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रघुवीर सहाय- नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवि

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30 दिसंबर पुण्य तिथि पर

नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक श्री रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसम्बर, 1929 को लखनऊ के मॉडल हाउस मुहल्ले में एक शिक्षित मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री हरदेव सहाय लखनऊ के बॉय एंग्लो बंगाली स्कूल में साहित्य के अध्यापक थे। दो वर्ष की उम्र में मां श्रीमती तारा सहाय की ममता से वंचित हो चुके रघुवीर की शिक्षा-दीक्षा लखनऊ में ही हुई थी। 1951 में इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। 16-17 साल की उम्र से ही ये कविताएं लिखने लगे, जो ‘आजकल’, ‘प्रतीक’ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही। 1949 में इन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ में प्रकाशन के लिए अपनी कविताएं अज्ञेय को दे दी थीं जो 1951 में प्रकाशित हुईं। एम.ए. करने के बाद 1951 में ये अज्ञेय द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ में सहायक संपादक के रूप में कार्य करने दिल्ली आ गए। प्रतीक के बंद हो जाने के बाद इन्होने आकाशवाणी दिल्ली के समाचार विभाग में उप-संपादक का कार्य-भार संभाला। 1957 में आकाशवाणी से त्याग-पत्र देकर इन्होंने मुक्त लेखन शुरू कर दिया। इसी वर्ष इनकी ‘हमारी हिंदी’ शीर्षक कविता जो ‘युग-चेतना’ में छपी थी को लेकर काफ़ी बवाल मचा। 1959 में फिर से आकाशवाणी से तीन साल के लिए जुड़े। वहां से मुक्त होने के बाद वे ‘नवभारत टाइम्स’ के विशेष संवाददाता बने। वहां से ये ‘दिनमान’ के समाचार संपादक बने। अज्ञेय के त्याग-पत्र देने के बाद वे 1970 में ‘दिनमान’ के संपादक बने। व्यवस्था विरोधी लेखों के कारण 1982 में वे ‘दिनमान’ से ‘नवभारत टाइम्स’ में स्थानांतरित कर दिए गए। किंतु इस स्थानांतरण से असंतुष्ट होकर उन्होंने 1983 में त्याग-पत्र दे दिया और पुनः स्वतंत्र लेखन करने लगे। 30 दिसंबर 1990 को उनका निधन हुआ था।

रचनाएं :

कविता संग्रह : सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध, हंसो-हंसो जल्दी हंसो, लोग भूल गए हैं, कुछ अते और कुछ चिट्ठियां

कहानी संग्रह : रास्ता इधर से है, जो आदमी हम बना रहे हैं

निबंध संग्रह : लिखने का कारण, ऊबे हुए सुखी, वे और नहीं होंगे जो मारे जाएंगे, भंवर लहरें और तरंग, शब्द शक्ति, यथार्थ यथास्थिति नहीं।

अनुवाद : मेकबेथ और ट्रेवेल्थ नाइट, आदि।

रघुवीर सहाय की विचारधारात्मक दृष्टि

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो नयी काव्य-धारा उभरकर सामने आई उसमें रचनाकारों का एक समुदाय लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उदासीन था और वह राजनीति-विरोधी होता गया। उस प्रयोगवाद और नयी कविता की संधि के लगभग एकमात्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि रघुवीर सहाय ही थे, जिन्होंने अपनी जनतांत्रिक संवेदनशीलता को क़ायम रखा। नयी कविता के बाद की युवा विद्रोही कविता का मुहावरा बनानेवालों में भी वे अग्रणी कवि हैं। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’काव्य संग्रह के द्वारा उन्होंने प्रतिपक्षधर्मी समकालीन कविता को राजनीतिक अर्थमयता और मानवीय तात्कालिकता प्रदान की। वे ‘शिल्प क्रीड़ा कौतुक’ का उपयोग कर रोमांटिक गंभीरता को छिन्न-भिन्न करके नये अर्थ संगठन को जन्म देते हैं, जो जीवन की विडम्बनापूर्ण त्रासदी को प्रत्यक्ष करता है।

देखो वृक्ष को देखो कुछ कर रहा है

किताबी होगा वह कवि जो कहेगा

हाय पत्ता झर रहा है।

पतझर में नयी रचना का संकेत उत्पीड़ित-शोषित जीवन में नए बदलाव को भी संकेतित करता है। उनकी कविता में विचार-वस्तु अपनी विविधता में और वैचारिक स्पष्टता में सत्य बनकर उभरती है। उनका मानना था कि विचारवस्तु का कविता में ख़ून की तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों। उन्होंने कविता की विचारवस्तु को अपने समय और समाज के यथार्थ से तो जोड़ा ही, वे अपने समय के आर-पार देखपाने में समर्थ हुए। वे मानते हैं कि वर्तमान को सर्जना का विषय बनाने के लिए ज़रूरी है कि रचनाकार वर्तमान से मुक्त हो। वर्तमान की सही व्याख्या कर भविष्य का एक स्वप्न दिखा जिसे साकार किया जा सकता हो। सभी लुजलुजे हैं में कहते हैं -

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्‍नाते हैं

चुल्‍लु में उल्‍लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं

झांय झांय करते है, रिरियाते हैं,

टांय टांय करते हैं, हिनहिनाते हैं

गरजते हैं, घिघियाते हैं

ठीक वक़्त पर चीं बोल जाते हैं

सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल है, लिब लिब हैं,

पिलपिल हैं,

सबमें पोल है, सब में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।

शोषक वर्ग की चालबाज़ियों को उन्होंने बख़ूबी नंगा किया और दया, सहानुभूति और करुणा जैसे भावों में नाबराबरी और अभिजात्यवादी अहं की गंध महसूस की। मनुष्य और मनुष्य के बीच समानता और सामाजिक न्याय उनके रचनाकर्म का लक्ष्य रहा। नारी के प्रति भी उनका दृष्टिकोण समता का रहा। उनका मानना था कि लोगों के जागते रहने की एक तरकीब यह है कि लोग वास्तविक जनजीवन के विकासोन्मुख तत्वों से अपने को सक्रिय संबंद्ध रखें। उन्होंने मध्यवर्गीय समाज को यह अहसास दिलाया कि अधिनायकवादी ताक़तों का मुक़ाबला संगठित होकर ही किया जा सकता है।

नयी कविता के अन्य कवियों की भांति, रघुवीर सहाय ने प्रतीकों, बिम्बों और मिथकों का सहारा बहुत कम लिया है। इन्होंने बोलचाल की भाषा के साधारण शब्दों का प्रयोग अधिक किया है, जिसे डॉ. नामवर सिंह ‘असाधारण साधारणता’ कहते हैं। भाषा में सहज प्रवाह उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। सहाय जी की भाषा, आधुनिक हिन्दी के काव्य की दृष्टि से सफल और एक अलग स्वाद रखती है। न्याय और बराबरी के आदर्श को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कवि सहाय ने अपनी चेतना में आत्मसात किया। हमने देखाशीर्षक कविता में कहते हैं,

जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम

हैं ख़ास ढ़ंग दुख से ऊपर उठने का

है ख़ास तरह की उनकी अपनी तिकड़म

हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं

हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे

वे झूठे हैं लेकिन सब से अच्छे हैं

रघुवीर सहाय उस काव्यतत्व का अन्वेषण करने पर अधिक ज़ोर देते थे जो कला की सौंदर्य परम्परा को आगे बढाता है। उनकी शुरु की कविताओं में भाषा के साथ एक खिलंदड़ापन मिलता है जो संवेदना के साथ बाद में काव्यगत विडंबना के लिए काम आता है। उनकी एक मशहूर कविता दुनियाकी भाषा में यही क्रीड़ाभाव देखा जा सकता है,

लोग या तो कृपा करते हैं या ख़ुशामद करते हैं

लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुग़ली खाते हैं

लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं

लोग या तो पश्चात्ताप करते हैं या घिघियाते हैं

न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है

न कोई हंसता है न कोई रोता है

न कोई प्यार करता है न कोई नफ़रत

लोग या तो दया करते हैं या घमण्ड

दुनिया एक फंफुदियायी हुई सी चीज़ हो गयी है।

इसी तरह के भाषिक खिलंदड़ेपन की एक और कविता है जो मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में है, सभी लुजलुजे हैंजिसमें ऐसे चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्त हुए हों,

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्नाते हैं

चुल्लु में उल्लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ रहते हैं, बुत्ता दे जाते हैं।

भाषा का यह खेल उनकी काव्य यात्रा में गंभीर होते हुए अपने जीवन की बात करते-करते एक और जीवन की बात करने लगता है, कवितामेरा एक जीवन हैमें,

मेरा एक जीवन है

उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं

उसमें मेरा कोई अन्यतम भी है:

पर मेरा एक और जीवन है

जिसमें मैं अकेला हूं

जिस नगर के गलियारों फुटपाथों मैदानों में घूमा हूं

हंसा-खेला हूं

.....

