास जंगल में 1100 एकड़ सस्ती जमीन खरीदी और 30मई 1910 को सत्याग्रहियों को बिना किसी भाड़े लगान के काम में लाने का अधिकार दे दिया। यहां की ज़मीन उबड़-खाबड़ थी। संतरों, खुबानी और आलू-बुखारों के पेड़ों वाले इस एक हज़ार एकड़ ज़मीन में लगभग एक हज़ार फलवाले पेड़ थे। सिंचाई की भी यहां अच्छी व्यवस्था थी। पानी के लिए एक झरना और दो कुंए थे। जहां रहना था उस जगह से वह झरना कोई 500गज दूर था। इसलिए पानी कांवर पर भरकर लाने की मेहनत तो थी ही। पहाड़ी की तलहटी में पांच-सात आदमियों के रहने लायक़ एक छोटा-सा मकान भी बना हुआ था। रेलवे स्टेशन लॉले क़रीब एक मील पर था और जोहान्सबर्ग 21मील पर।
टॉल्सटॉय फार्म की ज़मीन

गांधी जी ने इस जगह पर रूस के संत के नाम पर “टालस्टाय फार्म” के नाम से एक छोटी-सी बस्ती बसाई। गांधी जी की टॉलस्टॉय के प्रति परम श्रद्धा थी। उनके साथ गांधी जी की जीवन के मूल्य और आदर्शों के बारे में पत्र-व्यवहार होता रहता था। टॉल्सटॉय भी श्रमजीवन में विश्वास रखते थे। रूस के एक गांव में रहकर वे आजीवन शरीर-श्रम करते रहे। इन विचारों से प्रभावित होकर 4जून, 1910को अपने परिवार के साथ गांधी जी वहां रहने चले गए। कालेनबेक भी साथ में थे। जब सत्याग्रही जेल में नहीं होता, तो यहां रह सकता था, जब वह जेल में होता तो उसका परिवार यहां रह सकता था। वहां सारा काम स्वावलंबन से होता था।

आश्रम का जीवन
चालीस वर्ष के भरे यौवन में गांधी जी ने टॉल्सटॉय फार्म की स्थापना की थी। अब गांधी जी के पास दो सामुदायिक बस्तियां थीं। फीनिक्स बस्ती से ‘इंडियन ओपिनियन’ प्रकाशित होता था और वहां उनकी पत्नी और बच्चे रहते थे। फीनिक्स बस्ती की तरह ही टॉल्सटॉय फार्म भी एक सहकारी बस्ती थी। यहां का जीवन गांधी जी के लिए सबसे फलदायक और सुखकर दिन थे। यहीं गांधी जी के कई विचार पल्लवित और पुष्पित हुए।  उन्होंने सफल-समृद्ध बैरिस्टरी को हमेशा के लिए छोड़ दिया था और परिवार सहित यहां चले आए थे। इस जंगल जैसी जगह में संन्यासी ब्रह्मचारी का जीवन जीने लगे थे। इस जंगल में न कोई मकान था, न ही कोई व्यवस्था। उन्हें कठिनाइयों में ही सुख मिलता था। जिसे लोग आत्मनिषेध कहते हैं, उसे वे आत्मपरिपूर्णता मानते थे। अपने हृदय की प्रसन्नता के लिए वे एक किसान और मज़दूर की तरह अपने हाथों से काम करते थे। इस स्थान में उनका यह आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया जाए और खेती-बारी का काम भी जितना अपने हाथों से हो सकता है किया जाए।

सांपों के बीच
यहां वे सांपों के बीच रहे और उनको इस बात की तसल्ली थी कि एक सांप भी उन्होंने नहीं मारा। रहने वालों के लिए सांपों का खतरा हमेशा बना रहता था। कालेनबेक ने सांपों पर जितना संभव हो सका उतनी पुस्तकें इकट्ठी की। इन पुस्तकों के अध्ययन के आधार पर उसने रहने वालों को विषैले और विषहीन सापों में अन्तर को समझाया। विषैले सांपों के उपद्रव और जान के नुकसान का भय तो बना रहता ही था। कालेनबेक ने इस विषय पर गांधी जी से बात भी की। गांधी जी की अहिंसा में अटूट श्रद्धा थी। लेकिन किसी आश्रम निवासी की जान की क़ीमत पर नहीं। एक दिन कालेनबेक के कमरे में एक सांप घुस आया। वह विषैला था। वह ऐसी स्थिति में थे कि न तो उसे भगा सकते थे, न ही खुद भाग सकते थे। एक लड़के ने गांधी जी को इस स्थिति की सूचना दी और उसे मारने की अनुमति मांगी। गांधी जी ने उसे ऐसा करने की इज़ाजत दे दी।

एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की
टॉल्सटॉय फार्म
आर्किटेक्ट के रूप में कालेनबैक थे ही, एक यूरोपीयन राज मिस्त्री को भी वे अपने साथ ले आए। एक गुजराती बढ़ई नारायणदास दमानिया ने निःशुल्क सेवा प्रदान की। दूसरे बढ़ई भी थोड़े पैसे में बुला लिए गए थे। बढ़ई का आधा काम तो बिहारी नाम के एक सत्याग्रही ने किया। दो महीने से कम के समय में गांधी जी और कालेनबाख ने कुछ मज़दूरों की मदद से टीन-चद्दरों की एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की। अपने चचेरे भाई को उन्होंने लिखा था, “जिन मज़दूरों के साथ आजकल मैं काम कर रहा हूं, उन्हें मैं अपने से बेहतर इंसान मानता हूं।” सफ़ाई का काम, शहर जाना, और वहां से सामान लाने का काम थंबी नायडू के जिम्मे था। मकान लगभग दो महीनों में बने। जब तक मकान बन रहे थे, लोगों को तंबुओं में सोना पड़ा। मकान लोहे की सफ़ेद चादरों के थे। इस तरह उन्होंने सत्याग्रहियों के परिवार के पुनर्वास की समस्या सुलझाई और उनकी रोजी रोटी का इंतजाम किया। बाद में यही फार्म गांधी आश्रम बना।यहां स्त्री और पुरुष अलग-अलग रखे गए थे। 10स्त्रियां और 60पुरुषों के रहने लायक मकान तुरंत बना लिए गए। एक मकान कालेनबैक के रहने के लिए बनाया गया।

इस आश्रम में लोग सादा सामुदायिक जीवन व्यतीत करते थे। बस्ती पूरी तरह आत्म-निर्भर थी। इस भूमि पर एक झरना था। वहां से कांवड़ों में भरकर पानी लाया जाता था। एक लोटा भी पानी लाना हो तो भी आने-जाने में आधा घंटा लग जाता था। लेकिन उन आश्रमवासियों और गांधी जी का उत्साह गजब का था। वहां एक सहकारी फार्म चला कर सत्याग्रह संग्राम में उनके सहयोगी तथा परिवार के लोग बहुत थोड़े में और बड़ी कठिनाई से अपनी गुजर-बसर करते थे। सच पूछा जाए तो वहां उनका जीवन जेल से भी कठोर था। गांधी जी का आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया जाए। खेती-बारी और घर बनाने का काम अपने हाथों से किया जाता था। पाखाना साफ़ करने से लेकर खाना पकाने तक का सारा काम सभी अपने हाथों से ही करते थे। उस समय का वर्णन करते हुए गांधीजी ने बाद में कहा थाः हम सभी मजदूर बन गए थे। हमारा पहनावा भी मजदूरों का था, पर यूरोपीय ढंग का यानी मजदूरों के पहनने के पतलून और कमीज, जो कैदियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े की तरह के थे।गांधी जी लिखते हैं – ‘टॉल्स्टॉय फार्म में निर्बल सबल हो गए और मेहनत सबके लिए शक्ति-वर्धक साबित हुई।’39

जिन्हें अपने निजी काम से जोहान्सबर्ग जाना होता था, वे पैदल इक्कीस मील आते-जाते। रात के दो बजे चलना आरंभ होता, तो सुबह सात बजे के पहले पैदल चलने वाले जोहान्सबर्ग पहुंच जाते। यद्यपि गांधीजी चालीस साल से अधिक उम्र के थे और सिर्फ फल खाते थे लेकिन एक दिन में चालीस मील चलना उनके लिए बड़ी बात न थी। एक बार तो उन्होंने दिन भर में 55 मील की यात्रा की थी फिर भी पस्त नहीं हुए। टालस्टाय फार्म के सभी निवासियों तथा उनके बच्चों के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य था। इतने कठोर अनुशासन में रहने वालों को जेल का भय ही क्या हो सकता था?

इस आश्रम में गुजरात, मद्रास, आंध्र और उत्तर भारतीय लोग रहते थे। इसमें हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई धर्म के मानने वाले लोग रहते थे। 40युवक, तीन बूढ़े, पांच स्त्रियां, और 30बच्चे थे, जिनमें पांच लड़कियां थीं। निरामिष आहार होता था। रसोई का काम महिलाएं किया करती थीं। उनकी मदद के लिए एक-दो पुरुष भी होते थे। उनमें से एक गांधी जी ख़ुद थे। रसोई जितनी हो सके सादी होती थी। भोजन में चावल, दाल, तरकारी, रोटी और कभी-कभी खीर होना सामान्य नियम था। ये सारी चीज़ें एक ही बरतन में परोसी जातीं। बरतन  में थाली की जगह तसली जैसी बरतन का प्रयोग होता और लकड़ी के चमचे अपने हाथ से बना लिए गए थे। खाना तीन वक़्त दिया जाता। सबेरे छह बजे रोटी और गेंहूं का कहवा, ग्यारह बजे दाल-भात और तरकारी और शाम के साढ़े पांच बजे गेहूं की लपसी और दूध या रोटी और गेहूं का कहवा। सबको एक ही पांत में भोजन करना होता था। सबको अपने-अपने बरतन मांज कर साफ़ करना होता था। रात के 9बजे सबको सो जाना होता। शाम के भोजन के बाद सात-साढ़े सात बजे प्रार्थना होती। प्रार्थना में भजन गाए जाते और कभी रामायण से तो कभी इसलाम के धर्मग्रंथों से कुछ पढ़ा जाता। भजन अंग्रेज़ी, हिंदी और गुजराती में होते।

गांधी जी इस फार्म पर दो वर्ष ही रहे, लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने इसका भव्य विकास कर दिया। सख्त भूमि को खोदकर उसमें फलों के वृक्ष लगाए गए। साग, सब्जी, फूल आदि बोए गए। एक ही रसोई थी, जिसमें सभी लोगों के लिए भोजन बनता था। पाखाना अदि की साफ़-सफ़ाई वे अपने हाथ से ही करते थे। कई महीने बाद वहां पवन चक्की लगाई गई। अब उन्हें कांवड़ में पानी लाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
टॉल्सटॉय फार्म जाने का रास्ता

इस आश्रम में इतने आदमी इकट्ठे रहते थे, फिर भी किसी को कहीं कूड़ा, मैला या जूठन पड़ी दिखाई नहीं देती थी। एक गड्ढ़ा खोद रखा गया था, उसी में सारा कूड़ा डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी जाती। पानी कोई रास्ते में न गिराता। सब बरतनों में इकट्ठा किया जाता और उसे पेड़ों को सींचने के काम में खर्च किया जाता। जूठन और साग-तरकारी के छिलकों की खाद बनती। पाखाने के लिए रहने के मकान के पास एक चौरस डेढ़ फुट गहरा गड्ढ़ा खोदा गया था। उसी में सारा पाखाना डाल दिया जाता और ऊपर से खोदी हुई मिट्टी को भी डालकर पाट दिया जाता। इससे ज़रा भी दुर्गन्ध नहीं आती। मक्खियां भी वहां नहीं भिनभिनातीं। इसके साथ ही फार्म को खाद भी मिलता। गांधी जी का कहना है, “हम मैले का सदुपयोग करें तो लाखों रुपये की खाद बचाएं और अनेक रोगों से भी बचें। पाखाने के बारे में अपनी बुरी आदत के कारण हम पवित्र नदी के किनारे को भ्रष्ट करते हैं, मक्खियों की उत्पत्ति करते हैं और नहा-धोकर साफ-सुथरे होने के बाद, जो मक्खियां हमारी बेहूदी लापरवाही से खुले हुए विष्टा पर बैठ चुकी हैं, उन्हें अपने शरीर का स्पर्श करने देते हैं। एक छोटी सी कुदाली हमें बहुत सी गंदगी से बचा सकती है। चलने के रास्ते पर मैला फेंकना, थूकना, नाक साफ करना ईश्वर और मनुष्य दोनों के प्रति पाप है। इसमें दया का अभाव है। जंगल में रहनेवाला भी अगर अपने मैले को मिट्टी में दबा नहीं देता तो वह दंड के योग्य है।”39

एक कारखाना
गांधी जी चाहते थे कि सत्याग्रही के परिवर के सदस्य स्वालंबी बने। इस हेतु बढ़ई के काम, मोची के काम इत्यादि के लिए एक कारखाना भी तैयार किया गया। कालेनबाख की देखरेख में वह कारखाना चलता था। इस कारखाने में ज़रूरत कई चीज़ें बनती थीं। कालेनबाख ने दक्षिण अफ़्रीका के पाइनटाउन के पास मेरियन हिल में चल रहे रोमन कैथेलिक पादरियों के ट्रेपिस्ट नामक मठ में चप्पल बनाने का काम सीखा था। यह काम उन्होंने गांधी जी और फार्म के अन्य निवासियों को सिखाया। वे सब चप्पल बनाना सीख गये और मित्र मंडलियों में बेचने भी लगे। जिन्होंने बढ़ई का धंधा सीखा था, वे बक्से और संदूक आदि बनाते।

पहनावा
हरेक व्यक्ति को दो कंबल और एक तकिया दिया गया था। सभी बाहर के बरामदे मे जमीन पर सोते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शहरों में आम तौर पर पुरुषवर्ग का पहनावा यूरोपियन ढंग का ही होता था। सत्याग्रहियों का भी था। फार्म पर उन्हें ऐसे कपड़ों की ज़रूरत नहीं थी। सभी मज़दूर बन गए थे। वे मज़दूरों का पहनावा रखते थे, पर यूरोपियन ढंग के मज़दूरों का। यानी मज़दूरों के पहनने का पतलून और उसी तरह की कमीज। मोटे आसमानी रंग के कपड़े का सस्ता पतलून और कमीज सभी पहनते।

बुनियादी शिक्षा
फार्म के बच्चे को पढ़ाने के लिए एक स्कूल भी खोला गया। यहां मस्तिष्क नहीं बल्कि हृदय द्वारा, अक्षरों नहीं बल्कि शारीरिक श्रम के द्वारा शिक्षा देने का पहला प्रयोग किया गया। बुनियादी शिक्षा की प्रणाली को गांधी जी ने यहां बड़े मेहनत से विकसित किया। गांधी जी के तीन लड़के यहां के छात्र थे। योग्य हिन्दुस्तानी शिक्षक की कमी थी। अगर मिल भी जाए तो तनख़्वाह के बिना डरबन से इक्कीस मील दूर कौन आता? इसलिए गांधी जी ख़ुद ही वहां के बच्चों को पढ़ाते थे। वे हफ़्ते में पांच दिन, (सोमवार और गुरुवार को छोड़ कर, उन दिनों वे कालेनबेक के साथ शहर जाते) दिन में तीन घंटे, हिंदी, गुजराती, इंगलिश और तमिल भाषाएं सिखाते थे। इस काम में उन्होंने केलनबैक और प्रागजी देसाई की सहायता ली। वे मस्तिष्क की अपेक्षा हृदय और चरित्र की शिक्षा पर अधिक ज़ोर देते थे। छात्रों के पाठ्यक्रम में शारीरिक श्रम को भी डाल दिया गया था। बच्चे गड्ढ़े खोदते, पेड काटते, बोझा ढोते और बढ़ईगिरी तथा मोची का काम सीखते। टॉलस्टॉय फार्म के उत्तरदायित्वों ने गांधी जी में आत्म-निग्रह और संयम में काफ़ी वृद्धि की। स्कूल में सह-शिक्षा दी जाती और गांधी जी एक मां की तरह बच्चों पर नज़र रखते थे।

आश्रम में नौकर तो थे नहीं। पाखाना-सफ़ाई से लेकर रसोई बनाने तक के सारे काम आश्रमवासियों को ही करने होते थे। केलनबैक को खेती का बहुत शौक था। जो रसोई के काम में न लगे थे, वे कलेनबैक के साथ बगीचे का काम करते। आश्रम में यह रिवाज़ था कि जो काम शिक्षक न कर सकें वह बालकों से न कराया जाए। और बालक जिस काम में हों, उसमें उनके साथ उसी काम को करने वाला एक शिक्षक हमेशा रहे। इसलिए बालकों ने जो भी सीखा, उमंग के साथ सीखा।

वहां सभी धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इससे बालकों में कभी असहिष्णुता नहीं आई। एक-दूसरे के धर्म और रीति-रिवाज के प्रति उन्होंने उदार-भाव रखना सीखा। सगे भाइओं की तरह हिल-मिलकर रहना सीखा। एक-दूसरे की सेवा करना सीखा। सभ्यता सीखी।

इस फर्म में सहशिक्षा का प्रयोग किया गया था। लड़के-लड़कियों को मर्यादा धर्म के विषय में खूब समझया जाता था। गांधी जी बच्चों को मां की तरह प्यार करते थे। सभी एक खुले बरामदे में सोते। लड़के-लड़कियां गांधी जी के आस-पास सोते। दो बिस्तरों के बीच तीन फुट का अंतर होता। सभी बच्चे पास के झरने में एक साथ नहाने जाते। एक दिन किसी लड़के ने गांधी जी को खबर दी कि एक युवक ने दो लड़कियों के साथ छेड़खानी की है। गांधी जी ने जांच की। बात सच निकली। उन्होंने युवकों को समझाया। पर यह उन्हें नाकाफ़ी लगा। वे दोनों लड़कियों के शरीर पर कुछ ऐसा चिह्न चाहते थे जिससे हरएक युवक यह समझ सके और जान ले कि इन बालाओं पर कुदृष्टि डाली ही नहीं जा सकती। दूसरे दिन सुबह-सुबह उन्होंने दोनों लड़कियों को बुलाया और उन्हें बाल उतार देने की विनती की। उनके बाल उतार दिए गए। इससे “सामने वाले की आंखों को न तो सुंदरता देखने को मिलेगी न उनके मन में पाप आएगा।” परिणाम अच्छा रहा। फिर से उन्हें यह छेड़खानी वाली बात नहीं सुनाई दी। गांधी जी का कहना था कि ऐसे प्रयोग अनुकरण के लिए नहीं किए गए बल्कि सत्याग्रह की लड़ाई की विशुद्धता बताने के लिए किए गए। इस विशुद्धता में ही उसकी विजय की जड़ थी। ऐसे प्रयोग के पीछे कठिन तपश्चर्या का बल होना चाहिए।

आश्रमवासियों ने रोज़ा रखा
टॉल्सटॉय फार्म में गांधी जी अपने सहयोगियों के साथ
इसी प्रयोग में उन्होंने अपने तीनों बेटे मणिलाल, रामदास और देवदास को भी फिनिक्स के बसे-बसाए घर से निकालकर अपने पास टॉल्सटॉय फार्म पर बुलवा लिया। टॉल्सटॉय फार्म जेल जाने वाले सत्याग्रहियों के परिवारों का आश्रय-स्थल बना। इस फार्म में7से लेकर 20साल तक के बच्चे और युवक थे। जेल में बंद सत्याग्रहियों के इन बच्चों को गांधी जी अनौपचारिक रूप से शिक्षित करना चाहते थे। यहां एक तरण ताल भी था। उसमें बच्चे स्नान करते थे। इस फार्म में हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी धर्मों के बच्चे थे। गांधी जी विशेष ध्यान देते कि प्रत्येक बच्चा अपने धर्म का पालन करे और उसका अपने-अपने धर्मग्रंथ से परिचय हो। मुसलमान के बच्चे को क़ुरआन की शिक्षा दी जाती तो ईसाई के बच्चे को बाइबिल की। रमजान के महीने में मुसलमान बच्चों ने रोज़ा रखा। उन लोगों को इतना कठिन उपवास सहन हो और अकेलापन महसूस न हो, इसलिए कालेनबाख और गांधी जी भी उन लोगों के समान दिन-भर का निर्जला व्रत रखते। इस प्रकार वहां सद्भाव और प्रीति का विकास हुआ। वहां के सभी लोगों ने स्वेच्छा से शाकाहारी आहार अपना लिया था।

इस आश्रम में हिन्दू, मुसलमान, पारसी और इसाई धर्म के लोग मिलजुलकर एक परिवार की तरह रहते थे। इस फार्म में सथाग्रहियों का आना-जाना लगा रहता था। सत्याग्रह के अंतिम युद्ध के लिए यह फार्म आध्यात्मिक शुद्धि का और तपश्चर्या का स्थान सिद्ध हुआ। यहां की दिनचर्या शरीर, मन एवं चेतना को प्रशिक्षित करती थी। आहार, पोषाक, स्वच्छता, बच्चों की शिक्षा जैसे सभी विषयों पर गांधी जी विशेष ध्यान देते थे।

***

बच्चों की शिक्षा और हरिलाल गांधी

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गांधी और गांधीवाद-152

1909

बच्चों की शिक्षा और हरिलाल गांधी

 

जब गांधी जी 1897 में दक्षिण अफ़्रीका आए थे, तो उनके साथ 9 साल के हरिलाल और 5 साल के मणिलाल थे। उन्हें कहां पढ़ाना है, उनके सामने यह एक विकट समस्या थी। गोरों के लिए चलने वाले विद्यालयों में लड़कों के नाते बतौर मेहरबानी या अपवाद के उन्हें भरती किया जा सकता था, लेकिन दूसरे सब भारतीय बच्चे जहां न पढ़ सकें, वहां अपने बच्चों को भेजना गांधी जी को पसंद नहीं था। इसाई मिशन के स्कूल में बच्चों को भेजने के लिए वे तैयार नहीं थे। इसपर से, गुजराती माध्यम से शिक्षा दिलाने का आग्रह था, और इसका कोई इंतजाम स्कूलों में नहीं था। गांधी जी का मानना था कि बच्चों को मां बाप से अलग नहीं रहना चाहिए। वे सोचते थे कि जो शिक्षा अच्छे, व्यवस्थित घर में बालक सहज पा जाते हैं, वह छात्रालयों में नहीं मिल सकती। लेकिन घर पर पढ़ाने वाला कोई अच्छा गुजराती शिक्षक मिल नहीं सका। गांधी जी खुद पढ़ाने की कोशिश करते। लेकिन काम की अधिकता से अनियमितता हो जाती।

फिनिक्स आश्रम की पाठशाला में गांधी जी का प्रयास होता की बच्चों को सच्ची शिक्षा मिले। परीक्षा में गुणांक देने की गाधी जी की अनोखी पद्धति थी। एक ही श्रेणी के सभी विद्यार्थियों से एक ही प्रश्न सबको पूछा जाता। जिनके उत्तर अच्छे हों उनको कम और जिनके सामान्य या कम दर्ज़े के उत्तर हों उनको अधिक अंक मिलता। इसके कारण बच्चों में रोष उत्पन्न होता। गांधी जी उनको समझाते, “एक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थी से अधिक बुद्धिमान है, ऐसा अंक मैं रखना नहीं चाहता। मुझे तो यह देखना है कि जो व्यक्ति जैसा आज है, इससे कितना आगे बढ़ा? होनहार विद्यार्थी बुद्धू विद्यार्थी के साथ अपनी तुलना करता रहे तो उसकी बुद्धि कुंठित हो जायेगी। वह कम मेहनत करेगा और आख़िर पीछे ही रह जाएगा।”

गांधी जी का मानना था कि अन्य की तुलना में खुद आगे या पीछे देखने में नहीं, लेकिन खुद जहां हैं, वहां से सचमुच कितने आगे बढ़ते हैं, वह देखने में सच्ची शिक्षा है।

हरिलाल गांधीआश्रम के बच्चों को कोई पूछता कि तुम किस श्रेणी में पढ़ते हो, तो मणिलाल का जवाब होता, ‘बापू की श्रेणी’। हरिलाल तो बी.ए., एम.ए. करना चाहते थे, और बापू के तर्कों से उनकी सहमति नहीं होती। इस बीच 10 अप्रील, 1908 को गुलाब बहन ने पुत्री को जन्म दिया। वह रामनवमी का दिन था। रामभक्त गांधी जी ने उनका नाम रामी रखा। 1908 की ट्रांसवाल की लड़ाई में बीस साल से भी कम की उम्र में हरिलाल सत्याग्रही बनकर जेल गए। गांधी जी इस विषय को भी उनकी शिक्षा का अंग समझते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शुरू के दिनों की लड़ाई में हरिलाल गांधी जी के श्रेष्ठ साथी जैसे थे। हंसते-हंसते सारी यातनाएं सह लेते। दक्षिण अफ़्रीका में जेल की दो सप्ताह के सख्त क़ैद की सज़ा, भारत की तीन माह की सज़ा के बराबर थी। हरिलाल अपनी प्रतिभा, निष्ठा और कर्मठता के कारण लोगों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गए। लोग उन्हें ‘नाना गांधी’ – ‘छोटे गांधी’ कहकर बुलाते। गांधी जी प्यार से अपने पुत्र को ‘हरिहर’ कहकर पुकारते। अपनी सुरक्षा और सुख-सुविधाओं का ख्याल किए बिना वे बार-बार सत्याग्रह करते और जेल जाते। हरिलाल के स्वाभाव में अन्याय सहन करने का नहीं था।