पर इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूं

सहाय जी हाहाहूती नगरीजैसे भाषिक प्रयोग से पूरी पूंजीवादी सभ्यता की चीखपुकार व्यक्त कर देते हैं, इसकी गलाकाट स्पर्धा का पर्दाफ़ाश कर देते हैं। कविता के अंत में वो कहते हैं,

पर मैं फिर भी जिऊंगा

इसी नगरी में रहूंगा

रूखी रोटी खाऊंगा और ठंडा पानी पियूंगा

क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूं।

सहाय जी की भाषा संबंधी अन्वेषण के बारे में महेश आलोक के शब्दों में कहें तो, सहाय निरन्तर शब्दों की रचनात्मक गरमाहट, खरोंच और उसकी आंच को उत्सवधर्मी होने से बचाते हैं और लगभग कविता के लिए अनुपयुक्त हो गये शब्दों की अर्थ सघनता को बहुत हल्के से खोलते हुए एक खास किस्म के गद्यात्मक तेवर को रिटौरिकल मुहावरे में तब्दील कर देते हैं।

उनकी कविताओं में लय का एक खास स्थान हमेशा रहा। उनके लय के संबंध में दृष्टि उनके इस कथन से मिलती है, आधुनिक कविता में संसार के नये संगीत का विशेष स्थान है और वह आधुनिक संवेदना का आवश्यक अंग है।

भक्ति है यहकविता उदाहरण के तौर पर लेते हैं,

भक्ति है यह

ईश-गुण-गायन नहीं है

यह व्यथा है

यह नहीं दुख की कथा है

यह हमारा कर्म है, कृति है

यही निष्कृति नहीं है

यह हमारा गर्व है

यह साधना है साध्य विनती है।

रघुवीर सहाय की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा है। पर इसी सहजपन में यह जीवन के यथार्थ को, उसके कटु एवं तिक्त अनुभव को पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है। साथ ही यह देख कर आश्चर्य होता है कि अनेक कविताएं पारंपरिक छंदों के नये उपयोग से निर्मित हैं। साठोत्तरी दशक के हिंदी कवियों में रघुवीर सहाय ऐसे कवि हैं, जिन्होंने बड़ी सजगता और ईमानदारी से अपने काव्य में भाषा का प्रयोग किया है। वे जनता और उसकी समस्याओं से सम्बद्ध कवि हैं। उनका उद्देश्य अपने समय की विद्रूपता और विसंगतियों को उद्घाटित करना रहा है। वे विद्रूपता और विसंगतियों का चित्रण इस प्रकार करते हैं कि लोक-चेतना जागृत हो। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से न सिर्फ़ आज की सामंती-बुर्जुआ-पूंजीवादी व्यवस्था को, जो लोकतंत्र के नाम पर सत्ता हड़पने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है, बल्कि जिसके उत्पीड़न-शोषण, अन्याय-अत्याचार के कारण संपूर्ण समाज में दहशत और आतंक छा गया है, को नंगा करते हैं।

***


फ़ुरसत में ... 115 एक अलग तस्वीर - 2014 में ...?

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फ़ुरसत में ... 115

एक अलग तस्वीर - 2014में ...?

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मनोज कुमार

आजकल इलेक्ट्रॉनिक और अन्य मीडिया में बहस छिड़ी हुई है कि दिल्ली से, केन्द्र नहीं राज्य  सरकार द्वारा, जो संकेत दिए जा रहे हैं, वे कहीं ‘रामलीला नाटक’ की तरह तो नहीं हैं? हर दल उसे आशंका की नज़र से देखते हुए ‘नाटक’ और सिर्फ नाटक करार देने पर आमादा है। अपने-अपने दलों से लोग इतिहास और वर्तमान को खंगालकर ऐसे कई प्रतीक-पुरुष/महिला को सामने ला रहे हैं जिन्होंने ‘कॉमन मैन’ की ज़िन्दगी जीने की राह अपनाई। अहंकार, पदलोलुपता और शान-ओ-शौकत का पर्याय बन चुकी राजनीति में ऐसे सांकेतिक बदलाव और कुछ दे रहे हों या नहीं, एक सुखद अहसास तो दे ही रहे हैं। आशंका की चादर कितनी भी मोटी क्यों न हो, एक विश्वास की किरण तो उसे चीरती हुई आगे बढ़ ही रही है कि चलो यह एक शुरूआत ही सही, अच्छी बात, शुभ संकेत है।

मुझे सत्तर के दशक का एक वाकया शेयर करने का मन हो रहा है। एक आंदोलन के बाद नया जनादेश आया था और एक नई पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनी थी। जेल में बंद किए गए एक नेता हमारे शहर से लोकसभा के प्रत्याशी थे। भारी बहुमत से जनता ने उन्हें विजयी बनाया। वे देश के सूचना-प्रसारण मंत्री और उद्योग मंत्री बने। उस शहर को उन्होंने दूरदर्शन केन्द्र, थर्मल पावर और आईडीपीएल जैसी संस्थान दिए।

उस दिग्गज एवं कद्दावर नेता की एक आम सभा हो रही थी। सभा में उन्होंने अपने क्षेत्र के हर ‘कॉमन मैन’ को यह आश्वासन दिया कि जब भी किसी का दिल्ली आना हो वे उनके आवास पर सादर आमंत्रित हैं! उन्होंने यह भी कहा, “हम आपका ख़्याल रखेंगे।“ उन दिनों मैं कॉलेज का विद्यार्थी हुआ करता था और एक प्रतियोगिता परीक्षा के सिलसिले में एक-दो सप्ताह बाद ही मुझे दिल्ली जाना था। मैं उनकी बात से अत्यंत प्रभावित हुआ, लेकिन उनका अता-पता तो मुझे मालूम था नहीं। सोचा उनसे ही क्यों नहीं पूछ लिया जाए। उनका भाषण समाप्त हो चुका था। धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता चल रही थी। मैं सीधे मंच पर चढ़ गया। ऐसी कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं थी कि एक ‘कॉमन मैन’ मंच तक न पहुंच पाए। इक्का-दुक्का लाल टोपी वाले हाथ में डंडा लिए यहां-वहां खड़े थे। किंतु बिना किसी बाधा के मैं उन तक पहुंच गया और अपनी मंशा उन्हें बताई। अपनी क़लम और क़ागज़ का टुकड़ा उन्हें दिया और कहा – ‘अपना पता दीजिए, मैं आऊंगा।’ उन्होंने अपना नाम और ’21 – विलिंगडन क्रिसेंट, नई दिल्ली’ लिखकर दे दिया।

दो सप्ताह बाद मैं उनके उस सरकारी आवास के सामने खड़ा था। द्वार पर न कोई ताम-झाम, न कोई अंतरी-संतरी की फ़ौज! जो भी सुरक्षा-कर्मी रहा होगा उसने एक-आध औपचारिक प्रश्न किए और जब अपने शहर का नाम मैंने उसे बताया, तो आगे का मेरा प्रवेश बाधा रहित हो गया। उनके दर्शन हुए। वे प्रसन्न दिखे। मेरे रहने की व्यवस्था कर दी गई। पूरा आदर-सम्मान मिला।

न जाने क्यों आज के परिप्रेक्ष्य में यह घटना मुझे याद आ गई। जब इसे देखता हूं और आज के बारे में सोचता हूँ तो मन में एक कसक सी उठती है। यह ठीक है कि जिसे नौटंकी कहा जा रहा है वह राजनीति की दिशा बदलेगा या नहीं – यह प्रश्न भविष्य के गर्त में है, लेकिन बेहतरी की दिशा में एक कदम तो है ही। लालबत्ती और सुरक्षा का घेरा इतना महत्वपूर्ण क्यों मान लिया गया? या कब यह सुरक्षा व्यवस्था की सीमा लाँघकर स्टेटस सिम्बल बन गया। और अब इन लावलश्कर को त्यागने का साहस ‘कॉमन मैन’ के नुमाइंदे, करने से क्यों कतराते हैं?

राजनीति सेवा का माध्यम है या शासन करने का? यदि सेवा है, तो सुविधाभोगी होकर किया जाना चाहिए या ‘कॉमन मैन’ के बीच उसके जैसा रहकर उनकी तरह जीवन-यापन करते हुए? ‘जनसेवक’ शब्द सुनने में सुनने में अच्छा लगता है, उस तरह का व्यवहार भी देखने को मिले तो और अच्छा लगेगा। जो बदलाव की शुरूआत हुई है वह और आगे बढ़े – ऐसी कामना करने में हर्ज़ क्या है? देश का ‘कॉमन मैन’ बदलाव चाहता है, यह तो अब तक ‘खास लोगों’ को समझ में आ ही गया होगा।

नए साल की शुरूआत कल से होने वाली है। फिर शुरू होगी एक राजनीतिक घमासान भी, तो क्या 2014 में हमें एक बिल्कुल अलग तस्वीर देखने को मिलेगी? 9149_a

हैप्पी न्यू यीअर है!

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हैप्पी न्यू यीअर है!

- केशव कर्ण

 

हैप्पी न्यू यीअर है!

हैप्पी न्यू यीअर है!!

राइवल को पीअर को,

नियर और डियर को,

लाइफ़ में चीअर को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

गाँवों की गलियों को,

फ़ूलों को, कलियों को,

निर्बल को, बलियों को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

पनघट, अमराई को,

गुड़ की मिठाई को

दादी की चटाई को,

हैप्पी न्यू यीअर है!

 

मंगल के हटिया को,

चौक को, चौबटिया को,

दादाजी की खटिया को,

हैप्पी न्यू यीअर है!

 

मैय्या को, ताई को,

दीदी, भौजाई को,

छोटे-बड़े भाई को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

बाबा को चच्चों को,

बूढ़ों और बच्चों को,

झूठों को, सच्चों को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

दीया और बाती को,

जीवन के साथी को,

पुरखों की थाती को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

गाँव के चौपाल को,

सास-सासुराल को,

ससुरे के माल को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

हँसते हुए बचपन को,

मदमाते यौवन को,

मानव के जीवन को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

सागर के लहरों को,

पर्वत के शिखरों को,

बिछड़े हुए मित्रों को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

लाइफ़-स्टाइल को,

महँगे मोबाइल को,

होंठों के स्माइल को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

शहर के उजालों को,

देश को घोटालों को,

मदिरा के प्यालों को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

देश के विकास को,

मिडिया के बकवास को,

जनता के विश्वास को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

मनमोहनी बाई को,

नेशनल जमाई को,

बढ़ती मँहगाई को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

हारे हुए काँग्रेस को,

ठहरे हुए प्रोग्रेस को,

नई-नई एक्ट्रेस को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

फ़िल्मों के हीरो को,

सिब्बल के ज़ीरो को,

सेना के वीरों को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

जयपुर में सिंधिया को,

माथे की बिंदिया को,

रात्रि में निन्दिया को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

भारत में नामो को,

आफ़िस में कामो को,

हाशिये पे बामो को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

होनी-अनहोनी को,

हीरो-हीरोनी को,

एमएस धोनी को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

गंगा के पानी को,

इटली की रानी को,

एल के अडवानी को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

रजनी को, गजनी को,

साजन की सजनी को,

लीट्टी और चटनी को,

हैप्पी न्यू यीअर है!