हरिलाल की पत्नीउन दिनों हरिलाल जेल से छूटकर टॉल्सटॉय फार्म पर परिवार के पास आ गए थे। वे भीतर ही भीतर बेचैन रहते थे। अक्सर वे पिता से झगड़ने लगते। एक कारण तो यह भी हो सकता है कि गांधी जी ने उनकी पत्नी चंचल (गुलाब बहन) और पुत्री को उनके माता-पिता के पास भारत भेज दिया था। हरिलाल और गुलाब बहन (चंचल) की शादी 2.5.1906 को हुई थी। 18 वर्ष में हो रही उनकी शादी के के प्रति गांधी जी ने उदासीनता दिखाई थी। जून 1910 के महीने में जोहन्सबर्ग से बाइस मील दूर टॉल्सटॉय फार्म में सत्याग्रहियों का बसना शुरू हुआ था। हरिलाल पूरा मई और जून महीने की बीस तारीख तक फिनिक्स आश्रम में ही थे। गुलाब बहन की दूसरी प्रसूति होने वाली थी। यह तय हुआ कि उनको और रामी को भारत भेज दिया जाए। हरिलाल भी अपने परिवार के साथ भारत जाना चाहते थे। लेकिन गांधी जी ने अनुमति देने से इंकार कर दिया। उन्होंने हरिलाल को समझाया कि हरिलाल का पहला कर्त्तव्य सत्याग्रह के प्रति था। इसके अलावा वे उतने अमीर नहीं थे कि कई बार हरिलाल के भारत आने-जाने खर्च वहन कर सकें। हरिलाल को इस बात की शिकायत रहती थी कि दूसरों के लिए पिता के पास पैसे की कोई कमी नहीं थी, खासकर चचेरे भाइयों का हर ख़र्च वहन किया जाता था। बस अपने बच्चों और पत्नी के लिए उनके पास पैसे नहीं थे।

1909 के मध्य में गांधी जी लंदन में थे। उनके मित्र प्राण जीवन मेहता ने गांधी जी के सामने एक बेटे को वजीफ़ा देने का प्रस्ताव किया। वजीफ़ा पाने वाले को ‘ग़रीबी का व्रत लेना था’ और शिक्षा पूरी कर लेने के बाद ‘फीनिक्स में सेवा करनी थी।’ बात हरिलाल या मणिलाल की हो रही थी। गांधी जी ने इस सम्मान के लिए अपने भतीजे छगनलाल गांधी को चुना। छगनलाल यह सूचना पाकर पहले भारत गए और फिर 1.6.1910 के दिन इंग्लैण्ड के लिए रवाना हुए। लेकिन वे बीमार पड़ गए और शिक्षा पूरी किए बिना ही 1911 में लौट आए। इस वजीफे के लिए दूसरी बार सोराबजी शापुरजी अडाजानिया का नाम दिया गया। हरिलाल की शिक्षा की लालसा थी। उनका नाम नहीं दिया गया। पिता से कटुता का यह एक कारण बना। छगनलाल की जगह इंगलैण्ड में जाकर क़ानून की पढ़ाई के लिए एक खुली प्रतियोगिता आयोजित की गई। गांधी जी को परीक्षक बनाया गया था। उत्तर कापियों की उचित जांच के बाद उन्होंने सोराबजी शापुरजी आडजानिया का नाम प्रस्तावित किया था। वे एक पढ़े-लिखे पारसी थे।

दरअसल हरिलाल शादीशुदा थे। पिता भी बन चुके थे। उन्हें अपने परिवार के भविष्य की भी चिंता रहती थी। बिना किसी अच्छी शिक्षा या व्यावसायिक प्रशिक्षण के उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगता था। उन्हें चिंता रहती थी कि वे अपनी व बच्चों की परवरिश किस प्रकार करेंगे। क्या जीवन भर उन्हें खुद को और अपने परिवार को पिता के आदर्शों पर क़ुर्बान करना पड़ेगा? छोटी उम्र से ही हरिलाल गांधी को इस बात का बड़ा दुख था कि उनकी पढ़ाई का कोई पक्का इंतजाम नहीं हो सका। बड़े होने पर भी उनके मन में इसके लिए बापू के प्रति रोष बना रहा। उनका कहना था, “बापू ने अच्छी शिक्षा पाई है, तो वे अच्छी शिक्षा हमको क्यों नहीं दिलाते? बापू सेवाभाव की, सादगी और चारित्र्य के निर्माण की बातें करते हैं, लेकिन जो शिक्षा उन्हें मिली है, वह न मिली होती, तो देश-सेवा के जो काम वे आज कर सकते हैं, उन्हें कर सकते क्या?”

पोलाक और कालेनबेक भी कुछ हद तक इसी तरह का ख्याल रखते थे। पोलाक कहते, “गांधी जी, आप अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में लापरवाह रहते हैं। आप अपने बच्चों को अच्छी अंग्रेज़ी तालीम न देकर उनका भविष्य बिगाड़ रहे हैं।”

कालेनबेक ने कहा था, “टॉल्सटॉय आश्रम और फिनिक्स आश्रम में दूसरे शरारती, गन्दे और आवारा लड़कों के साथ आप जो अपने लड़कों को शामिल होने देते हैं, उसका एक ही नतीजा होगा कि उन्हें आवारा लड़कों की छूत लग जाएगी और वे बिगड़े बिना न रहेंगे।”

कस्तूरबा को भी इस बात का मलाल रहता कि गांधी जी लड़कों की शिक्षा की कोई चिंता नहीं करते। इन सब के जवाब में गांधी जी शिक्षा के सिद्धान्तों के और जीवन के ध्येय के अपने दर्शन पेश करते। पोलाक और कालेनबेक सिर हिलाते और कस्तूरबा मन मार कर शांत हो जातीं।

हरिलाल को अपने पिता की कमाई पर गुजर-बसर नहीं करना था। वे तो पढ़-लिखकर अपनी मेहनत से बड़ा बनना चाहते थे। जब उन्होंने देखा कि गांधी जी के ही ऑफिस में मुंशी का काम करने वाले रिच और पोलाक गांधी जी की मदद और बढ़ावे से इंगलैण्ड जाकर बैरिस्टर बन आए हैं, और दूसरे दो भारतीय जोसेफ रॉयपन और गॉडफ़्रे भी उनकी प्रेरणा से विलायत गए और बैरिस्टर बनकर अपने धंधे से लग गए हैं, इसके अलावे एक पारसी नौजवान सोराबजी अडाजाणिया को खुद गांधी जी ने बैरिस्टर बनने के लिए विलायत भेजा है, तब हरिलाल के धैर्य की सीमा टूट गई। वे उस समय 20-21 बरस के रहे होंगे। सत्याग्रह की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। तीन दफ़ा जेल भी गए थे। कुल मिलाकर उन्होंने 14 मास के क़रीब जेल में बिताए थे। उनके मन में यह भावना घर कर गई कि दूसरे नौजवानों को बापू बैरिस्टर बनने देते हैं, लेकिन मुझे नहीं। ... और भी कई झगड़े थे। गांधी जी को साफ दिख रहा था कि उनका पुत्र उनसे बहुत दूर हो चुका है। पर उन्हें यह भी पता था कि हरिलाल सत्याग्रह के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वे पिता के द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन में ज़ोर-शोर से हिस्सा ले रहे थे। सत्याग्रह के आंदोलन में उन्होंने गिरफ़्तारी दी। छह महीने तक जेल में रहे। हरिलाल ने जेल में आदर्श व्यवहार किया था। वहां के जुल्मों के ख़िलाफ़ वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उपवास किया। जेल की यातनाओं को भी उन्होंने एक महात्मा की तरह झेला। गांधी जी को भरोसा था कि हरिलाल का गुस्सा धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता और पुत्र में कटुता बनी रही। दिन-ब-दिन हालात ख़राब ही होते चले गए। पिता और पुत्र के बीच अक्सर तू-तू, मैं-मैं होने लगती। गांधी जी मानते थे कि पुत्र के जीवन में पिता की मानसिक स्थिति का प्रतिबिंब पड़ता है। हरिलाल के जन्म के समय गांधी जी का मन विषयों के पीछे दौड़ता था। इसलिए वे हरिलाल को अपना विकार पुत्र मानते थे और मणिलाल को अपने विचार का पुत्र मानते थे। हरिलाल ने बगावत करके पिता का साथ छोड़ने और देश में आकर रहने का निश्चय किया। गांधी जी अपने पुत्र को समझा न सके। ... और अंत में गांधी जी को बिना बताए हरिलाल ने भारत जाने का मन बना लिया।

10.2.1911 को गुलाब बहन ने कान्तिलाल को भारत में जन्म दिया। यह समाचार मिलते ही हरिलाल भारत जाने को उत्सुक हो उठे। लेकिन मुख्यतः तो उनको पढ़ाई की उत्कंठा थी। वे पिता की कमाई पर जीना नहीं चाहते थे। पढ़-लिख कर खुद मेहनत करके आगे बढ़ने की उनकी इच्छा थी। गांधी जी का खुद का जीवन देश सेवा के लिए समर्पित था। अतः पुत्रों से भी देश सेवा के लिए त्याग के लिए उनकी आशा रखना स्वाभाविक था। उन्होंने पुत्रों की पढ़ाई की इच्छा को मोह माना और उनको केवल नैतिक और धार्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहने का उपदेश देते रहते। बापू के प्रभाव में आकर अपनी पढ़ाई खो दूंगा ऐसा लगने से हरिलाल ने किसी को कहे बिना घर छोड़ देने का सोचा। जोसेफ़ रॉयपन को जोहान्सबर्ग में हरिलाल ने अपने भारत जाने के बारे में बताया। 8 मई, 1911 को अपनी कुछ चीज़ें बटोरकर, जिसमें गांधी जी की एक तस्वीर भी थी, बिना किसी से कहे वे चुपके से निकल गए। हरिलाल जोहान्सबर्ग से रेलगाड़ी में बैठकर अफ़्रीका के पूर्वी किनारे के पुर्तगाल के अधीन एक बंदरगाह डेलागोआ-बे पहुंचे। उन्होंने अपना नाम बदल लिया था, जिससे उनको गांधी जी के बेटे के रूप में कोई पहचान न पाए। लेकिन वहां के ब्रिटिश काउंसिल के पास एक ग़रीब भारतीय की हैसियत से भारत भेजने की जब उन्होंने मांग की तो वे पहचान लिए गए। उन्हें वापस लौट जाने के लिए कहा गया। 15 मई को वे वापस जोहान्सबर्ग आ गए। पिता-पुत्र ने विभिन्न विषयों पर विस्तार से चर्चा की। 16 मई को नाश्ते के बाद गांधी जी ने घोषणा की कि दूसरे दिन हरिलाल भारत वापस जाएंगे। 17 मई को जोहान्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर उनको विदा करने गांधी जी भी गए। जब गाड़ी छूटने लगी तो भरे हुए गले से गांधी जी ने कहा, “बाप ने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा हो, ऐसा लगे तो उसे माफ़ करना।”

गाड़ी चल पड़ी। बोझिल मन से पिता और पुत्र अलग हुए।

‘देश सेवा की तपश्चर्या के अंश के रूप में गांधी जी ने पुत्र की आहुति दी।’

***

हुआ यूं कि ---

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आज फिर से बहुत दिनों के बाद आपके सम्मुख हूं। अब तो यहां आने में भी, हिचक, झिझक ही नहीं शर्म भी महसूस हो रही है। इतने दिनों तक गायब जो रहा। आज भी खुद थोड़े आ रहा था। रश्मि प्रभा जीने लगभग खींच कर ला दिया है मुझे। … और आज जब उनसे वर्तालाप हो रही थी, तो लगा कि अपने घर-परिवार से दूर इतने दिनों तक क्यूं और कैसे रहा? आज बहुत अच्छा लग रहा है।

हुआ यूं कि ---

फ़ेसबुक ऑन करके बैठा था। तभी चैट में रश्मि प्रभा जी ने एक लिंक पकड़ा दिया। इन दिनों अमूमन दिए गए लिंक्स को इग्नोर ही करता रहा था। पर न जाने क्या सूझी कि मैंने क्लिक कर दिया और अहुंच गये, भूले-बिसरे दिनों के उस रोचक संसार में जहां से जाने की कभी सोची भी न थी, लेकिन पिछले एक साल से अनियमित होकर लगभग उस दुनिया को भूल ही चुका था। यह लिंक मेरे ही एक आलेख का था, जो पिछले साल अपने ब्लॉग के तीन साल पूरे करने पर लिखा था। (लिंक यहां है)। इसमें एक कविता थी और उस कविता में मैंने विषय से हट कर उस ब्लॉग के चौथ की बात कर दी थी। उन दिनों परिस्थितियां कुछ ऐसी हो गई थीं, कि हमें लगने लगा था कि अब और ब्लॉगिंग शायद न हो पाए। और जो मन में आया उसे कविता की पृष्ठभूमि में लिख गया।

कुछ दिनों तक तो इस ब्लॉग को आगे बढ़ाने का साहस दिखाया पर एक पुस्तक (सूफ़ीमत पर) को पूरी करने के चक्कर में ब्लॉग जगत से दूर ही हो गया। (पुस्तक प्रकाशनाधीन है।)

आह! थैन्क्स रश्मि जी। आपने आभी चंद मिनटों पहले कहा कि कुछ लिख कर शुरू कर दीजिए और नहीं कुछ तो उस दिन को याद करके ही …

आज तो आपका आभार। फ़ुरसत में मेरे लिए मेरा बेस्ट होता था। आज जब फिर से पढ़ता हूं, तो खो जाता हूं, नॉस्टॉल्जिक-सा हो जाता हूं। तो मैंने सोचा है कि कुछ BEST OF फ़ुरसत में लेकर आऊंगा और साथ ही नई रचनाएं भी इस ब्लॉग पर लाऊंगा (यदि रच पाया तो)। दुर्भाग्य से विचार ब्लॉग भी खो ही गया है, सो गांधी सीरिज भी यहीं बढ़ाऊंगा।

तो आज के लिए इतना है। लीजिए आज मेरी पसंद का ..

BEST OF फ़ुरसत में …

प्रेम-प्रदर्शन

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मनोज कुमार

एक वो ज़माना था जब वसंत के आगमन पर कवि कहते थे,

अपनेहि पेम तरुअर बाढ़ल

कारण किछु नहि भेला ।

साखा पल्लव कुसुमे बेआपल

सौरभ दह दिस गेला ॥ (विद्यापति)

आज तो न जाने कौन-कौन-सा दिन मनाते हैं और प्रेम के प्रदर्शन के लिए सड़क-बाज़ार में उतर आते हैं। इस दिखावे को प्रेम-प्रदर्शन कहते हैं। हमें तो रहीम का दोहा याद आता है,

रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन॥

खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान।

रहिमन दाबे ना दबत जान सकल जहान॥

हम तो विद्यार्थी जीवन के बाद सीधे दाम्पत्य जीवन में बंध गए इसलिए प्रेमचंद के इस वाक्य को पूर्ण समर्थन देते हैं, “जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति मात्र है --- जिसका कोई टिकाव नहीं।”

उस दिन सुबह-सुबह नींद खुली, बिस्तर से उठने  ही जा रहा था कि श्रीमती जी का मनुहार वाला स्वर सुनाई दिया, “कुछ देर और लेटे रहो ना।”

जब नींद खुल ही गई थी और मैं बिस्तर से उठने का मन बना ही चुका था, तो मैंने अपने इरादे को तर्क देते हुए कहा, “नहीं-नहीं, सुबह-सुबह उठना ही चाहिए।”

“क्यों? ऐसा कौन-सा तीर मार लोगे तुम?”

मैंने अपने तर्क को वजन दिया, “इससे शरीर दुरुस्त और दिमाग़ चुस्त रहता है।”

अब उनका स्वर अपनी मधुरता खो रहा था, “अगर सुबह-सुबह उठने से दिमाग़ चुस्त-दुरुस्त रहता है, तो सबसे ज़्यादा दिमाग का मालिक दूधवाले और पेपर वाले को होना चाहिए।”

“तुम्हारी इन दलीलों का मेरे पास जवाब नहीं है।” कहता हुआ मैं गुसलखाने में घुस गया। बाहर आया तो देखा श्रीमती जी चाय लेकर हाज़िर हैं। मैंने कप लिया और चुस्की लगाते ही बोला, “अरे इसमें मिठास कम है ..!”

श्रीमती जी मचलीं, “तो अपनी उंगली डुबा देती हूं .. हो जाएगी मीठी।”

मैंने कहा, “ये आज तुम्हें हो क्या गया है?”

“तुम तो कुछ समझते ही नहीं … कितने नीरस हो गए हो?” उनके मंतव्य को न समझते हुए मैं अखबार में डूब गया।

मैं आज जिधर जाता श्रीमती जी उधर हाज़िर .. मेरे नहाने का पानी गर्म, स्नान के बाद सारे कपड़े यथा स्थान, यहां तक कि जूते भी लेकर हाजिर। मेरे ऑफिस जाने के वक़्त तो मेरा सब काम यंत्रवत होता है। सो फटाफट तैयार होता गया और श्रीमती जी अपना प्रेम हर चीज़ में उड़ेलती गईं।

मुझे कुछ अटपटा-सा लग रहा था। अत्यधिक प्रेम अनिष्ट की आशंका व्यक्त करता है।

जब दफ़्तर जाने लगा, तो श्रीमती जी ने शिकायत की, “अभी तक आपने विश नहीं किया।”

मैंने पूछा, “किस बात की?”

बोलीं, “अरे वाह! आपको यह भी याद नहीं कि आज वेलेंटाइन डे है!”

ओह! मुझे तो ध्यान भी नहीं था कि आज यह दिन है। मैं टाल कर निकल जाने के इरादे से आगे बढ़ा, तो वो सामने आ गईं। मानों रास्ता ही छेक लिया हो। मैंने कहा, “यह क्या बचपना है?”

उन्होंने तो मानों ठान ही लिया था, “आज का दिन ही है, छेड़-छाड़ का ...”

मैंने कहा, “अरे तुमने सुना नहीं टामस हार्डी का यह कथन – Love is lame at fifty years!यह तो बच्चों के लिए है, हम तो अब बड़े-बूढ़े हुए। इस डे को सेलिब्रेट करने से अधिक कई ज़रूरी काम हैं, कई ज़रूरी समस्याओं को सुलझाना है। ये सब करने की हमारी उमर अब गई।”

“यह तो एक हक़ीक़त है। ज़िन्दगी की उलझनें शरारतों को कम कर देती हैं। ... और लोग समझते हैं ... कि हम बड़े-बूढ़े हो गए हैं।

“बहुत कुछ सीख गई हो तुम तो..।”

वो अपनी ही धुन में कहती चली गईं,

“न हम कुछ हंस के सीखे हैं,

न हम कुछ रो के सीखे है।

जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं,

तुम्हारे हो के सीखे हैं।”

images (1)मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिए विषय बदला, “पर तुम्हारी शरारतें तो अभी-भी उतनी ही (अधिक) हैं जितनी पहले हुआ करती थीं ...”

उनका जवाब तैयार था, “हमने अपने को उलझनों से दूर रखा है।”

उनकी वाचालता देख मैं श्रीमती जी के चेहरे की तरफ़ बस देखता रह गया। मेरी आंखों में छा रही नमी को वो पकड़ न लें, ... मैंने चेहरे को और भी सीरियस कर लिया। चेहरे को घुमाया और कहा, “तुम ये अपना बचपना, अपनी शरारतें बचाए रखना, ... बेशक़ीमती हैं!”

अपनी तमाम सकुचाहट को दूर करते हुए बोला, “लव यू!”

और झट से लपका लिफ़्ट की तरफ़।

शाम को जब दफ़्तर से वापस आया, तो वे अपनी खोज-बीन करती निगाहों से मेरा निरीक्षण सर से पांव तक करते हुए बोली, “लो, तुम तो खाली हाथ चले आए …”

“क्यों, कुछ लाना था क्या?”

बोलीं, “हम तो समझे कोई गिफ़्ट लेकर आओगे।”

मन ने ‘उफ़्फ़’ ... किया, मुंह से निकला, “गिफ़्ट की क्या ज़रूरत है? हम हैं, हमारा प्रेम है। जब जीवन में हर परिस्थिति का सामना करना ही है (एक साथ) तो प्रेम से क्यों न करें?

लेकिन वो तो अटल थीं, गिफ़्ट पर। “अरे आज के दिन तो बिना गिफ़्ट के नहीं आना चाहिए था तुम्हें, इससे प्यार बढ़ता है।”

मैंने कहा, “गिफ़्ट में कौन-सा प्रेम रखा है? ...” अपनी जेब का ख्याल मन में था और ज़ुबान पर, जो प्रेम किसी को क्षति पहुंचाए वह प्रेम है ही नहीं।मैंने अपनी बात को और मज़बूती प्रदान करने के लिए जोड़ा, “टामस ए केम्पिस ने कहा है – A wise lover values not so much the gift of the lover as the love of the giver.और मैं समझता हूं कि तुम बुद्धिमान तो हो ही।”

उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि आज ... यानी प्रेम दिवस पर उनके प्रेम कभी भी बरस पड़ेंगे। मेरा बार बार का एक ही राग अलापना शायद उनको पसंद नहीं आया। सच ही है, जीवन कोई म्यूज़िक प्लेयर थोड़े है कि आप अपना पसंदीदा गीत का कैसेट बजा लें और सुनें। दूसरों को सुनाएं। यह तो रेडियो की तरह है --- आपको प्रत्येक फ्रीक्वेंसी के अनुरूप स्वयं को एडजस्ट करना पड़ता है। तभी आप इसके मधुर बोलों को एन्ज्वाय कर पाएंगे।

मैंने सोचा मना लेने में हर्ज़ क्या है? अपने साहस को संचित करता हुआ रुष्टा की तरफ़ बढ़ा।

“हे प्रिये!”

“क्या है ..(नाथ) ..?”

“(हे रुष्टा!) क्रोध छोड़ दे।”

“गुस्सा कर के मैं कर ही क्या लूंगी?”

“मुझे अपसेट (खिन्न) तो किया ही ना ...”

“हां-हां सारा दोष तो मुझमें ही है।”

“चेहरे से से लग तो रहा है कि अब बस बरसने ही वाली हो।”

“तुम पर बरसने वाली मैं होती ही कौन हूं?”

“मेरी प्रिया हो, मेरी .. (वेलेंटाइन) ...”

“वही तो नहीं हूं, इसी लिए ,,, (अपनी क़िस्मत को कोस रही हूं) ...”

"खबरदार! ऐसा कभी न कहना!!"

"क्यों कहूंगी भला! मुझे मेरा गिफ्ट मिल जो गया. सब कुछ खुदा से मांग लिया तुमको मांगकर!"

"........................"

***


फ़ुरसत में ... हम भी आदमी थे काम के

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फ़ुरसत में ... 112

हम भी आदमी थे काम के

मनोज कुमार

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।

ढाई   आखर   प्रेम   का,   पढ़ै   सो    पंडित   होइ॥

कल्पना करें - कितना अच्छा लगेगा जब एक लड़का डिग्री लेकर दौड़ता हुआ अपने माता-पिता के पास आएगा और उनके चरणों में नतमस्तक होकर कहेगा – हे माते! हे तात!! मेरी मेहनत रंग लाई और आपलोगों के अशीष और शुभकमनाओं का फल है कि आज मैं `LOVE’में पोस्ट-ग्रैजुएट हो गया हूं।फिर जिसे वो मन ही मन चाहता था उसके पास दौड़ा हुआ जाएगा और कहेगा – हे प्रिये! इस लव में पोस्ट ग्रैजुएट इंसान का प्रेम स्वीकार करो!प्रेमिका बड़े नखरे और अदा से कहेगी, ‘अहो! तुम्हें विलम्ब हो गया! अब मुझे ‘लव’ पर रिसर्च कर चुके इंसान को अपना जीवन-साथी वरन करना है।’ इस तरह प्रेम पर पी-एच.डी. किए प्रेमी का प्रेम बाज़ार में महत्त्व काफ़ी बढ़ जाएगा। ... और प्रोफ़ेसर और प्रिंसिपल की तो चांदी ही होगी। फिर तो वह पुराना और घिसा-पिटा डायलॉग नए रूप में अपनी चमक-दमक बिखराते हुए दिखेगा –“ बच्चे! मैं उस College का प्रोफ़ेसर हूं जिसके तुम स्टुडेंट हो।” और शान से कहेंगे –

रोम-रोम   रस     पीजिए,    ऐसी    रसना      होय;

‘दादू’ प्याला प्रेम का, यौं बिन तृपिति न होय।

सन्दर्भ कुछ यूँ है कि कोलकाता का एक महाविद्यालय जो देश का सबसे पुराने महाविद्यालयों में से एक था, आजकल विश्विद्यालय का दर्ज़ा पा चुका है। ख़बर है कि ‘लव’को उसके पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया गया है। सुनने में आया है कि अमेरिका के मैसचुसेट्स विश्विद्यालय में ‘सोशियोलॉजी ऑफ लव’पढ़ाया जात है। हो सकता है यह धारणा वहीं से उठा ली गई हो। हम अंधानुकरण करने में माहिर तो हैं ही। यूँ कि देखने वाली बात ये होगी कि जिस ‘प्यार’को पढ़ाया जायेगा वह देसी होगा या विदेशी, यह उत्सुकता का विषय है। देसी प्यार तो आर्ट फ़िल्म की तरह धीरे-धीरे परवान चढ़ता है। विदेशी प्यार में जो जलवे हैं, उसे हमारे यहां बड़े चाव से देखा-सुना जाता रहा है। सो प्यार का विदेशी संस्करण ‘लव’, चाहे वह पढ़ाई के रूप में ही क्यों न हो, हमें ख़ूब भाएगा, उम्मीद तो यही की जा रही है।

घोषित (?)यह पाठ्यक्रम सभी वर्ग के स्टूडेंट्स को आकर्षित कर रहा है। कहा जा रहा है कि इस पाठ्यक्रम के ज़रिए छात्रों को प्रेम के प्रति संवेदनशील बनाया जाएगा। पाठ्यक्रम के विषय – द ट्रान्सफॉर्मेशन ऑफ इन्टिमेसी, सेक्सुअलिटी, लव एंड एरोटीसिज़्म, लिक्विड लव, द आर्ट ऑफ लविंग आदि पर तनिक ग़ौर करें तो समझ में आएगा कि इस पाठ्यक्रम से संवेदना बेचारी तो दहाड़ मारकर फूट ही पड़ेगी।

प्रेम का इतिहास और ऐतिहासिक प्रेमी और उसकी प्रासंगिकता के विषयों में पढ़ना कितना रोचक रहेगा!