 

कश्मीर घाटी को,

आम आदमी पाटी को,

लालू की लाठी को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

शिमला के एप्पल को,

कोल्हापुरी चप्पल को,

यहाँ सभी कपल को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

कर्णाटक राज को,

सज्जन समाज को,

कल और आज को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

बंगलोर सिटी को,

नेचुरल ब्यूटी को,

आई टी की ड्यूटी को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

यारों के यार को,

घर परिवार को,

यूपी बिहार को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

इंडिया के नेवर को,

यू.एस के तेवर को,

इनकम-टैक्स पेयर को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

नेता बेचारे को,

आप के सितारे को,

अन्ना हजारे को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

मंदिर को मस्जिद को,

मुल्ला को पंडित को,

भारत-अखंडित को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

 

महीने के रेशन को,

माडर्न फ़ैशन को,

और पूरे नेशन को,

हैप्पी न्यू यीअर है!!

फ़ुरसत में … 116 : जरासंध वध

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फ़ुरसत में … 116

जरासंध वध

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पिछले दिनों हम राजगीर गए थे। कई जगहों के दर्शन हुए।राजगीर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है जरासंध का अखाड़ाहै। इसे जरासंध की रणभूमि भी कहा जाता है। यह महाभारत काल में बनाई गई जगह है। यहां पर भीमसेन और जरासंघ के बीच कई दिनों तक मल्ल्युद्ध हुआ था। कभी इस रणभूमि की मिट्टी महीन और सफ़ेद रंग की थी। कुश्ती के शौकीन लोग यहां से भारी मात्रा में मिट्टी ले जाने लगे। अब यहां उस तरह की मिट्टी नहीं दिखती। पत्थरों पर दो समानान्तर रेखाओं के निशान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके बारे में लोगों का कहना है कि वे भगवान श्री कृष्ण के रथ के पहियों के निशान हैं। इस जगह ने मुझे जरासंध के बारे में थोड़ा विस्तार से जानने के लिए प्रेरित किया। सोचा आज फ़ुरसत में आपसे शेयर कर ही लूं।

प्राचीन समय से बौद्ध, जैन, हिन्दू और मुस्लिम तीर्थ-स्थल राजगीर पांच पहाड़ियों, वैराभगिरी, विपुलाचल, रत्नगिरी, उदयगिरी और स्वर्णगिरी से घिरी एक हरी भरी घाटी में स्थित है। बिहार की राजधानी पटनासे लगभग 100 कि.मी. की दूरी पर स्थित इस नगरी में पत्थरों को काटकर बनाई गई अनेक गुफ़ाएं हैं जो प्राचीन काल के जड़वादी चार्वाक दार्शनिकों से लेकर अनेक दार्शनिकों की आवास स्थली रही हैं। प्राचीन काल में यह मगध साम्राज्य की राजधानी रही है। प्राचीन काल में इसे कई नामों से जाना जाता था। “रामायण” में इसका नाम “वसुमती”बताया गया है। इसका संबंध पौराणिक राजा वसु से है जो ब्रह्मा के पुत्र कहलाये जाते हैं।

रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने “गिरिव्रज”नगर की स्थापना की। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले वृहद्रथ ने इस पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया। वृहद्रथ काफ़ी वीर और बली था। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। काशिराज की जुड़वा बेटियों से उसका विवाह हुआ था। उसने अपनी दोनों पत्नियों को वचन दे रखा था कि वह दोनों में से किसी के साथ पक्षपात नहीं करेगा। यानी दोनों को बराबरी का दर्ज़ा देगा।

बृहद्ररथ को कोई संतान नहीं हुई। वृद्धावस्था आ चली थी। वह काफ़ी निराश हो चला था। सांसारिक जीवन में उसे कोई रुचि नहीं रह गई थी। उसने अपना राजपाट अपने मंत्रियों के हवाले कर दिया। अपनी पत्नियों के साथ वह वन में चला गया और एक आश्रम में रह कर तपस्या करने लगा। एक दिन उसके आश्रम में चण्डकौशिक मुनि पधारे। वे महर्षि गौतम के वंशज थे। उनका वृहद्रथ ने काफ़ी स्वागत-सत्कार किया। अपनी आवभगत से प्रसन्न होकर मुनि ने राजा को वर मांगने को कहा। राजा ने कहा, “मैं बहुत ही अभागा इंसान हूं। जब पुत्र ही नहीं हुआ तो और क्या आपसे मांगूं?”

यह सुन मुनि को राजा पर दया आई। उन्होंने राजा की समस्या के हल के लिए आम के एक वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान लगाया। थोड़ी देर में उनकी गोद में एक पका हुआ आम गिरा। मुनि ने उसे राजा को दिया और कहा कि इसे अपनी पत्नियों को खिला दे। दोनों पत्नियों में से किसी के प्रति पक्षपात न करने का वचन दे चुके राजा ने उसके दो टुकड़े कर दोनों रानियों को खिला दिया। रानियां गर्भवती हुईं। राजा के ख़ुशी का ठिकाना न रहा। रानियां हर्षित हुईं। लेकिन जब उनके बच्चे पैदा हुए तो दोनों को घोर निराशा हुई। उनके बच्चे का शरीर आधा था। यानी एक के केवल एक हाथ, एक आंख, एक पैर,आदि। उसे देख कर ही घृणा होती थी। यह तो मांसका पिंड था, जिसमें जान थी। उस पिंड को उन्होंने दाइयों के हवाले किया और कहा कि इसे फेंक दिया जाय। दाइयों ने उसे कूड़े के ढ़ेर पर फेंक दिया।

कुछ देर के बाद उधर से एक जरा नामक राक्षसी गुज़र रही थी। वह इंसानों के मांस खाती थी। उसने कूड़े के ढ़ेर पर जब मांस के टुकड़े को देखा तो फूली न समाई। खाने के लिए उसने ज्यों ही मांस के दोनों पिंडों को उठाया तो वे आपस में जुड़ गए और एक सुन्दर बचा बन गया। यह तो चमत्कार हो गया। सुंदर दिखने वाले उस बच्चे पर उसका मन मोहित हो गया। उसने उसे मारना ठीक नहीं समझा। जरा राक्षसी ने एक सुन्दर युवती का वेश धारण किया और राजा बृहद्रथ के पास पहुंची। राजा को उस बच्चे को सौंपती हुई बोली कि यह आपका बच्चा है। राजा को ख़ुशी की सीमा नहीं रही। वह अपनी पत्नियों और बच्चे के साथ मगध वापस लौट आया और ख़ुशी-ख़ुशी राजकाज करने लगा।

मुनि चण्डकौशिक के वरदान के कारण बच्चा काफ़ी बलशाली हुआ लेकिन उसका शरीर चूंकि दो टुकड़ों के मिलने से बना था, इसलिए कभी भी अलग हो सकता था। वही बच्चा जरासंध के नाम से मशहूर हुआ। वह अपनी शक्ति के लिए प्रसिद्ध था। उसके जैसा बलशाली उन दिनों दूसरा कोई नहीं था। अथाह बल के कारण उसमें मद और गुरूर आना स्वाभाविक ही था। उसने आस-पास के कई राजाओं को पराजित कर अपने अधीनस्थ बना लिया था। जरासंध ने कृष्ण के मामा और मथुरा के राजा और महाराज उग्रसेन के लड़के कंस के साथ वैवाहिक संबंध क़ायम किया था। उससे जरासंध ने अपनी दोनों बेटियों अस्ति और प्राप्ति की शादी की थी। समय के साथ कंस को श्री कृष्ण ने उसके पापों की सज़ा देते हुए वध कर डाला। उसकी मृत्यु के बाद कंस की दोनों विधवा पत्नी, अस्ति और प्राप्ति अपने पिता जरासंध के घर पहुंची। दोनों रानियों ने कंस की मृत्यु और उसके बाद के हाल का विवरण अपने पिता को सुनाया। यह सब सुनकर मगधराज जरासंध शोकाकुल हो गया। उसने पृथ्वी को यदुवंशियों से रहित करने का निश्चय किया। उसने अपनी सेना के साथ मथुरा पर आक्रमण करने की योजना बनानी शुरू कर दी। उसने अपनी तेरह अक्षौहिणी सेना के साथ यदु राजाओं की राजधानी मथुरा पर आक्रमण कर दिया। जरासंध की विशाल सेना को देख मथुरावासी भय से व्याकुल हो गए। श्रीकृष्ण की सेना छोटी-सी थी। फिर भी श्रीकृष्ण और बलराम उसके समक्ष डट गए। दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हुआ। जरासंध के सभी सैनिकों का बध हो गया। श्रीकृष्ण ने जरासंध को मुक्त कर दिया। अपमानित होकर जरासंध लौट आया और फिर से श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए शक्ति एकत्र करने लगा। जरासंध ने मथुरा पर सत्रह बार आक्रमण किया, हर बार उसकी हार हुई। हर बार उसे अपमानित होना पड़ता, हर बार उसे बंदी बनाया जात और छोड़ दिया जाता।

कुछ समय बाद जरासंध ने तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर मथुरा पर फिर से आक्रमण कर दिया। श्रीकृष्ण इस अठारहवें आक्रमण से मथुरा की रक्षा करना चाहते थे। बार-बार के आक्रमण से मथुरावासी वैसे ही काफ़ी परेशान थे। सैनिकों के और अधिक बध को रोकने के लिए श्रीकृष्ण ने युद्ध किए बिना ही रणक्षेत्र छोड कर चल दिए। दरअसल जरासंध की विशाल सेना से वे तनिक भी भयभीत नहीं थे, वे तो एक साधारण मानव होने का अभिनय कर रहे थे। बिना कोई शस्त्र लिए वे रणक्षेत्र से पैदल चले गए। इसी लिए उन्हें रणछोड़ भी कहा जाता है। जरासंध ने सोचा कि श्रीकृष्ण और बलराम उसकी सैन्य शक्ति से भयभीत हो गए हैं। लेकिन श्रीकृष्ण की अनेक लीलाओं में से यह भी एक लीला थी।