लोगों का कहना है कि अब तक शिक्षा के क्षेत्र में भावनाओं को कोई जगह नही दी गई थी। इस पाठ्यक्रम के आ जाने से एक अच्छी शुरूआत हुई है, यह तो माना जा ही सकता है। कल को ईर्ष्या, नफ़रत, घृणा, धोखा, अफेयर्स-ब्रेक‍अप, आदि विषयों के लिए रास्ते खुलेंगे और इन्हें सीरियसली लिया जाएगा। अब तो जैसे हर सेशन के बाद दर्जनों ‘लव गुरु’विश्विद्यालयों से निकलेंगे, वैसे ही कल को ‘ब्रेक‍अप गुरु’, ‘नफ़रत गुरु’और ‘धोखा गुरु’की भी तैयारी कराने वाले पाठ्यक्रम आ जाने से ऐसे गुरुओं की कमी नहीं रहेगी।

इस पाठ्यक्रम में दाखिला लेने की होड़ अभी से शुरू हो गई है। पहले प्यार की तरह पहला फॉर्मभरने का चार्म हर किसी को आकर्षित कर रहा है। हो भी क्यों नहीं, इस विषय के अकादमिक-इतिहास में उनका नाम पहले विद्यार्थी के रूप में सदा के लिए दर्ज़ जो हो जाएगा। दूसरी बात जो उभर कर सामने आ रही है वह यह सम्भावना कि लोग इस कोर्स में दाखिला लेने के बाद पास ही नहीं करना चाहेंगे।

मक़तबे    इश्क़    में    इक    ढंग    निराला     देखा

उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ।

क्लासेज़ इतनी रोचक होगी कि शायद ही कोई अनुपस्थित होना चाहेगा। यानी शत-प्रतिशत अटेंडेंस की गारंटी ही समझिए।

जेहि के हियँ पेम रंग जामा। का तेहि भूख नींद बिसरामा।

कितने रोचक स्पेशल-पेपर होंगे .. देसी मजनूं/लैला, या फिर विदेशी रोमियो/जुलियट ..। जब किसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में इस विषय  के विद्वानों को बुलाया जाएगा तो उद्घोषक कहेगा कि हमारे बीच प्रेम के प्रकांड पंडित मौज़ूद हैं और श्रोताओं की तालियों से सारा हॉल गूंज उठेगा। इन ढ़ाई आखर वालों का सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा। सुनने में आया है कि यह विषय ‘LOVE’ के नाम से जाना जाएगा। अच्छा ही है। प्रेम या प्यार में तो ढाई आखर ही होते हैं। इसे पढ़ने वाले एक और क्रेडिट ले जाएंगे कि वे चार आखर के ज्ञाता हैं। वैसे भी LOVE में जो खुलापन है, आज़ादी है, मस्ती है, ... वह प्यार में कहां!

कॉस्मेटिक्स की बिक्री बढ़ेगी। पुरुष और महिलाएं दोनों वैनिटी बैग लेकर निकला करेंगे। सज-संवर कर घर से निकलने वाले विद्यार्थियों को भी उस तरह के अभिभावकों से मुफ़्त की डांट नहीं सुननी पड़ेगी, जो कल तक कहते रहे हैं, कि “कॉलेज में तुम यही सब (लव-शव) पढ़ने जाते हो?” बल्कि अब छात्र सिर ऊँचा कर कहेगा कि “मैं तो इसके (लव-शव) फाइनल ईयर का छात्र हूँ।”

कई विषयों को लेकर यूं ही प्रतिस्पर्द्धा रहती है कि वह प्राकृतिक विज्ञान की श्रेणी में है या सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में। इस विषय के जुड़ जाने से यह प्रतियोगिता और भी गहरा जाएगी। छात्रों को भी उत्सुकता है कि उन्हें कला संकाय में जाना होगा या विज्ञान  संकाय में। एक गुप्त सर्वेक्षण के अनुसार यह पता चला है कि छात्र भी यह चाहते हैं कि इसे विज्ञान संकाय में जगह मिले। कला तो भावना, संभावना और कल्पना पर आधारित होती है। विज्ञान तो प्रैक्टिकल के आधार पर सत्य का साक्षात्कार कराता है। इसलिये ‘लव’ में दाखिला लेने के बाद जब प्रैक्टिकल भी करने को मिल जाए तो फिर तो सोने पर सुहागा है।

इस डिग्री को पाकर यदि विद्यार्थियों को नैकरी मिल गई तो चांदी ही चांदी, वरना यह शे’र तो गुनगुना ही सकते हैं,

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया।

वरना हम भी आदमी थे काम के॥

अब उन चचा को कौन समझाए जो कह रहे हैं कि ‘सौहार्द्र, नैतिक शिक्षा की बात होती तो देश का माहौल सुधरता। प्रेम की पाठशाला खुल रही है, ... संस्कारों की अवहेलना पता नहीं हमें कहां तक ले जाएगी?’

अरे चाचा,

अकथ कहानी प्रेम की, कछू कही न जाइ।

गूंगे    केरी   सरकरा   खावै   अरु    मुसकाइ॥

इसीलिए ---

दादू   पाती   प्रेम   की,   बिरला    बाँचै     कोई।

वेद पुरान पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होई॥

और हमारे जैसे कई ब्रिलियेण्ट लोग, यह सोचकर, मन मसोस कर, रह गये होंगे कि काश यह कोर्स कुछ साल पहले शामिल हो गया होता, तो आज हम भी समाज की सम्वेदनशीलता में इजाफ़ा कर रहे होते। लेकिन अब पछताने से क्या लाभ जब समय की चिड़िया ने सिर की सारी खेती चुग डाली है।

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विकट अतिथि

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विकट अतिथि

मनोज कुमार

बेटा और लोटा परदेश में ही चमकता है”– इस कहावत को कहने वाले ने सही ही कहा है। हम पिछले 25 साल से परदेश में ही अपनी चमक छोड़ रहे हैं। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, पंजाब और बंगाल की भूमि पर सेवा करते हुए दो दशक से अधिक हो गए। परदेश की पोस्टिंग जब-जब घरवालों के मनोनुकूल रहा, तो आने-जाने वालों से घर भरा-पूरा रहता रहा है।

हमारे एक मित्र हैं झा। सप्ताह में दो दिन तो उनके साथ भेंट-मुलाक़ात और बतकही हो ही जाती है। पता नहीं क्यों मेरे लेखन से प्रभावित रहते हैं और कभी-कभार उसकी प्रशंसा भी कर देते हैं। “गंगा सागर”यात्रा-वृत्तांत पढ़कर इतने प्रभावित हुए कि गंगा सागर की यात्रा करके ही उन्होंने दम लिया।

हाल-फिलहाल में मैंने एक फ़िल्म की समीक्षाकी थी। उसे पढ़कर वे काफ़ी प्रेरित हुए और पिछले सप्ताह उन्होंने कहा कि अब तो इसे देखना ही होगा। बल्कि अपनी बात पर ज़ोर देकर बोले – इसी सप्ताहांत में देखूंगा। गुरुवार को जब दफ़्तर में उनसे भेंट हुई तो मैंने उनसे पूछा, -- देख आए ‘फ़िल्म’? झाजी ने मायूस स्वर में कहा, -- “अरे अलग ही कहानी हो गई! दोनों दिन (शनिवार-रविवार) इस कदर व्यस्त रहे कि फ़िल्म देख ही नहीं पाए। घर से अतिथि आ गए थे। उनके बच्चों का यहां (कोलकाता में) इम्तहान था। सो उनके सत्कार में ही लगा रहा।”

मेरे चेहरे की कुटिल मुसकान शायद वे पढ़ नहीं पाए। यहां भी स्थिति वही थी। “जो गति तोरा, सो गति मोरा”वाली स्थिति से मैं भी गए सप्ताहांत गुज़र चुका था। आज कल स्थिति भी बदल-सी गई है। जिसके आने की कोई तिथि न हो, वाली स्थिति तो अब रही नहीं। अब तो मोबाइल पर अपने आने की सम्पूर्ण सूचना देकर वे पधारते हैं, ताकि उनके आवभगत-सत्कार में कोई कमी न रह जाए। इसलिए सिर्फ़ ‘तिथि’कहकर भी काम चलाया जाना उचित जान पड़ता है।

शुक्रवार की शामएक पुराने मित्र का बरसों बाद फोन आया, जो कि हाल-चाल से शुरू होते ही दूसरे वाक्य में ‘हमें तो भूल ही गए, न फोन करते हो, न कोई खबर लेते हो’ पर आ पहुंचा। हमारी प्रतिक्रिया की न तो उसे आवश्यकता थी न ही परवाह। वह तो धारा-प्रवाह बोलता गया, जिसका न कोई ओर था न छोर। जब वह अपने मन्तव्य पर पहुंचा, तब तक वह आरोप-प्रत्यारोप के पांच मिनट ले ही चुका था। मन्तव्य स्पष्ट करते हुए बोला, “बेटी जा रही है। उसकी मां तो घबरा रही थी, हम बोले कि चाचा तो वहां पर है ही, फिर क्या सोचना? हम भी जाते लेकिन एक ठो ज़रूरी काम से दिल्ली जाना है। तुम देख लेना। उसका मामा भी साथे है।” ... मैंने बात के सिलसिले को विराम देने के हेतु से गाड़ी और बर्थ का नम्बर लिया और फोन को रखा।

सुबह-सुबह उठकर स्टेशन पहुंचा तो मालूम हुआ कि गाड़ी चार घंटे लेट है। खैर चार घंटे बाद दुबारा स्टेशन पहुंचा और मामा-भांजी को लेकर घर आए। उन्हें ड्रॉईंग रूम में छोड़ सब्जी-भाजी के प्रबंध हेतु बाज़ार गया। बाज़ार से घंटे भर बाद लौटा तो पाया कि मामा की वाचलता से पूरा घर गुंजायमान था। सोफ़े पर एक तरफ़ उनका पैंट-शर्ट किसी उपेक्षित प्राणी की तरह पड़ा था, और श्रीमान पालथी मार कर विराजमान थे।औपचारिकता निभाने मैं भी बैठ गया। महोदय टीवी को उच्चतम वौल्यूम पर सुनने के शौकीन लगे, और बात करते वक़्त वे अपनी आवाज़ को टीवी की आवाज़ से तेज़ रखने पर तत्पर रहते थे। घर में दोनों आवाज़ों का जो मिलाजुला इफेक्ट पैदा हो रहा था, वह महाभारत के युद्ध के दृश्य के समय के बैकग्राउंड म्यूज़िक से मैच करता हुआ था।

थोड़ी ही देर में महाशय ऐसा खुले कि लगा जन्म-जन्मांतर का नाता हो। मेरी स्टडी टेबुल पर पड़े बैग पर उनकी निगाहें गईं, तो प्रसन्नता की वह लकीर उनके चेहरे पर दिखी, मानों बिल्ली को दूध दिख गया हो। बोले, -- “मेहमान! बैग तो ज़ोरदार है। आपको तो ऑफिसे से मिल जाता होगा। इसको हम रख लेते हैं। आपको तो दूसरा मिलिए जाएगा।” संकोच से मेरा किसी नकारात्मक प्रतिक्रिया न करना उनके लिए सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर गया और उन्होंने बैग पर क़ब्ज़ा जमा लिया। मेरे मन में बड़ा ही कसैला-सा विचार उमड़ा – इन मेहमानों के चलते आए दिन न सिर्फ़ शनिवारों-रविवारों की हत्या होती है, बल्कि घर की संपदा पर भी डाका पड़ता है।

दोपहर अभी होने को ही था कि श्रीमान का स्वर टीवी की आवाज़ से ऊँचा हुआ – “खाने में क्या बना है?” अभी हम जवाब देते उसके पहले ही उनका दूसरा वाक्य उछल रहा था, -- “पटने में यदि आप होते तो बताते हम आपको कि माछ कैसे बनता है?” फिर तो बातों-बातों में उन्होंने अपने ज्ञान का भंडार हमारे लिए खोल के रख दिया। बोलते रहे, -- “अरे इस सब जगह कोनो माछ मिलता है, सब चलानी है, बस चलानी। तलाब का फ़रेस मछली का बाते अलग है। आइए कभी हमरे यहां तलाब का मछली खिलाएंगे त आपको पता चलेगा कि मछली का मिठास क्या होता है? उसके सामने ई सब मछली त पानी भरेगा। बिना मसल्ला के जो माछ बनता है उसको खाने का मज़ा त उधरे आता है।” अपनी इस थ्यौरी को हमारे सामने परोसते-परोसते वे इतने उत्तेजित हो गए कि पालथी मारकर सोफे पर ही चढ़ गए। -- अब जिस मुद्रा में वे थे, उसे बैठना कहना उनकी शान में गुस्ताख़ी ही होगी।

थोड़ी देर रुक कर वे फिर बोले, -- “मेहमान! आप थोड़े मोटे दिख रहे हैं। देखिए दोपहर के भोजन और सुबह के नाश्ते के बीच अगर नींबू-पानी का शरबत पी लिया कीजिएगा ना त मोटापा अपने-आप कम हो जाएगा।” मैंने मन ही मन सोचा फ़रमाइश तो श्रीमान जी ऐसे कर रहे हैं मानों हमारे स्वास्थ्य की चिंता में घुले जा रहे हों। शायद हमारी बातें किचन में पहुंच रही थी, इसीलिए थोड़ी ही देर में शरबत लिए श्रीमती जी हाजिर थीं।

एक हाथ में शरबत का गिलास थाम उन्होंने दूसरे से अपने थैले का मुंह खोला और एक पोटली मेरी श्रीमती जी की तरफ़ बढ़ाते हुए बोले, -- “ये आपकी मां ने भिजवाया है। ठेकुआ, खजूर और निमकी है।” मेरी श्रीमती जी ने पोटली का बड़ा आकार और उसके अन्दर के सामान की मात्रा के अनुपात में भारी अन्तर पाया तो उनके चेहरे के भाव में स्वाभाविक परिवर्तन आया। शायद उसे भांपते हुए महाशय ने जल्दी-जल्दी कहना शुरू कर दिया, -- “इसमें जो था वह थोड़ा कम है। गाड़ी लेट हो रही थी, त हम सोचे कि अब क्या रस्ता-पैरा का खाएं। साथे त खाने का सामान हइए है, वहां जाकर क्या खाएंगे, अपना हिस्सा अभिए खा लेते हैं। यह बोलकर वे हा-हा-हा करके हंसने लगे।”

थोड़ी देर बाद लघुशंका निवारण के लिए जब महाशय के चरणकमल स्नानगृह में पड़े तो वहां उन्हें खुले हुए वाशिंग मशीन के दर्शन हुए और उनकी बांछें खिल गईं। उनका हर्षित स्वर फूट पड़ा, -- “अरे मेहमान वाह! इ त कपड़ा धोने का मशीन है। रस्ता में सब कपड़ा पसीना से खराब हो गया है। जब मशीन चलिए रहा है त हम सबको धोइए लेते हैं।” इतना कह कर उन्होंने उस मशीन का जी भर कर सदुपयोग किया और यहां तक कि अपने धुले हुए कपड़े भी धो डाले। मन ही मन मैं दुहरा रहा था, -- ‘मंगनी के चन्दन, लगा ले रघुनन्दन’

भोजन का समय हो चुका था। हम डायनिंग टेबुल पर जमे। भोजन परोसे जाते ही महाशय की ट्वेन्टी- ट्वेन्टी की शतकीय पारी शुरू हो गई। थाली में रोटी गिरती नहीं कि वह सीमा-रेखा के बाहर पहुंच जाती थी। मतलब जितनी तेजी से वह उनकी तरफ़ पहुंचती, उससे भी अधिक तेज़ी से उनके उदरस्थ हो जाती थी। ऐसा लग रहा था कि उन्हें जुगाली की भी फ़ुरसत नहीं थी। ऐसे दृश्य को देख कर मेरे मन में यह उमड़ा –

हनुमान की पूंछ में लग न पाई आग।

लंका सारी जल गई गए निशाचर भाग॥

लगभग एक रीम रोटियों को निगल चुकने के बाद भाई साहब बेड पर पसरे और पलक झपकते ही उनके स्टीरियोफोनिक नासिका गर्जन ने पूरे घर में आतंक फैलाना शुरू कर दिया। उस ध्वनि का प्रवाह श्वांस के उच्छवास और प्रच्छ्वास के साथ कभी द्रुत तो कभी मध्यम लय में अपनी छटा बिखेर रहा था। ध्वनि का उखाड़-पछाड़ घर के अध्ययनशील प्राणियों की एकाग्रता दिन में भी भंग कर रही थी। ऐसा होता भी क्यों नहीं आखिर उनके आरोह-अवरोह कभी पंचम स्वर तो कभी सप्तम सुर में लग रहे थे। घर की लीला अब मेरे बर्दाश्त के बाहर थी। खिन्न होकर मैंने घर के बाहर निकल जाने में ही अपनी भलाई समझी।

जब मैं दो-ढाई घंटे बाद घर वापस आया, तो उन्हें हाथ में रिमोट पकड़े टीवी देखता पाया। किसी बेचैन आत्मा की तरह सोफा पर दोनों पांव रख कर वे बंदर की तरह उकड़ूं बैठे थे और जितनी देर मैं उनके पास रुका उतनी देर वे सौ से भी अधिक के टीवी के चैनलों पर कूदते-फांदते रहे। हमारा तो न्यूज़ तक सुनना दूभर हो गया था, मानों महाशय विवेक को ताक पर धर कर आए थे। मैंने सो ही जाने में अपनी भलाई समझी।

सुबह जब उठा तो श्रीमती जी द्वारा पहला समाचार सुनने को मिला कि ‘भाई साहब का पेट बेक़ाबू हो गया है।’ मैंने मन ही मन कहा, -- ‘जब माले मुफ़्त .. दिले बेरहम हो तो यह तो होना ही था।’ तभी महाशय जी दिखे। उन्होंने अपना नुस्खा खुद ही बताया, -- “तनी दही-केला खिला दीजिए – ऊहे पेट बांध देगा।” उनकी इच्छा फौरन पूरी की गई। पलक झपकते ही उन्होंने आधा किलो दही और आधा दर्जन केले पर अपना हाथ साफ किया और मांड़-भात खाने की अपनी फ़रमाइश भी सामने रख दी। फिर हमारी तरफ़ मुखातिब होकर बोले, -- “अब हम त ई अवस्था में बचिया के साथ नहिए जा पाएंगे। आपही उसको परीक्षा दिला लाइए।”

इधर हम झटपट तैयार होकर परीक्षा केन्द्र जाने की तैयारी कर रहे थे, उधर महाशय जी मांड़-भात समाप्त कर उपसंहार में दही-भात खा रहे थे। मुझे लगा इससे बढ़िया तो यही होता कि महाशय का पेट खराब ही न हुआ होता। बच्ची को परीक्षा दिला कर जब शाम घर वापस आए तो वे हमसे बोले, -- “मेहमान जी आप त बड़का साहेब हैं। तनी देखिए कौनो टिकट-उकट का जोगाड़ हो जाए।” इंटरनेट की दौड़-धूप के बाद हमने अपने पैसे से उनके टिकट का इंतज़ाम किया और उन्हें स्टेशन पहुंचा कर वापस घर आकर दम लिया।

हमने अभी चैन की सांस ली ही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो लंबी-चौड़ी खींसे निपोरे श्रीमान जी नज़र आए। हम कुछ पूछते उसके पहले खुद ही बखान करने लगे, -- “गाड़ी छह घंटा लेट था, त हम सोचे कि पलेटफारम पर क्या बैठना, घरे चलते हैं वहीं चाह-वाह पी आते हैं।”

दूसरी बार हमने कोई रिस्क नहीं ली। उन्हें छोड़ने न सिर्फ़ प्लेटफॉर्म तक गए बल्कि उस अतिथि रूपी बैताल को गाड़ी रूपी वृक्ष पर टांगकर ट्रेन के खुलने तक का वहीं इंतज़ार करते रहे और अपनी पीठ के वैताल को उतारकर घर वापस आए और एक कटे वृक्ष की तरह बिस्तर पर गिर पड़े।

झा जी जो अबतक मेरी इस आपबीती को तन्मयता के साथ सुन रहे थे, हंसने लगे। फिर उन्होंने कहना शुरू किया, -- “हमारे एक दोस्त हैं। वे भी ऐसे ही एक विकट अतिथि से जो उनके दूर के संबंधी भी थे, बड़े परेशान रहा करते थे। एक बार उनके इस दूर के संबंधी ने फोन किया, कि वे फलानी तारीख को आ रहे हैं, उन्हें स्टेशन आकर रिसिव कर लें। इस महाशय ने झट से कह दिया था, -- उन दिनों तो हम शहर से बाहर रहेंगे। दूर के संबंधी थोड़ा निराश हुए। बोले, -- कोई बात नहीं, हम होटल में रह लेंगे।

एक दिन वे जब शाम को घर से बाज़ार जाने के लिए निकल ही रहे थे कि देखते हैं कि उनका दूर का संबंधी टैक्सी से उतर रहा है। बेचारे हैरान परेशान उलटे पांव घर की तरफ़ वापस भागे। उनके संबंधी ने उन्हें पुकारा पर उसकी पुकार को अनसुनी कर वे तेज़ कदमों से चलते रहे। संबंधी भी ढीठ की तरह उनका पीछा करता रहा। उन्होंने घर के दरवाज़े पर लगे कॉल-बेल को दबाया – घर का दरवाज़ा खुला और उनकी पत्नी प्रकट हुई। वे अपनी पत्नी पर ही बिफर पड़े। लगे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने – “आजकल तुम कोई काम ढंग से करती ही नहीं हो। घंटा भर लगता है दरवाज़ा खोलने में। घर में एक भी सामान ठीक से अपनी जगह पर नहीं होता – ऊपर से अनाप-शनाप बकती रहती हो ...।” दो-चार मिनट ख़ामोश उनकी पत्नी अवाक हो सारी बातें सुनती रही। जब उसने देखा कि बे-सिर पैर के आरोप के साथ पति चिल्लाए जा रहे हैं, तो उसने भी ज़ोर-ज़ोर से पति को फटकारना शुरू कर दिया। दोनों के बीच महासंग्राम इस स्थिति तक पहुंच चुका था कि कभी भी यह मल्ल-युद्ध में तबदील हो सकता था। संबंधी महोदय ने ऐसी विकट स्थिति देखी तो घबड़ाकर वहां से खिसक लिए। संबंधी के खिसकते ही पति शांत होकर पत्नी को समझाने लगे – “अरी लक्ष्मी मैं तो उस घर पधार रहे विकट संबंधी के सामने यह नाटक कर रहा था, ताकि वह हमें लड़ता देख चला जाए। भला हुआ वह चला गया, वरना सोचो तुम्हारा क्या हाल होता? मैं कोई सचमुच तुम्हें थोड़े ही डांट रहा था।” यह सुन अभी पत्नी शांत ही हुई थी कि संबंधी महोदय सीढ़ी के नीचे से निकल कर सामने आए और बोले – “तो भाई साहब मैं भी सचमुच का थोड़े ही गया हूं।”

यह वाकया खत्म कर झा जी ठठा कर हंस पड़े। मैंने भी उनका साथ दिया और कहा, -- “झा जी लोग कहते हैं कि अतिथि देवो भव। ज़रा सोचिए और आप ही निर्णय कीजिए कि ऐसे अतिथि देवो भव हैं कि दानवो …!”

***

बेस्ट ऑफ फ़ुरसत में …!

फ़ुरसत में ... 113 -- नवाबगंज पक्षी-विहार की यात्रा

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फ़ुरसत में ... 113

नवाबगंज पक्षी-विहार की यात्रा

मनोज कुमार

फ़ुरसत से फ़ुरसत मेंआया हूं ... बहुत दिनों के बाद!

पिछले हफ़्ते सरकारी काम से कानपुर जाना हुआ। राजभाषा हिंदी के क्रियान्वयन के काम से जुड़े रहने के कारण सम्मेलनों का आयोजन भी मेरा दायित्व है। कानपुर प्रवास भी इसी कड़ी का एक हिस्सा था। कोलकाता से कानपुर पहुंच कर महसूस हुआ कि यहां जाड़े का आगमन हो चुका है। अपन पूरी तैयारी से गए नहीं थे, इसलिए आधे-अधूरे तैयार लोगों के साथ जो हश्र होना चाहिए था--- वही हुआ। शाम तक नाक बहने लगी, ... और रात होते-होते अनवरत छींकों ने परेशानियां बढ़ा दी। संगी-साथी और आने वाले दर्शनार्थी तरह-तरह के उपदेश और आदेश देते रहे। उनमे से एक जो अविस्मरणीय रहा वह यह था – आता हुआ और जाता हुआ – दोनों जाड़ा बहुत ख़तरनाक होता है। इसमें सबसे ज़्यादा संभल कर रहने की ज़रूरत होती है।”मुझे भी लगा मैंने ये कौन-सी मुसीबत मोल ले ली है। ये सर्दी तो दो-तीन दिनों में चली जाएगी, पर इतने सारे आदेश और उपदेश तो मेरा जीवन-भर पीछा करते रहेंगे। हमारी तरफ़ एक कहावत बहुत प्रचलित है – “लुच्चक मौगत माघ महीना”!अपन तो कार्तिक में ही भुगत रहे थे।

ख़ैर! जैसे-तैसे बहती हुई नाक और आती-जाती छींकों की नाव पर सवार हमने सम्मेलन की वैतरणी पार कर ही ली। फिर कानपुर को प्रणाम किया और जुगल किशोर के साथ कानपुर-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग 25 द्वारा अमौसी एयरपोर्ट के लिए प्रस्थान किए।

आते हुए जाड़ों में न सिर्फ़ मेरा प्रवास का कार्यक्रम था, बल्कि इस ऋतु के आगमन के साथ-साथ बहुत से प्रवासी पक्षियों का भी भारत-प्रवास का कार्यक्रम होता है। दरअसल नवंबर से फरवरी के दौरान भारत में कई विदेशी पक्षी छुट्टियाँ बिताने आते हैं। कुछ पक्षी तो साइबेरिया जैसे दूर-दराज़ के इलाक़ों से यहां आते हैं। जाड़े के मौसम के आते ही प्रवासी पक्षियों की मौजूदगी से भारत रंगीन हो जाता है। 1200से अधिककी संख्या में प्रवासी पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां भारत में आकर यहां के पक्षियों की बिरादरी में शामिल होकर इनकी पहले ही से रोचक और समृद्ध परंपरा में चार चांद लगा देते हैं। पक्षियों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास एक अद्भुत घटना है, जो सदियों से घटित होती आ रही है। ऐसे कई अध्ययन किए जा चुके हैं जिनसे यह पता लगा है कि ये पक्षी मौसम में आए बदलाव, प्रतिकूल तापमान और भोजन की अनुपलब्धता के कारण अपने मूल स्थान से पलायन करते हैं। उनके स्थाई निवास में भोजन, आश्रय और प्रजनन का संकट पैदा हो जाता है, इसलिए ये पक्षी अनुकूल वातावरण की खोज में हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर भारत व अन्य देशों की तरफ़ कूच कर जाते हैं। यहां वे अंडे देते हैं, अपना परिवार बढ़ाते हैं और अपने बच्चों के साथ ख़ुशी-ख़ुशी अपने देश लौट जाते हैं।

कानपुर-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग पर कानपुर से लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर नवाबगंज पक्षी विहार, जनपद उन्नाव के नवाबगंज तहसील के अन्तर्गत स्थित है। इस पक्षी विहार की स्थापना वन्य प्राणी (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अन्तर्गत वर्ष 1984 में हुई थी। यह विहार जिस जगह स्थित है, वहाँ बस, टैक्सी या निजी वाहनों से बड़ी सुगमता से पहुंचा जा सकता है। 224.60 हेक्टेयर में फैले इस पक्षी विहार की स्थापना का मुख्य उद्देश्य स्थानीय व प्रवासी पक्षियों की सुरक्षा एवं संवर्धन के साथ इनके प्राकृतवास (Habitat) का भी संरक्षण किया जाना है।

एक मित्र, गगन चतुर्वेदी से बात हो रही थी। उसने पूछा, “आजकल तुम्हारे ब्लॉग पर एक्टिविटी कम क्यों है?”