पैदल चलते-चलते श्रीकॄष्ण और बलराम बहुत दूर चले आए। अपनी थकान को दूर करने एवं विश्राम हेतु वे एक काफ़ी ऊंचे पर्वत पर चढ़ गए। इस पर्वत पर लगातार वर्षा होती रहती थी, इसी लिए इस पर्वत को प्रवर्षण कहा जाता था। जरासंध जो उनका पीछा कर था ने सोचा कि दोनों भाई उससे डर कर पर्वत शिखर पर छिप गए हैं। उसने दोनों भाईयों को ढूंढ़ने की काफ़ी कोशिश की,किंतु उसे सफलता हाथ नहीं लगी। उसने शिखर के चारों ओर तेल डाल कर आग लगा दी। जब आग चारों ओर तेज़ी से फैलने लगी रो दोनों भाई पर्वत से काफ़ी दूर नीचे धरती पर कूद गए। वे जरासंध की आंखों से ओझल होकर सुरक्षित काफ़ी दूर निकल गए। जरासंध ने सोचा कि दोनों भाई जलकर भस्म हो गए। वह अपनी राजधानी मगध लौट आया। इधर श्री कृष्ण को मथुरा छोड़कर दूर द्वारका में जाकर रहना पड़ा।

उन दिनों इन्द्रप्रस्थ में पांडव राज कर रहे थे। उनका राज-काज अपनी न्यायप्रियता के मशहूर था। युधिष्ठिर के भाईयों की इच्छा हुई कि राजसूय यज्ञ कर सम्राट का पद धारण किया जाए। सलाह-मशवरा के लिए श्री कृष्ण को संदेश भेजा गया। संदेश पाकर श्री कृष्ण द्वारका से इन्द्रप्रस्थ पहुंचे। युधिष्ठिर को भरोसा था कि श्री कृष्ण सही सलाह देंगे। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और उनके भाईयों को बताया कि मगध के राजा जरासंध ने सभी राजाओं को जीतकर उन्हें उन्हें अपने वश में कर रखा है। चारो तरफ़ उसने अपनी धाक जमा रखी है। यहां तक कि शिशुपाल जैसे पराक्रमी राजा ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली है। अतः बिना जरासंध को रास्ते से हटाए सम्राट पद पाना दूर की बात है। आज तक जरासंध किसी से नहीं हारा है। उसके जीते-जी तो राजसूय यज्ञ सफल हो ही नहीं सकता। इसलिए उसको रास्ते से हटाना होगा, उसका वध करना होगा। साथ ही श्रीकृष्ण ने उन्हें आगाह किया कि राजा जरासंध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। उसकी शारीरिक शक्ति दस हज़ार हाथियों की शक्ति के समान है। अगर कोई व्यक्ति है जो इसे हर सकता है तो वह भीमसेन है, क्योंकि वह भी दस हज़ार हाथियों की शक्ति रखते हैं। हां, उसे सैन्य बल से हराना कठिन होगा, इसलिए हमें चालाकी से काम लेना होगा।

इधर युधिष्ठिर ठहरे न्याय-प्रिय और शान्तिप्रिय राजा। श्रीकृष्ण की बातें सुनकर युधिष्ठिर ने सम्राट बनने का विचार त्याग दिया। उनका मानना था कि जो पद मिल ही नहीं सकता उसके बारे में सोचना ही बेकार है। जब स्वयं श्रीकृष्ण ही उसके भय से मथुरा छोड़कर चले गए तो उस पराक्रमी के सामने उनकी ख़ुद की क्या हस्ती है। इतना विनम्र बनना और नरम रुख अख्तियार करना भीम को नहीं भाया। उसने कहा कि हमें प्रयास तो अवश्य ही करना चाहिए। हमें हाथ-पर-हाथ रखकर नहीं बैठना चाहिए। यह तो कायरों का गुण है। हमें कोई न कोई युक्ति निकालनी ही होगी। हमारे साथ श्री कृष्ण की नीति कुशलता है, मेरा बल है और अर्जुन का शौर्य है। यह सब मिल जाए तो मुझे पूरा भरोसा है कि हम जरासंध की शक्ति पर क़ाबू पा सकते हैं। अर्जुन ने भी भीम का समर्थन किया और कहा कि जिस काम को हम कर सकते हैं उसे हमें ज़रूर करना चाहिए। अंत में निश्चय हुआ कि जरासंध का वध करना उनका कर्तव्य है। किन्तु श्री कृष्ण ने उन्हें आगाह किया कि उसपर हमला करना बेकार है, उसे तो मल्ल युद्ध में ही हराया जा सकता है। राजा जरासंध ब्राह्मणों के प्रति समर्पित है और उनका अत्यन्त आदर करता है। वह ब्राह्मणों का कोई निवेदन अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए हमे ब्राह्मण के वेश में जरासंध के पास जाकर भिक्षा मांगनी चाहिए। और फिर भीमसेन को उसके साथ युद्ध में लगना चाहिए।

भीम, अर्जुन और श्रीकृष्ण ने एक साथ वेश बदल कर ब्राह्मण का रूप धारण किया। जब वे राजगृह में प्रवेश किए, तो उन्होंने ब्राह्मणों का वेश धारण किया हुआ था। उनके हाथ में कुश था। निःशस्त्र और वल्कल धारण किए अतिथि को ब्राह्मण समझ जरासंध ने उनका आदर के साथ स्वागत-सत्कार किया। जरासंध के स्वागत-सत्कार के जवाब में सिर्फ़ श्री कृष्ण ही बोले, भीम और अर्जुन चुप रहे। श्री कृष्ण ने बताया कि उनका मौन व्रत है जो आधी रात के बाद ही खुलेगा। जरासंध ने तीनों अतिथियों को यज्ञशाला में ठहराया और वापस अपने कहल में चला गया। जब आधी रात हुई तो वह अतिथियों से मिलने गया, तो वहां उसे यह देख कर ताज़्ज़ुब हुआ कि उनकी पीठ पर ऐसे चिन्ह हैं जो धनुष की डोरी से पड़ते हैं। धनुष उठाने की वजह से उनके कन्धों पर दबाव के निशान थे। उनके शरीर सुडौल थे। उसने दृढ़तापूर्वक निष्कर्ष निकाला कि ये तो ब्राह्मण नहीं है। उसने कहा तुम लोग तो ब्राह्मण नहीं दिखते, सच बताओ, कौन हो तुम लोग? इस पर सच बताते हुए उन लोगों ने कहा कि हम तुमसे द्वन्द्व युद्ध करने आए हैं। उन्होंने अपना परिचय भी दिया।

उन दिनों यह प्रथा थी कि किसी क्षत्रिय को कोई द्वन्द्व युद्ध के लिए चुनती देता तो उसए उसकी चुनौती स्वीकार करनी पड़ती थी। जरासंध ने उनका प्रस्ताव स्वीकार करते हुए कहा, “मूर्खों! यदि तुम मुझसे लड़ना चाहते हो तो मैं तुम्हारा निवेदन स्वीकार करता हूं। किंतु अर्जुन तो बच्चा है, इसलिये उससे लड़ने का सवाल ही नहीं है। और मैं जानता हूं कि तुम कायर हो। तुम मुझसे लड़ते समय घबड़ा जाते हो। मेरे डर से तुम मथुरा छोड़कर भाग गए। इसलिए मैं तुमसे युद्ध करने से इंकार करता हूं। जहां तक भीमसेन का प्रश्न है, तो मैं सोचता हूं कि मुझसे लड़ने के लिए वह उपयुक्त प्रतिस्पर्धी है।

अखाड़े में भीम और जरासंध के बीच कुश्ती शुरु हुआ। उनको देखकर ऐसा लगता था कि दो हाथी युद्ध कर रहे हैं। तेरह दिन तक लगातार दोनों में मल्ल युद्ध होता रहा। दुर्भाग्य से वे आपस में किसी को भी पराजित नहीं कर सके, क्योंकि दोनों इस कला में निपुण थे। चौदहवें दिन जरासंध थोड़ी देर के लिए अपनी थकान मिटाने के लिए रुका। यह देख श्री कृष्ण ने भीम को इशारे से समझाया। भीमसेन ने जरासंघ को उठाकर ज़ोर से चारो ओर घुमाया और ज़मीन पर पटक कर उसके दोनों पैर पकड़ कर बीच से चीर डाला। जरासंध को मरा हुआ समझ कर भीम अपनी जीत का उल्लास मना ही रहा था कि उसके चिरे हुए टुकड़े आपस में जुट गए और वह खड़ा होकर फिर से लड़ने लगा।जरासंध_वध

अब समस्या थी कि जरासंध को कैसे हराया जाए? श्री कृष्ण ने भीम को फिर इशारे में समझाया। उन्होंने एक तिनका उठाया। उसे बीच से चीरा। उन्होंने दायें हाथ के टुकड़े को बाईं ओर और बाएं हाथ के टुकड़े को दाईं ओर फेंक दिया। अब बात भीम को समझ में आ गई। उसने दुबारा जरासंध के शरीर को चीर डाला और दोनों हिस्सों को एक दूसरे के विपरीत दिशाओं में फेंक दिया। अब टुकड़े आपस में नहीं जुड़ सके। इस प्रकार उसने जरासंध को हराया और उसे मार डाला। बंदीगृह के सभी राजाओं को कैद से आज़ाद कर दिया गया। जरासंध के बेटे सहदेव को मगध की राजगद्दी पर बिठाकर वे इन्द्रप्रस्थ लौट आए।