मैंने बताया, “इन दिनों पक्षियों के प्रवास पर पुस्तक लिख रहा हूं।”

उसने उल्लास से कहा, “फिर तो वापसी में तुम नवागंज पक्षी विहार ज़रूर जाओ।”

और उसके इस सुझाव ने इस पक्षी विहार जाने के प्रति मेरी उत्सुकता बढा दी। और कुछ ही देर में जब हमारी टैक्सी NH-25 पर दौड़ रही थी, मेरे मन में भी रंग-बिरंगे सैंकड़ों-हज़ारों पक्षियों के दर्शन की कल्पना दौड़ रही थी। लगभग सवा घंटे की यात्रा के पश्चात हम पक्षी विहार पहुंचे। गेट पर कोई खास गहमा-गहमी नहीं दिखी। टिकट काउण्टर के बाहर कुर्सी लगाकर धूप सेकते सज्जनों ने हमें तो निराश ही कर दिया – “अभी कहां चले आए? पक्षी तो दिसम्बर में आएंगे।”

हमने भी हिम्मत नहीं हारी, “कुछ तो दिख ही जाएंगे।”

हां, सो तो है।

फिर उन्होंने पांच मिनट तक एक रजिस्टर में हमारा नाम-धाम, ठौर-ठिकाना, हमारी गाड़ी का नम्बर आदि नोट किया और तीस रुपए के भुगतान पर हमें टिकट थमाया। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही, पक्षियों की जानकारी देते बड़े-बड़े बोर्ड पर जब हमारी नज़र गई, तो हमें लगा कि कुछ अलग तो दर्शन होंगे ही। हम आगे बढ़े तो कुछ युवाओं को दूरबीन लगाए निगाहबीन करते पाया। हमारा हौसला बढ़ा कि कुछ तो है। थोड़ा पछतावा भी हुआ कि काश हमारे पास भी दूरबीन होती। ख़ैर, दूरबीन न सही, पर 15x ज़ूम वाला कैमरा तो है ही, पक्षी दिखते ही खींच लूंगा फोटो!

हम झील के किनारे बने पैदल पथ (Pedestrian path way) पर आगे बढ़े। कल्पना तो यह कर रखी थी कि झुंड के झुंड प्रवासी पक्षी दिखेंगे, ... उन्हें कैमरे में क़ैद करूंगा, ... लेकिन स्थिति उलट थी। सिवाए झाड़-झंखाड़, जंगल, सड़े-गले पदार्थों के कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था। यहां तक कि झील का पानी भी कहीं साफ-सुथरा नहीं। हम आगे बढ़े तो सड़क पर काम करते मज़दूर मिले। पूछने पर उन्होंने बताया कि दर्शनार्थी की सुविधा के लिए साइकिल ट्रैक बन रहा है। हम ख़ुश हुए, अगली बार बेहतर सुविधाएं मिलेंगीं।

रास्ते के दोनों ओर दूर-दूर तक नज़र दौड़ाते हम आगे बढ़ रहे थे, पर कहीं भी प्रवासी पक्षी तो क्या स्थानीय पक्षी भी नहीं दिख रहे थे। तभी एक कर्मचारी दिखा। उनसे पूछा, तो उन्होंने बताया, ‘पक्षी देखना था, तो सुबह पांच बजे आते। अभी तो सब झाड़ियों में छुप गए होंगे।’ तब ग्यारह बज रहे थे। फिर भी हम हिम्मत हारने को तैयार नहीं थे। आगे बढ़ते गए। एक आदमी उल्टी दिशा से आता दिखा। उससे पूछा, “पक्षी कहां दिखेंगे? दिखेंगे भी या नहीं?” उसने बताया, “आगे जाकर दाएं मुड़ जाइए, जंगल है ... दिख जाएंगे।”

IMG_5790हम उनके बताए रास्ते पर बढ़ चले। शुद्ध, शांत, स्थिर प्राकृतिक वातावरण में चलने का अभूतपूर्व सुख तो मिल रहा था, लेकिन प्रवासी पक्षियों के न दिख पाने का दुख भी साथ-साथ चल रहा था। पक्षी तो मिल नहीं रहे थे, पानी में कमल दिखा हमने उसकी तस्वीर उतार ली। आगे बढ़े, तो सड़क की बाईं ओर किसी बड़े पक्षी का कंकाल मिला। बाहरी किसी व्यक्ति का काम तो यह होगा नहीं, शायद स्थानीय जीवों का दुस्साहस हो यह। ऊपर नज़रें उठाई तो देखा एक बड़े पेड़ की शाखा पर मधुमक्खियों ने अपना छाता बना रखा था। हमने इधर-उधर नज़रें दौड़ाई। तभी काफ़ी दूर पक्षियों का एक दल दिखा। हमने कैमरे को फोकस कर उनपर निशाना साधा और शटर दबाया। हमें लगा, हमारी तीर्थ-यात्रा सफल हुई। कुछ और दिखे जो पानी पर चहलकदमी कर रहे थे। वे भी हमारे कैमरे में क़ैद हुए।

कुछ ही दूर आगे बढ़ने पर देखा कि एक पक्षी रास्ते के किनारे बैठा है। दाईं ओर नज़र घुमाई तो एक और पक्षी दिखा जो तेज़ी से कभी ज़मीन पर, तो कभी पेड़ की शाखाओं पर उड़-उड़ कर बैठ रहा था। इतना तो हम संतुष्ट हुए कि पांच-छह प्रकार के प्रवासी पक्षियों के दर्शन हुए। यदि हम तड़के भोर में आते तो शायद अधिक देख पाते और क़रीब से देख पाते।

यह पक्षी विहार काफ़ी बड़ा है। इसके बीचों-बीच मेंएक बड़ी झील है। उसके चारों तरफ़ पैदल पथ बने हैं। जगह-जगह पर View Shed और Watch Tower बने हैं। सच मानिए अगर आप पक्षी-दर्शन के शौकीन हैं, तो यहां अवश्य पधारिये, धैर्य और लगन के साथ सारा दिन बिताइए, बड़े मनोरम, सुंदर, रंग-बिरंगे प्रवासी पक्षियों से आपकी मुलाक़ात होगी। स्थानीय जानकारों के अनुसार दिसम्बर का महीना इनके दर्शन के लिए उपयुक्त होता है।

इस पक्षी विहार में कई तरह के पक्षी आते हैं – जैसे – सीकपर (Northern Pintail), लालसर (Red-crested Pochard), चेता बत्तख (Garganey Teal), लाल सीर (Common Pochard), चमचा बाजा (Spoonbill Duck), नीलसर (Mallard), डुबडुबी (Little Grebe), अंधा बगला (Pond Heron), जामुनी जलमुर्गी (Purple Moorhen), गुगराल (Spot-billed Duck), नकटा (Comb Duck), छोटी सिल्ही (Lesser Whistling Teal), टिटीरी (Red-wattled Lapwing), गाय बगला (Cattle Egret), पटोखा बगला (Intermediate Egret), छोटा लालसर (Wigeon), ठेकारी (Common Coot), बेखुर बत्तख (Gadwall), जलपीपी (Bronze-winged Jacana), पिहो (Pheasant-tailed Jacana), छोटा पनकौवा (Indian Cormorant), अंजन (Grey Horn), नरी अंजन (Purple Heron), घोघिंल (Asian Openbill Stork), सारस (Sarus Crane), काला बाजा (Black-headed Ibis), लोहा सारस (Black-necked Stork), सवन (Bar-headed Goose), पनवा (Darter)।

इस पक्षी विहार की यात्रा से लैटते हुये, अशानुरूप संख्या में पक्षियों को न देख पाने का क्षोभ तो था ही, साथ ही यह बात भी मन को साल रही थी कि हम प्रकृति के प्रति ईमानदार नहीं हैं. हमने अपने चारों ओर प्रदूषण का एक सैलाब जमा कर रखा है. यह भी एक कारण है कि जिस सोच के साथ मैं पक्षियों के दर्शन के लिये गया था, वह अधूरा रहा। पर्यावरण के प्रति हमारे संकल्प सिर्फ़ दर्शनों और सिद्धांतों तक ही सीमित रह जाते हैं, व्यवहार में हम प्रकृति और प्रकृतवासी और उनके प्रकृतवास के प्रति काफ़ी क्रूर हैं। शायद इसी कारण से हमें पक्षी दिखे भी तो काफ़ी कम और जो दिखे वो भी बड़े डरे, सहमे से लग रहे थे।

भोले प्रवासी पक्षी तो शायद अगले महीने आएंगे ही, क्योंकि उनके अपने घर में संकट होगा, तो वे अपने लिए एक बेहतर वातावरण की तलाश में यहाँ चले ही आएंगे, लेकिन सबसे चिंताजनक बात, स्थानीय पक्षियों का भी न दिखाई देना है। हमें स्थानीय व प्रवासी पक्षियों की सुरक्षा एवं इनके प्राकृतवास के संरक्षण की दिशा में निरंतर गंभीरता से न सिर्फ़ सोचना बल्कि अनुपालन भी करना चाहिए।

“पर्यावरण संतुलन हेतु वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करें।”

***

तुम न जाने किस जहाँ में खो गये

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तुम न जाने किस जहाँ में खो गये

-सलिल वर्मा

दिल ढ़ूँढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन,

बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए!

चचा ग़ालिब और फिर उनके बाद चचा गुलज़ार, दोनों इसी शे’र के मार्फ़त समझा गये हैं कि ज़िन्दगी में चाहे सब-कुछ मिल जाए फ़ुर्सत मिलना मुश्किल है. और ऐसे में बस फ़ुर्सत के पुराने दिनों को याद करने और मन मसोस कर रह जाने के अलावा हाथ आता भी क्या है. इन फ़ैक्ट, कभी-कभी तो मुझे भी शक़ होता था कि जितनी आसानी से अनुज मनोज कुमार जी धड़ाधड़ फुर्सत मेंलिख लिया करते थे, उतनी फ़ुर्सत क्या वास्तव में मिल पाती होगी? और मिलती भी हो तो “तसव्वुरे जानाँ” या “दीदारे यार” से निजात पाकर पोस्ट लिख लेते होंगे? और आज पहली बार ब्लॉग देवता/देवी को हाज़िर नाज़िर जानकर कहता हूँ कि मनोज जी से जलन भी होती थी कि यार कहाँ से इन्होंने फ़ुर्सत की खदान का अलॉटमेण्ट हासिल किया है, एकाध टोकरी हमारे पास भी भिजवा देते तो कौन सा अकाल पड़ जाता.

अब पता नहीं देश में कौन सी ईमानदारी की बयार चली कि कोयला खदान पर छापे पड़ने लगे और हमारी बुरी नज़र लग गई कि जो मोहर हम यहाँ फुर्सत में लूटते थे, उनपर मनोज जी ने ताले लगवा दिये. एकाध लाइसेंसी पोस्ट दिखाई भी दी, लेकिन उसमें वो बात कहाँ. छुप-छुप के पीने का मज़ा कुछ और था. और ये मासिक वेतन जैसी पोस्टों से भला किसी की प्यास बुझी है, अरे इस ब्लॉग की असली पोस्टें तो वो हैं, जो ऊपरी आय की तरह बहती हुई नदी रही हैं. जो मुसाफ़िर आया उसकी प्यास बुझी.