समाप्त

हतनुर जलाशय के किंगफिशर

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हतनुर जलाशयकेकिंगफिशर

मनोज कुमार

जनवरी के दूसरे सप्ताह में महाराष्ट्र के जलगांव ज़िले के वरणगांव शहर जाना हुआ। पहुंचने पर मालूम हुआ कि वहां स्थित रक्षा मंत्रालय के उत्पादन ईकाई आयुध निर्माणी वरणगांव में एक औद्योगिक कर्मचारी श्री अनिल महाजन पक्षी प्रेमी हैं और वहां उनके संरक्षण हेतु एक ग़ैर सरकारी संगठन से जुड़े हैं। मैंने उनसे मिलने पर उनके सामने पक्षियों के दर्शन का प्रस्ताव रखा और वे फौरन तैयार हो गए। उनके साथ हम पहुंचे हतनुर जलाशय के पास। तवा नदी पर बने इस जलाशय में हजारों की संख्या में प्रवासी और स्थानीय पक्षी पाए जाते हैं। हरितिमा से आच्छादित  दलदल ज़मीन इस स्थल को पक्षियों के लिए उपयुक्त बनाते हैं।

किंगफिशर (किलकिला)

अत्यंत आकर्षक और ख़ूबसूरत किंगफिशर की भारत में नौ प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें स्मॉल ब्लू किंगफिशर और सफेद ब्रेस्टेड किंगफिशर अधिक जानी-पहचानी जाती हैं।

  1. PIED KINGFISHER – Ceryle rudis
  2. SMALL BLUE KINGFISHER - Alcedo atthis
  3. BLUE-EARED KINGFISHER – A. meninting
  4. ORIENTAL DWARF KINGFISHER – Ceyx erithacus
  5. STORK-BILLED KINGFISHER – Halcyon capensis
  6. RUDDY KINGFISHER – H. coromanda
  7. WHITE-BREASTED KINGFISHER – H. smyrnensis
  8. BLACK-CAPPED KINGFISHER – H. pileata
  9. COLLARED KINGFISHER - Todiramphus

किंगफ़िशर का स्थानीय नाम किलकिला या कौड़िल्ला है। बंगाल में इसे शंदाबुक मछरंगा कहा जाता है जबकि तमिल में इसे मीनकोट्टि कहते हैं। कन्नड़ में इसे राजामत्सी और उड़िया में माछरंका कहा जाता है। पंजाबी में बड्डा मछेरा जबकि असमिया में लाली माछ सोराई कहते हैं।

स्मॉल ब्लू किंगफिशर

1472944464e89cdc7799ffयह पूरे भारत में पाया जाता है। 18 से.मी. के आकार के इस पक्षी का आकार लगभग गौरेया जितना होता है। इसके शरीर का ऊपरी हिस्सा तथा पूंछ नीले-हरे या फ़िरोजी रंग का होता है। इसके सामने के धड़ वाला हिस्सा चाकलेटी-भूरा होता है। इसकी चोंच सीधी और मज़बूत नुकीली होती है। इस चोंच के साथ किंगफिशर के लिए मछली पकड़ना आसान होता है। इसकी पूंछ छोटी होती है। नर और मादा दिखने मे समान ही होते हैं। यह पक्षी आमतौर पर अकेला रहना पसंद करता है। ये पक्षी पानी के स्रोतों के पास दिखाई देता है। नदी, पोखर, तालाब, पानी से भरे गड्ढे, आदि के आस-पास के पेड़ों की डालों या तारों पर ये बैठे होते हैं और वहां से ये मछली या अन्य छोटे जलीय जन्तु टैडपोल, केकड़ा आदि पर निगाह जमाए रहते हैं। यह पानी के ऊपर तेजी से उड़ता है और चीं-चीं की आवाज़ निकालता है, फिर तेजी से अपने शिकार पर झपट्टा मारता है तथा उसे चोंच में दबाकर पेड़ की डाल आदि पर बैठकर खाता है।

स्मॉल ब्लू किंगफिशर मार्च-जून तक अपना घोंसला बनाता है। यह नदी के आस-पास के एकान्त गर्तों की ज़मीन खोद कर एक सुरंगनुमा घोंसला बनाता है। इसकी लम्बाई 50 से.मी. होती है। सुरंगनुमा घोंसले का आख़िरी भाग चौड़ा होता है और यहां अंडों को सुरक्षित रखा जाता है। ये एक बार में पांच से सात अंडे देते हैं। नर और मादा दोनों अंडों की देखभाल बारी बारी से करते हैं।

व्हाइट ब्रेस्टेड किंगफिशरहेलकायोन स्मिरनेनसिस – Halcyon smyrnensis

इनका आकार कबूतर और मैने के बीच का (28 से.मी.)होता है। चमकदार त्वचा वाले इस पक्षी की पीठ फिरोजी नीले रंग की होती है। इसका सिर, गर्दन और धड़ का निचला भाग चॉकलेटी भूरे रंग का होता है। इसके सामने वाली गर्दन के नीचे का हिस्सा सफेद होता है। इसकी चोंच लाल रंग की, मज़बूत, लम्बी और नुकीली होती है। इसका पैर लाल होता है। जब यह उड़ता है तो अंदर का सफेद हिस्सा स्पष्ट दिखाई देता है।

यह भी ज़्यादातर अकेले रहना और अकेले शिकार करना पसंद करता है। यह बाग-बगीचे, पेड़ों की बहुतायत वाले स्थानों और पानी के आस-पास या बिना पानी के जगहों पर भी पाया जाता है। भारत के सभी समतल मैदानी इलाकों और कम ऊंचाई वाले पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जता है। यह बहुत अधिक पानी पर निर्भर नहीं करता। पोल के ऊपर तारों पर हम इसे बैठा हुआ देख सकते हैं। यहां से यह अपने शिकार को अच्छी तरह से देख पाता है। जब भी इसे रैंगता हुआ या पानी में तैरता शिकार दिखता है यह उसके उपर इधर-उधर उडता है और सही अवसर पर झपट कर ले आता है। इसके भोजन में जलीय जन्तुओं मछली, टैडपोल, के अलावा ग्रासहॉपर, छोटी छिपकिलियां, गिरगिट और अन्य कीड़े शामिल हैं।

White-throated Kingfisherइसकी आवाज़ काफ़ी तेज़ और कर्कस होती है। उड़ते समय निकलने वाली इसकी आवाज़ दुहराती हुई चटचट चिर्र के एक अनवरत स्वर के रूप में होती है। प्रजनन के मौसम में यह आवाज़ काफ़ी तेज़ हो जाती है। इनमें प्रजनन मानसून आने से पहले मार्च से जून-जुलाई के मध्य होता है। मार्च-जुलाई तक यह अपना घोंसला बनाता है। यह नदी के आस-पास के एकान्त गर्तों की ज़मीन खोद कर एक सुरंगनुमा घोंसला बनाता है। इसकी लम्बाई 50 से.मी. होती है। यहां अंडों को सुरक्षित रखा जाता है। ये एक बार में पांच से सात गोल अंडे देते हैं। इनके अंडे सफेद होते हैं। नर और मादा दोनों अंडों की देखभाल बारी बारी से करते हैं।

पाइड किंगफ़िशरसेरिल रूडिस

हमे एक पाइड किंगफ़िशर भी वृक्ष की शाखा पर बैठा दिखा। काफ़ी मशक्क़त के बाद हम उसे अपने कैमरे में क़ैद कर सके। मैना के आकार के इस पक्षी का आकार 31 Cm के आसपास होता है। चश्मे के ऐसा धब्बा आंख के पास और शरीर पर काली और सफेद धारियां पाई जाती हैं। नर के गले पर काली पट्टी होती है, जबकि मादा में यह पट्टी टूटी होती है। स्थिर जलाशय, झील, गड्ढ़े एवं धीमी गति से बहने वाले झरनों के समीप इसे देखा जा सकता है। भोजन में यह मछली ज़्यादा से ज़्यादा खाना पसंद करता है जिन्हें यह पानी में गोता लगा कर पकड़ता है।

किसी जलाशय के आस-पास किंगफ़िशर का पाया जाना उस जलाशय में मछलियों और अन्य प्राणियों के बहुतायत में होना दर्शाता है।

अन्य किंगफ़िशर

blue eared kingfisherRUDY KINGFISHERORIENTAL DWARF KINGFISHERCOLLARED KINGFISHERSTORK BILLED KINGFISHER

बापू - 30 जनवरी को महाप्रयाण : अन्तिम शब्द – ‘हे राम!’

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बापू - 30 जनवरी को महाप्रयाण : अन्तिम शब्द – ‘हे राम!’

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1948 का साल कोई बहुत ताजगी भरी शुरुआत लेकर नहीं आया था। मंगलवार 13 जनवरी 1948 को दिन के ग्यारह बजकर पचपन मिनट पर गांधी जी ने बिना किसी को सूचित किए अपने जीवन का अंतिम उपवास शुरु किया। 11 बजकर 55 मिनट पर गांधीजी के जीवन का अंतिम उपवास शुरु हुआ। उस दिन प्रर्थना सभा में उन्होंने घोषणा की थी कि अपना आमरण अनशन वे तब तक जारी रखेंगे जब तक दंगा ग्रसित दिल्ली में अल्प संख्यकों पर हो रहे अत्याचार और नरसंहार बंद नहीं होता। इसके संबंध में उन्होंने मीरा बहन को लिखा था : “मेरा सब से बड़ा उपवास”।

18 जनवरी को 12 बजकर 45 मिनट पर सभी सात समुदायों के लिखित आश्वासन पर कि `वे न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पूरे देश में साम्प्रदायिक सौहार्द्र का वातावरण पुनः स्थापित करेंगे’, 78 वर्ष की उम्र के गांधीजी ने 121 घंटे 30 मिनट का उपवास गर्म पानी एवं सोडा वाटर ग्रहण कर भंग किया। दिल्ली में विभिन्न दलों और पार्टियों के प्रतिनिधियों ने गांधीजी की उपस्थिति में एक प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर किये जिसमें उन्होंने दिल्ली में शांति बनाये रखने का जिम्मा लिया। उस समय की स्थिति से क्षुब्ध गांधीजी ने राजाजी को पत्र लिखकर अपनी मनः स्थिति इन शब्दों में प्रकट की थी –