और यही नहीं, इस नदिया के घाट अनेक, जहाँ से पियें, वही मिठास और वही तृप्ति. आचार्य परशुराम राय जीकी ‘शिवस्वरोदय’ एक ऐसी दुर्लभ श्रृंखला थी जिसे उन्होंने हमारे लिये सरल भाषा में उपलब्ध करवाया. यही नहीं काव्य-शास्त्र की कड़ियों में जिस सिलसिलेवार ढ़ंग से उन्होंने लिखा है वो ख़ास तौर मेरे लिये किसी क्लासरूम में बैठकर सीखने से कम नहीं था. बल्कि काव्यशास्त्र की जमात में बैठकर ही मैंने अपने बारे में जाना कि अहमक़ उन जगहों पर दरवाज़ा धकेलकर दाख़िल हो जाते हैं. जहाँ फ़रिश्ते भी पेशक़दमी से डरते हैं. आचार्य जी की आँचपर की गई ब्लॉग पर प्रकाशित कविताओं की समीक्षा अपने आप में एक मानदण्ड रही हैं. कोई उनकी समीक्षा से सहमत हो या न हो, वे अपनी तालीम और समझ से हमेशा सहमत रहे हैं. अब परशुराम हैं तो कठोर तो होंगे ही, किंतु कभी रिश्तों के नाम पर समझौता नहीं किया और अपने फ़ैसले को कभी किसी के दबाव में आकर नहीं बदला.

मेरा फोटोइसी कड़ी में एक और नाम है श्री हरीश चन्द्र गुप्तका. “आँच” पर इनकी समीक्षायें पैनी, गहरी, गम्भीर और साहित्यिक हुआ करती थीं. यह अलग बात है कि “मनोज” पर इस अल्प-विराम के पूर्व भी इन्होंने एक लम्बी छुट्टी ले रखी थी. इन्हें कम पढ़ने का मौक़ा मिला, लेकिन जो भी मिला वो एक सीखने जैसा तजुर्बा रहा. अगर कोई रचना हरीश जी की कलम की कसौटी पर परख ली जाए और उसे यदि ये अच्छा कहें तो कोई सन्देह नहीं कि वह रचना चौबीस कैरेट होगी.

मेरा फोटो“मनोज” पर एक और नियमित स्तम्भ रहा है देसिल बयना. ठेठ भाषा में कहें तो देसी कहावतें. कहावतें सिर्फ शब्दों को सजाकर एक निरर्थक से लगने वाले वाक्य का निर्माण नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक लम्बी दास्तान होती है, एक परम्परा और एक गुज़रे ज़माने की खुशबू. यह खुशबू लेकर आपके सामने लगातार आते रहे श्री करण समस्तीपुरी. इनके देसिल बयना को अगर तस्वीर के रूप में आपके सामने रखूँ तो बस यही कह सकता हूँ कि जहाँ बाकी सारे लेख, समीक्षाएँ और संस्मरण मॉडर्न पार्टी हैं, वहीं देसिल बयना ज़मीन बैठकर पत्तल में खाने का आनन्द. रेवाखण्ड की बोली में पगा, मिठास का वह पकवान, जिसे जो न खाए बस वो पछताए. व्यक्तिगत रूप से मैंने हमेशा करण जी से ईर्ष्या की है कि आंचलिक बोली में लिखने की बावजूद भी मैं उनकी मिठास तक कभी नहीं पहुँच पाया. फिर दिल को यह कहकर तसल्ली दे लेता हूँ कि राजधानी (पटना) और गाँव में फर्क तो होता ही है. गुलिस्तान के गुलाब और गुलदस्ते के गुलाब की ख़ुशबू भी जुदा होती है.

मेरा फोटोअंत में यदि मनोज कुमार जीका ज़िक्र न किया जाए तो मेरी पोस्ट ही अधूरी रह जायेगी. कोलकाता में बैठे हुए तू ना रुकेगा कभी, तू ना झुकेगा कभी वाले स्टाइल में एक मैराथन लेखन, बिना इस बात की परवाह किये कि कौन पढ़ता है कौन नहीं. हर आलेख एक सम्पूर्ण शोध के बाद और विषय पर पूरे अधिकार के साथ लिखा हुआ. कविता और कहानी, संस्मरण और साक्षात्कार, जीवनी और दर्शन किसी भी विषय को इन्होंने अनछुआ नहीं रखा. कई बार तो लगने लगता है कि साहित्य (विज्ञान भी) की विधाओं में शायद कोई भी पत्थर इन्होंने बिना पलटे नहीं छोड़ा. केवल साहित्य को ही नहीं समेटा इन्होंने, बल्कि रिश्तों को भी समेटा.. स्वयम कोलकाता में रहकर कानपुर, बेंगलुरू, दिल्ली जैसी जगहों से सम्पर्क बनाए रखा और आचार्य जी, गुप्त जी, करण जी और मुझे जोड़े रखा.

मैंने भी दुबारा ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया है. फ़ुरसत मिले न मिले, एकाकी जीवन (बाध्यता) ने इतना समय तो फिलहाल मुझे दिया है कि हफ्ते में एक पोस्ट लिख लेता हूँ. ऐसे में जब कभी उन पुरानी गलियों से गुज़रता हूँ तो एक अजीब सा सन्नाटा दिखाई देता है. आँखें फेरकर आगे बढ़ता हूँ तो लगता है कि कोई आवाज़ देकर बुला रहा है पीछे से. लेकिन पलटकर देखता हूँ तो वही ख़ामोशी. सर्दियाँ अपने शबाब पर हैं. तो फिर आइये रिश्तों की गरमाहट महसूस करें सम्बन्धों की “आँच” तापते हुये कविता-कहानी सुने-सुनायें और याद करें अपनी जड़ों को जहाँ न जाने कितना देसिल बयना आपका बाट जोह रहा है.

आज के दिन तो एक सफ़ेद बालों वाला और लाल कपड़ों वाला बाबा कन्धे पर बड़ा सा मोज़ा लिये तोहफ़े बाँटता फिरता है. आप सब लोगों से गुज़ारिश है. मेरे लिये सैण्टा बन जाइये और मुझे मेरा तोहफा दे ही डालिये. तभी तो होगी “मेरी क्रिसमस!!”

फुरसत में… 114 नालंदा के खंडहरों की सैर

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फुरसत में… 114

नालंदा के खंडहरों की सैर19102011(002)

मनोज कुमार

साल जाते-जाते बड़े  भाई ने दो आदेश किया।  एक कि इस ब्लॉग पर गतिविधि पुनः ज़ारी किया जाए। सो हाज़िर हूं … दूसरे ..

मेरे लिए नालंदा की यात्रा वैसे तो हमेशा विशेष ही होती है, इस बार तो और भी खास हो गई, जब इस बाबत Facebook पर Status Update लगाया तो बड़े भाई (सलिल वर्मा) का आदेश हुआ,

सलिल वर्मा Please take a full snap of ruins of Nalanda University and send me as New Year Greetings!!”

कई बार यात्रा कर चुके नालंदा को इस आदेश के तहत देखने की कोशिश, इस बार हमारी मजबूरी बन गई, नालंदा, जहां प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग 15 वीं शताब्दि में आया था। उसके अनुसार उस जमाने में यहां के लोग एक तालाब में “नालंदा” नामक नाग का निवास होना बताते थे। यही कारण है कि इस नगर का नाम नालंदा पड़ा।

19102011(022)भगवान बुद्ध के पुत्र सारिपुत्र का जन्म नालंदा के पास “नालक” गांव में हुआ था। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में उन्होंने इसी गांव में आकर अपनी मां को धर्मोपदेश दिया और निर्वाण प्राप्त किया। फलस्वरूप वह बौद्ध श्रद्धालुओं और उपासकों के लिए प्रमुख तीर्थ-स्थल हो गया। भगवान बुद्ध के बाद सबसे अधिक पूजा सारिपुत्र की ही होती है। इस महापुरुष का जन्म और निर्वाण एक ही स्थान पर होना श्रद्धा का विषय बना रहा। उनकी याद में इस जगह पर एक चैत्य का निर्माण हुआ। इस चैत्य के नज़दीक जो भिक्षु विहार बने वे बाद में अध्ययन के केन्द्र हो गए। देश के दूर-दराज के भागों से विद्यार्थी यहां आकर शिक्षा ग्रहण करते थे। पाल राजाओं ने नालंदा के निर्माण में महत्वपूर्ण निभाई।

पालि ग्रंथों में नालंदा शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है, “न अलं ददाती ति नालंदा”अर्थात्‌ वह जो प्रचुर दे सके। विडम्बना यह कि तुर्क आक्रमणकारी बख़्तियार ख़लजी ने अपने लूटपाट के अभियान के तहत सन 1199 में प्रचुर देने वाले नालंदा के इस विश्वविद्यालय में आग लगा दी। शिक्षा का यह महान केन्द्र जलकर खाक हो गया। आज तो सिर्फ़ वहां खंडहर बचे हैं और इन्हीं खंडहरों की तस्वीर अपने कैमरे में क़ैद कर लाने का मुझे आदेश मिला।

12022011(007)कैमरे की आंख से देखिए, इन भग्नावशेषों की दीवालों की 6 से 12 फीट की मोटाई यह साबित करती है कि विहारों की ऊंचाई काफ़ी रही होगी। साथ ही भवन भी विशाल रहे होंगे। ऊंचे भवनों तक पहुंचने के लिए चौड़ी और पक्की सीढियों के अवशेष आज भी विद्यमान है। ह्वेनसांग और बाद के दिनों में आए चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार यहाँ 8 भव्य विहार थे। इन महाविहारों से लगे हुए चैत्य और स्तूपों का निर्माण हुआ था। हीनयान और महायान के लिए 108 मंदिरों का निर्माण हुआ। पूरा विद्यालय एक ऊंचे प्राचीर से घिरा था।

ह्वेनसांग ने ज़िक्र किया है कि इसमें प्रवेश करने के लिए एक विशाल दरवाज़ा था। उसके बाहर खड़े द्वारपाल भी काफ़ी विद्वान होते थे। जो विद्यार्थी यहां प्रवेश पाना चाहते थे, उनकी परीक्षा ये द्वारपाल लिया करते थे, और योग्य उम्मीदवारों को ही चुना जाता था। 10 में से सिर्फ़ एक या दो विद्यार्थी ही विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार के भीतर जा पाते थे!

19102011(012)विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। आस-पास के क़रीब 100 गांवों द्वारा इसके खर्च की व्यवस्था की जाती थी। इत्सिंग ने तो 200 गांवों की बात कही है। इस विश्वविद्यालय में उन दिनों 10,000 विद्यार्थी 1500 आचार्यगण से शिक्षा ग्रहण करते थे। अर्थात प्रत्येक सात विद्यार्थी पर औसतन एक शिक्षक!

बौद्ध धर्म, दर्शन, कला, इतिहास, आदि के साथ आयुर्वेद, विज्ञान, कला, वेद, हेतु विद्या (Logic) शब्द विद्या (Philology) चिकित्सा विद्या, ज्योतिष, अथर्ववेद तथा सांख्य, दण्डनीति, पाणीनीय संस्कृत व्याकरण की शिक्षा की व्यवस्था थी।

12022011(003)नालंदा जाएं और राजगीर की चर्चा न हो ऐसा कैसे हो सकता है? प्राचीन समय से बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ-स्थल राजगीर पांच पहाड़ियों, वैराभगिरी, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी और स्वर्णगिरी से घिरी एक हरी भरी घाटी में स्थित है। इस नगरी में पत्थरों को काटकर बनाई गई अनेक गुफ़ाएं हैं जो प्राचीन काल के जड़वादी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर अनेक दार्शनिकों की आवास स्थली रही हैं। प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की राजधानी रही है। ऐसा माना जाता है कि पौराणिक राजा वसु, जो ब्रह्मा के पुत्र कहलाये जाते हैं, ही इस नगर के प्रतिष्ठाता थे।

18102011(013)राजगीर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है जरासंध का अखाड़ाहै। इसे जरासंध की रणभूमि भी कहा जाता है। यह महाभारत काल में बनाई गई जगह है। यहां पर भीमसेन और जरासंघ के बीच कई दिनों तक मल्ल्युद्ध हुआ था। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी। कुश्ती के शौकीन लोग यहां से भारी मात्रा में मिट्टी ले जाने लगे। अब यहां उस तरह की मिट्टी नहीं दिखती। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके बारे में लोगों का कहना है कि वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं।

राजगीर सिर्फ़ बुद्ध एवं उनके जीवन से संबंधित अनेक घटनाओं के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, यह स्थल जैन धर्मावलम्बियों के लिए भी समान रूप से प्रसिद्ध है। अन्तिम जीन महावीर ने अपने 32 वर्ष के सन्यासी जीवन का 14 वर्ष राजगीर और उसके आसपास ही बिताया था। जैनों ने भी बिम्बिसार और अजातशत्रु को अपने धर्म के समर्थक के रूप में दावा किया है। राजगीर में ही 20 वें तीर्थंकर मुनि सुव्रत नाथ का जन्म हुआ था। महावीर के 11 प्रमुख शिष्य/गण्धर की मृत्यु राजगीर के एक पहाड़ के शिखर पर हुई।

रज्जूपथ से राजगीर के विश्वशांति स्तूप की यात्रा भी काफ़ी रोमांचकारी होता है। थोड़ा भय, थोड़ा कुतूहल मिश्रित आनंद देते हैं।

ध्यान में लगे लोगों को तो नालंदा के खंडहरों के प्रांगण में भी देखा था, लेकिन विश्वशांति स्तूप में कुछ अलग ही अनुभूति हुई और हम भी ध्यान में जाने की सोची। … और देखा एक वृक्ष जिसे देख कर लगा कि निर्वण किसे कहते हैं? लेकिन इनको देख कर लगा कि ये किस ओर ध्यानस्थ हैं?12022011(002)

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