“अब मेरे इर्द-गिर्द शांति नहीं रही, अब तो आंधियां ही आंधियां हैं।

इस उपवास के बाद सांप्रदायिक उपद्रवों का जोर बराबर घटता गया। गांधीजी ने भविष्य की योजनाओं की ओर अपना ध्यान लगाया। राजनैतिक स्वाधीनता के बाद गांधीजी का ध्यान रचनात्मक कार्य़ों की ओर अधिक आकर्षित होने लगा। लेकिन रचनात्मक कार्य़ों को पुनः हाथ में लेना मानो बदा ही न था। 20  जनवरी को झंझावात के चक्र ने अपना पहला रूप दिखाया जब बिड़ला भवन की प्रार्थना सभा में गांधीजी बोल रहे थे तो पास के बगीचे की झाड़ियों से एक हस्त निर्मित बम फेंका गया। वे बाल-बाल बच गये। वह तो अच्छा हुआ कि बम अपना निशाना चूक गया, वरना देश को अपूरनीय क्षति 10 दिन पहले ही हो गयी होती। उन्होंने बम विस्फोट पर ध्यान न देकर अपना भाषण जारी रखा। उसी शाम की सभा में अपने श्रोताओं को संबोधित करते हुए गांधीजी ने निवेदन किया कि बम फेंकने वाले के प्रति नफ़रत का रवैया अख़्तियार न किया जाए। बम फेंकने वाले को उन्होंने “पथभ्रष्ट युवक” कहा और पुलिस से आग्रह किया कि उसे “सतायें” नहीं, किंतु प्रेम और धीरज से समझा कर सही मार्ग पर लायें। मदन लाल नाम का यह “पथभ्रष्ट युवक” पश्चिम पंजाब का शरणार्थी था और गांधीजी की हत्या के षड़यंत्रकारी दल का सदस्य था। दूसरे दिन जब उन्हें विस्फोट के समय जरा भी न घबराने के लिए बधाइयां दी गई तो उन्होंने कहा : “सच्ची बधाई के योग्य तो मैं तब होऊंगा जब विस्फोट का शिकार होकर भी मैं मुस्कराता रहूं और हमला करने वाले के प्रति मेरे मन में जरा भी विद्वेष न हो।”

24 जनवरी को अपने एक मित्र को लिखे पत्र में अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि वे तो राम के सेवक हैं। उनकी जब-तक इच्छा होगी वे अपने सभी काम सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य की राह पर चलते हुए निभाते रहेंगे। उनके सत्य की राह के, ईश्वर ही साक्षी हैं।

29 जनवरी 1948 को गांधीजी ने अपनी पौत्री मनु से कहा था,

यदि किसी ने मुझ पर गोली चला दी और मैंने उसे अपने सीने पर झेलते हुए राम का नाम लिया तो मुझे सच्चा महात्मा मानना।

प्रर्थना सभा में भी उन्होंने कहा था कि यदि कोई उनकी हत्या करता है, तो उनके दिल में हत्यारे के IMG_1526विरुद्ध कोई दुर्भावना नहीं होगी और जब उनके प्राण निकलेंगे तो उनके होठों पर राम नाम ही हो यही उनकी कामना है।और 30 जनवरी को जब वह काल की घड़ी आई तो बिलकुल वैसा ही हुआ जिसकी उन्होंने इच्छा की थी।

नेहरू और पटेल के साथ गांधीशुक्रवार 30 जनवरी 1948 की शाम 5 बजकर 17 मिनट का समय था। अपनी पौत्री मनु के कंधों का सहारा लेकर प्रार्थना सभा की ओर बढ़ रहे थे। दूसरी तरफ गांधीजी का सहारा बना हुई थी आभा। लोगों का अभिवादन स्वीकार करते हुए गांधीजी धीरे-धीरे सभा स्थल की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक भीड़ को चीर कर एक व्यक्ति गांधीजी की ओर झुका। ऐसा लगा मानो वह उनके चरण छूना चाहता हो। मनु ने उसे पीछे हटने को कहा क्योंकि गांधीजी पहले ही काफी लेट हो चुके थे। गांधीजी समय के बड़े पाबंद रहते थे पर उस शाम नेहरुजी ओर पटेलजी के बीच उभर आए किसी मतभेद को सुलझाने के प्रयास में उन्हें 10 मिनट की देरी हो गयी थी। मनु ने उसके हाथ को पीछे की ओर करते हुए उसे हटने को कहा। उस व्यक्ति ने मनु को ज़ोर से धकेल दिया। मनु के हाथ से नोटबुक, थूकदान और माला गिर गई। ज्योंही मनु इन बिखरी हुई चीज़ों को उठाने के लिए झुकी वह व्यक्ति गांधीजी के सामने खड़ा हो गया और उसने एक के बाद एक, तीन गोलियां उनके सीने में उतार दीं। गांधीजी के मुंह से “हे राम ! ... ”निकला। उनके सफेद वस्त्र पर लाल रंग दिखने लगा। लोगों का अभिवादन स्वीकार करने हेतु उठे उनके हाथ धीरे-धीरे झुक गए। उनकी दुबली काया ज़मीन पर टिक गई।

चारों तरफ अफरा तफरी मच गई। किसी ने उन्हें बिड़ला भवन के उनके कमरे में लाकर लिटा दिया। सरदार वल्लभ भाई पटेल, जो कुछ ही देर पहले गांधी जी के साथ घंटे भर की बात-चीत करके गए थे, लौट आए। वे गांधी जी की बगल में खड़े होकर उनकी नब्ज़ टटोल रहे थे, उन्हें लगा शायद प्राण बाक़ी है। पागलों की तरह कोई दवा की थैली से एडरनलीन की गोली खोज रहा था। उसे वैसा कुछ न मिला। कोई डॉ. डी.पी. भार्गव को बुलाने चल दिया और 10 मिनट बाद वे पहुंच गए। तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। उन्होंने कहा, “इस धरती पर की कोई शक्ति उन्हें बचा नहीं सकती थी। भारत को राह दिखाने वाला प्रकाश- स्तंभ दस मिनट पहले ही बुझ चुका था।”

डॉ. जीवराज मेहता ने आते ही उनकी मृत्यु की पुष्टि कर दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू अपने दफ्तर से भागे-भागे आए और उनकी छाती पर अपना सिर रखकर बच्चों की भांति फूट-फूट कर रोने लगे।

ठीक एक दिन पहले ही 29 जनवरी को गांधीजी ने अपनी पौत्री मनु से कहा था,

“यदि किसी ने मुझ पर गोली चला दी और मैंने उसे अपने सीने पर झेलते हुए राम का नाम लिया तो मुझे सच्चा महात्मा मानना।”

और यह कैसा संयोग था कि 30 जनवरी 1948 के दिन उस महात्मा को प्रार्थना सभा में जाते हुए मनोवांछित मृत्यु प्राप्त हुई। गांधीजी के दूसरे पुत्र रामदास ने अपने बड़े भाई हरिलाल की अनुपस्थिति में उनकी अंत्येष्टि सम्पन्न की।

गांधी हत्या केस की जांच दिल्ली में डी.जे. संजीव एवं मुम्बई में जमशेद नगरवाला ने की। महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने वालों मे से नारायण आप्टे, 34 वर्ष, को फांसी की सजा हुई, क्योंकि जब हत्या का हथियार लिया जा रहा था तो वह भी वहां साथ में मौज़ूद था। वीर सावरकर साक्ष्य की बिना पर रिहा कर दिए गए। नाथूराम गोडसे, मुख्य आरोपी, 39 वर्ष, को फांसी की सजा हुई। विष्णु कारकरे, 34 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड मिला। शंकर किष्टैय्या को सज़ा तो मिली पर अपील के बाद उसे मुक्त कर दिया गया। गोपाल गोडसे, 29 वर्ष, को आजीवन कारावास का दंड भुगतना पड़ा। दिगम्बर बडगे, 37 वर्ष, जो अवैध शस्त्र व्यापारी था, सरकारी गवाह बन गया, और उसे माफी मिल गई। मदनलाल पाहवा को आजीवन कारावास की सज़ा हुई। बिड़ला भवन में 20 जनवरी को जो हादसा हुआ था, जिसमें गांधीजी बाल-बाल बचे थे, मदनलाल पाहवा उसमें मुख्य साजिश रचने वाला था। मदनलाल पाहवा और उसके कुछ साथियों ने गांधीजी को बम से उड़ा डालने का प्रयास किया था, परन्तु गांधीजी बच गए थे, बम लक्ष्य चूक गया। मदनलाल पाहवा पकड़ा गया। ग्वालियर का रहने वाला दत्तात्रेय पारचुरे एक होम्योपैथ का डॉक्टर था, उसने हत्यारों को शस्त्र (Black Brette Automatic Pistol) की आपूर्ति की थी, को अपील पर माफ कर दिया गया। ग्वालियर का रहने वाला दत्ताराय पारचुरे एक होमियोपैथी डाक्टर था। उसने ही गांधीजी के हत्यारों, आप्टे एवं गोडसे को ब्लैक ब्रेट स्वचालित पिस्टल मुहैया कराई थी। गोडसे और आप्टे को 15 नवंबर 1949 को फांसी पर चढ़ाया गया।

ठीक ही कहा था लॉर्ड माउंट बेटन ने,

सारा संसार उनके जीवित रहने से सम्पन्न था और उनके निधन से वह दरिद्र हो गया।

एक ज़माने में गाँधी जी का उपहास करने वाली टाइम पत्रिका ने उनके बलिदान की तुलना अब्राह्‌म लिंकन के बलिदान से की। पत्रिका ने कहा कि एक धर्मांध अमेरिकी ने लिंकन को मार दिया था क्योंकि उन्हें नस्ल या रंग से परे मानवमात्र की समानता में विश्वास था और दूसरी तरफ एक धर्मांध हिंदू ने गाँधी जी की जीवन लीला समाप्त कर दी क्योंकि गाँधी जी ऐसे कठिन क्षणों में भी दोस्ती और भाईचारे में विश्वास रखते थे, विभिन्न धर्मों को मानने वालों के बीच दोस्ती की अनिवार्यता पर बल देते थे। पैगम्बर या तत्वज्ञानी होने का दावा गांधीजी ने कभी नहीं किया। उन्होंने तो बड़ी दृढ़ता से कहा थाः “गांधीवाद जैसे कोई चीज नहीं है और न मैं अपने बाद कोई पथ छोड़ जाना चाहता हूं।” उन्होंने कहा था गांधीवादी तो केवल एक ही हुआ है और वह भी अपूर्ण तथा सदोष और वह एक व्यक्ति थे, वह स्वयं।IMG_1524

फ़ुरसत में ... 117 : अकेलापन

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फ़ुरसत में ... 117

अकेलापन

मनोज कुमार

कभी-कभी हम ज़िन्दगी के ऐसे दोराहे पर खड़े होते हैं, जहां एक ओर हमें सामाजिक मर्यादाओं का ख़्याल रखना पड़ता है तो दूसरी तरफ़ अपने कर्तव्यों को भी अंजाम देना पड़ता है। ऐसे में हमारे दिल और दिमाग़ की रस्शाकशी चल रहा होता है और उस रस्साकशी में हमारा ख़ुद का दम घुट रहा होता है। ऐसे में अपने विवेक का सहारा लेकर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना एक तनी रस्सी पर चलने के समान होता है, जिसके एक तरफ़ खाई होती है तो दूसरी तरह कुंआ और हम होते हैं तन्हा। ऐसे तन्हा यानी अकेले लोगों के लिए जहां एक तरफ़ हिंदी की लोकोक्ति होती है, “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता”वहीं दूसरी तरफ़ गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर का संदेश होता है, -

जोदि तोर डाक शुने केउ ना आसे

तबे एकला चलो रे,

एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे।

इन दो विचारधाराओं के बीच, गहराती रात को नींद नहीं आ रही होती है, तब बिस्तर से उठ बारामदे में टहलते हुए सामने के वृक्ष की शाखाओं के ऊपर नज़र जाती है। देखता हूं एक चिड़ियां दुबकी पड़ी है। उसका अकेलापन मुझे आकर्षित करता है। उसे इस तरह अकेले देख मेरे मन में ख़लील ज़िब्रान की पंक्तियां कौंधती हैं –

“हे रात्रि! तू प्रेमियों की सखी, एकान्तवासियों की सुखदात्री और असहायों का आतिथ्य करने वाली है।”

इस चिड़ियां में अंतिम (आतिथ्य) वाला गुण तो मुझे नहीं लगा, हां पहले दो कारण हो सकते हैं। साथी से बिछुड़ा यह पाखी है या ठुकरा दिया गया, कहना मुश्किल है। हम अपने आसपास भी पाते हैं कि कई बार आपस में तकरार बढ़ जाने पर कुछ लोग अपने जीवन साथी से अलग रहने लगते हैं। इसी लिए कहा गया है – “व्यर्थ बोलने की अपेक्षा मौन रहना ज़्यादा अच्छा है”।कई लोगों को रूठने की आदत-सी होती है। ऐसे लोग रूठते हैं और अलग रहने लगते हैं ... और मन को भरमाने के लिए कहते हैं – मैं अकेलापन एन्ज्वाय कर रहा हूं। अरे! यह रूठना भी कोई रूठना है लल्लू!

रूठने का लुत्फ़ यह है, रूठिए, मान जाइए

रूठते हैं आप, लेकिन रूठना आता नहीं।

हमारे एक रिश्तेदार दम्पत्ति एक-दूसरे से रूठे और पिछले दो सालों से अलग रह हैं। कौन पहल करे की फांस लग गई है दोनों में। ऐसे लोगों के लिए राजस्थान की यह कहावत काफ़ी मायने रखती है – “मित्र इतना ही मान करो जितना आटे में नमक होता है। बार-बार रूठने पर आख़िर तुझे मनाता कौन रहेगा?”

आज वे बेचारे बहुत अकेलापन महसूस कर रहे हैं। किसी के साथ रिश्ते का महत्व यह नहीं है कि कोई उसके साथ होने से कितनी खुशी महसूस करता है बल्कि उसके नहीं रहने से कितना ख़ालीपन महसूस करता है, कितना अकेलापन महसूस करता है।मैंने पूछा ऐसी नौबत क्यों आई? बोले “वो बात-बात में मेरी ग़लती निकालती रहती है।” मैंने कहा “तो क्या हुआ? एक बात जान लो - इस संसार में ग़लतियां तो हर कोई करता है, पर सिर्फ़ बीवी और बॉस को हक़ है कि वे उन्हें ढूंढ़ निकालें, याद रखें और समय-समय पर उसके बारे में बताते रहें।

इस तरह के अकेलेपन का मुख्य कारण वाद से उत्पन्न विवाद है। इस लिए कहा गया है कि कम ही बोलो। वैसे भी “न्यून वाणी मूर्खों की समझ में नहीं आती और अधिक बोलना विद्वानों को उद्विग्न करता है।”इसलिए कोशिश यही हो कि प्रिय वचन बोला जाए। “प्रिय वचन बोलने से सब प्राणी संतुष्ट हो जाते हैं, अतः प्रिय ही बोलना चाहिए। वचन में क्या दरिद्रता।”

जाते-जाते शेख़ सादी की बात आपके सामने रखता जाऊं – “दो चीज़ें बुद्धि की लज्जा हैं – बोलने के समय चुप रहना और चुप रहने के समय बोलना।”आख़िर –

कुछ न कहना भी किसी के सामने

इक तरह का इन्किशाफ़े-राज़1है। 1= रहस्य का उद्घाटन

अब मेरे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है। इसलिए विराम देता हूं क्योंकि चार्ल्स कैलब काल्टन ने कहा है – Whenyou have nothing to say, say nothing.’’

***

और अब एक कविता ...

रैन बसेरा ...!

--- --- मनोज कुमार

पाखी ! यहां न कोई तेरा !

तरु- तरु लिपट रहीं वल्लरियां,

भंवरों से चुम्बित मधु कलियां,

और अकेला खड़ा विजन में,

नित देखे तू सांझ – सवेरा ।

पाखी ! यहां न कोई तेरा !

सरसिज पर क्रीड़ा मराल की,

लहरें चूमें तृषा डाल की।

तेरे भी कुछ सपने होंगे

चिर-स्नेही हो कोई मेरा।

पाखी ! यहां न कोई तेरा !

सबके साथी अपने-अपने,

देख रहे सब सौ-सौ सपने

तुमको मिला न कोई साथी,

करे यहां जो रैन बसेरा ...! ! ।

पाखी ! यहां न कोई तेरा !

*** ***

परिवार के साथ सामंजस्य और सत्याग्रह

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गांधी और गांधीवाद-153

1909

परिवार के साथ सामंजस्य और सत्याग्रह

अपने आदर्श और सिद्धान्त के प्रति जिस तरह से गांधी जी वचनबद्ध थे, उस सनक से तालमेल बिठाना, उनकी पत्नी, बच्चों और यहां तक कि नजदीकी संबंधियों के लिए संभव नहीं था। सत्याग्रह, ब्रह्मचर्य और निर्धनता उनके लिये न सिर्फ़ राजनीतिक अस्त्र थे, बल्कि जीवन के अंग भी थे। अपने प्रयोगों के लिये वे किसी हद तक जाने के लिये तैयार थे, सत्य को वे ईश्वर मानते थे, और अपने सिद्धान्तों को प्रमाणित करने के लिये उनके अपने तर्क होते थे, जिसका खंडन करना मुश्किल ही नहीं असंभव होता था। इसलिये उनके निश्चय को शायद ही कभी परिवर्तित करना पड़ा हो।

कस्तूरबा गांधीपत्नी कस्तूरबा : इस असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी के साथ सामंजस्य बिठाये रखने के लिए पत्नी कस्तूरबाको काफी मशक्कत करनी पड़ी। उन्होंने तो किसी तरह इसे निभाना शुरू कर दिया था, लेकिन परिवार के अन्य सदस्यों को काफ़ी दिक्क़तें आ रही थीं। 1905 के शुरुआती दिनों से ही हेनरी पोलाक उनके साथ परिवार के सदस्य की तरह रह रहे थे। दिसम्बर के आखिरी सप्ताह में पोलाक की मंगेतर मिली भी साथ रहने आ गई। 18 वर्षीय हरिलाल भारत में ही थे। 14 वर्ष के मणिलाल, 9 वर्ष के रामदास और 6 वर्ष के देवदास साथ में थे। गांधी जी नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे आरंभिक दिनों से ही अंग्रेज़ी में सोचें और बोलें। उन्हें स्वयं गुजराती भाषा में शिक्षा देते थे।

बड़े भाई लक्ष्मीदास :

1906 का वर्ष कई मायनों में गांधी जी के लिए युगांतरकारी साबित हुआ। वकालत से काफी आमदनी होने लगी थी। जोहान्सबर्ग में वे एक आराम की ज़िन्दगी जी रहे थे। जब उनकी इच्छा होती फीनिक्स आश्रम चले जाते। अपने सार्वजनिक क्रिया-कलापों से नेटाल और ट्रांसवाल के लोगों के बीच वे काफ़ी प्रसिद्ध हो चुके थे। 37 वर्ष की उम्र में उन्होंने ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण कर लिया था। जब वे इंगलैंड में पढ़ाई कर रहे थे, तो बड़े भाई लक्ष्मीदासगांधी ने उनकी ज़रूरतों को पूरा करने के इए हर संभव मदद की थी। अब वक़्त आ गया था कि वे अपने बड़े भाई की सहायता करें। अपनी नैतिक सीमाओं में रहते हुए वे इतना कमा लेना चाहते थे कि उनकी मदद की जा सके। नेटाल में रहते हुए उन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी भाई को भेज दी थी। इंग्लैंड में पढ़ाई के समय लिए गए 13,000 रुपयों का क़र्ज़ चुकता किया था। इसके अलावे लगभग 60,000 रुपये संयुक्त परिवार के खाते में जमा करवा दिया था। हालांकि लक्ष्मीदास की वकालत अच्छी चल रही थी लेकिन अपनी आराम तलब ज़िन्दगी जीने की उनकी आदतों के कारण उनका खर्च काफ़ी बढ़ गया था। यह बात गांधी जी को अखरती थी। 1907 के अप्रैल माह में लिखे गए अपने पत्र में उन्होंने लक्ष्मी दास के इस विलासिता पूर्ण रहन-सहन की आलोचना की थी। लक्ष्मी दास ने अपने खर्चे की भरपाई के लिए गांधी जी से 100 रुपये प्रतिमास भेजने की मांग की थी जिसे गांधी जी ने देने से मना कर दिया था। उनका कहना था कि वे स्वयं एक बहुत ही सादगी का जीवन जीते हैं और अपने परिवार के ऊपर बहुत ही कम खर्च करते। जो बचता है वह वे सार्वजनिक कामों में लगा देते हैं। इसके कारण दोनों भाईयों के बीच खटास पैदा हुई।

दूसरे भाई करसनदास :

दूसरे भाई करसनदासगांधी जी से तीन साल बड़े थे। दोनों भाईयों के बीच काफ़ी घनिष्ठता थी। शेख़ मेहताब दोनों के दोस्त थे। उससे दोस्ती के कारण कई ऐसे काम उन्होंने किए जिसे अवसर-प्रतिकूल कहा जा सकता है। समय के साथ दोनों भाई दो अलग दिशाओं में चले गए। दक्षिण अफ़्रीका में मोहनदास गांधी, जहां उनकी वकालत काफ़ी अच्छी चल रही रही थी, और भारत में करसनदास एक पुलिस कर्मचारी के रूप में साधारण जीवन जी रहे थे। उनका मोहनदास के प्रति प्रेम अब भी बना हुआ था।

बहन रालियात : परिवार में सबसे बड़ी, बहन रालियातविधवा थी और उसने करसनदास के साथ रहना मंजूर किया था। उनके रहन-सहन के लिए गांधी जी नियमित रूप से मदद कर रहे थे। जब गांधी जी की अवस्था में परिवर्तन आया तो उन्होंने बहन से 20-25 रुपये मासिक में गुजारा करने की गुजारिश की।

बहन का बेटा गोकुलदास :

बहन का एकमात्र बेटा गोकुलदास पांच वर्षों तक गांधी जी के साथ दक्षिण अफ़्रीका में रहा। भारत लौटने के बाद उसने भी आराम-तलबी की ज़िन्दगी जीनी शुरू कर दी। 1907 में उनकी शादी हो गई, लेकिन दुर्भाग्यवश अगले ही साल, 1908 में, उनकी मृत्यु हो गई। उस समय वे मात्र 20 वर्ष के थे।

बड़े लड़के हरिलाल :

ड़े लड़के हरिलालसन 1907 में दक्षिण अफ़्रीका आए। आते ही वे पिता के काम में उत्साह से जुट गए। जुलाई 1908 में ट्रांसवाल की लड़ाई के समय बीस साल की छोटी उम्र में सत्याग्रही की तरह जेल गए। एक सप्ताह की क़ैद से जब आज़ाद हुए तो सत्याग्रह की लड़ाई उन्होंने ज़ारी रखी। अगस्त के मध्य में एक महीने के लिए जेल गए। फिर फरवरी, 1909 में छह महीने के लिए उन्हें जेल जाना पड़ा। नवम्बर, 1909 में उन्हें फिर से छह महीने के लिए जेल जाना पड़ा। बार-बार जेल जाने और जेल की सज़ा को हंसते-हंसते सह लेने के कारण लोग इन्हें ‘छोटे गांधी’कहकर बुलाने लगे। लेकिन इस सब के बावजूद हरिलाल उचित शिक्षा न मिल पाने के कारण असंतुष्ट रहने लगे। फीनिक्स की व्यवस्था से भी उन्हें खासी शिकायत रहती थी। पिता से जब उन्होंने इसकी चर्चा की तो पिता ने जवाब दिया, अगर तुम्हें लगता है कि फीनिक्स में दुर्गंध है तो तुम्हे ऐसे कार्य वहां करने चाहिए जिससे चारों ओर सुगंध फैल जाए। पिता द्वारा बार-बार दिए जाने वाले उपदेश हरिलाल को बहुत अच्छा नहीं लगता। वे आगे की पढ़ाई के लिए मई, 1911 में भारत आ गए। अहमदाबाद के एक स्कूल में उन्होंने दाखिला लिया। अपने से कम उम्र के बच्चों के साथ तालमेल बिठाने में उन्हें बहुत दिक्क़त आ रही थी। उन्होंने संकृत में पढ़ाई की लेकिन कुछ ही दिनों में उनकी रुचि बदल गई और फ़्रेंच में दाखिला लिया। गांधी जी को यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने हरिलाल को समझाया, लेकिन अब एक पिता के तौर पर नहीं एक मित्र के रूप में, लेकिन अब तक बहुत देर हो चुकी थी। पिता और पुत्र में दूरी काफ़ी बढ़ चुकी थी। जिस तरह से हरिलाल अपने जीवन का रस्ता तय कर रहे थे, उससे भविष्य कोई सुनहरा नहीं लग रहा था।

दूसरे पुत्र मणिलाल :

गांधी जी के दूसरे पुत्र मणिलालहरिलाल से चार साल छोटे थे। नियमित रूप से पढ़ाई न कर पाने का उन्हें भी मलाल था, लेकिन उनकी स्थिति हरिलाल से थोड़ी अलग थी। फिनिक्स के एक स्कूल में उनका दाखिला भी करा दिया गया था। जब हरिलाल सत्याग्रह की लड़ाई में व्यस्त थे तब उन्होंने भाभी गुलाब बहन के साथ मिलकर घर की और अस्वस्थ मां, कस्तूरबा की देखभाल भी की। जिन दिनों गांधी जी भी जेल में थे, जेल से मणिलाल को पत्र लिखा करते जिसमें तरह-तरह की हिदायतें होती थीं। जैसे संस्कृत और गणित पर सबसे अधिक ध्यान देना। संगीत का भी अध्ययन करना। घर के ख़र्चों का ठीक से हिसाब-किताब रखना। सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलने की सीख तो होती ही थी। मणिलाल अपने कर्तव्यों के निर्वाह में तत्पर रहते। जब अलबर्ट वेस्ट बीमार पड़े, तो उन्होंने उनकी खूब देख-भाल की। गांधी जी का वेस्ट से परिचय दक्षिण अफ़्रीका के शुरुआती दिनों से ही था। दोनों की भेंट जोहान्सबर्ग के एक निरामिष भोजनालाय में हुई थी। बाद में 10पौंड के मासिक भुगतान पर उन्होंने इंडियन ओपिनियन का काम संभाला था। वेस्ट का जन्म इंगलैण्ड के लाउथ नामक गांव में एक किसान परिवार में हुआ था।

1909 के आखिरी दिनों में, जब हरिलाल जेल में थे, गांधी जी ने मणिलाल को भी सत्याग्रह आंदोलन के कूद पड़ने को कहा। ट्रांसवाल की सीमा को पार कर वे घर घर जाकर बिना लाइसेंस के फलों की फेरी लगाते। 14 जनवरी, 1910 को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। कुछ दिनों की क़ैद के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। सीमा पार कर उन्होंने फिर से घर घर जाकर फलों की फेरी लगाना शुरू अर दिया। इस बार उन्हें तीन महीने की सज़ा हुई। मई, 1910 में रिहाई के बाद वे टॉल्सटॉय फर्म आ गए। साल 1912 के आते-आते उनके रहन-सहन में काफ़ी बदलाव आ गया। उनके कपड़ों, अंग्रेज़ों जैसा रहन-सहन और वेश-भूषा आदि में हुए परिवर्तन से गांधी जी ख़ुश नहीं थे। मणिलाल सारा जीवन पिता के आदेश को सम्मान दिया। एक बार गांधी जी ने इच्छा बताई थी कि मणिलाल का स्थान फीनिक्स में है। इसे शिरोधार्य कर वे अपना पूरा जीवन ‘इंडियन ओपिनियन’ और फीनिक्स आश्रम को समर्पित कर दिया। मणिलाल और उनकी पत्नी सुशीला ने ‘इंडियन ओपिनियन’ का संचालन वर्षों तक किया।

रामदास और देवदास :

जब परिवार फीनिक्स में रहने लगा तो रामदास और देवदास 9 और 6 साल के थे। घर में स्वावलंबन का वातावरण था, इसलिए ये बच्चे घर के काम में मदद करते थे। इस उम्र में पढ़ाई कैसी हो, इसकी उन्हें विशेष चिन्ता तो नहीं थी, लेकिन पिता के सादगी और निर्धनता के जीवन जीने की शैली से उन्हें कुछ परेशानी तो होती ही थी। भाभी गुलाब बहन उन्हें गुजराती पढ़ना-लिखना सिखाती थीं। जब परिवार टॉल्सटॉय फर्म रहने आया, तो यहां के रहन-सहन के साथ समझौता करने में उन्हें बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सारा दिन उन्हें काफ़ी शारीरिक श्रम, जैसी ज़मीन की खुदाई, करना पड़ता। लेकिन इस तरह के काम में उन्हें काफ़ी आनन्द आता और उन्हें लगता वे एक अच्छे आदमी बन रहे हैं। पंद्रह वर्ष की छोटी उम्र में रामदास ने सत्याग्रह में भाग लेकर तीन माह की सज़ा पाई। जेल में किए जाने वाले अत्याचार के विरुद्ध उन्होंने उपवास भी रखा था। जेल में किए गए उनके व्यवहार, नम्रता, सरलता और दृढ़ता ने सबको चकित कर दिया। देवदास की कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत करने की शक्ति गजब की थी। फीनिक्स में जब सभी बड़े लोग जेल में थे, तब 12-13 साल के देवदास ने पूरी जिम्मेदारी से प्रेस में काम किया और ‘इंडियन ओपिनियन’ का नियमित रूप से प्रकाशन ज़ारी रखा। वे विनोदी प्रकृति के इंसान थे।

जो शिक्षा अग्राह्य है, संस्कृति के लिए बाधक है, उसे नहीं देने के पक्ष में गांधी जी थे। अपने बच्चों की जिस तरह की परविश उन्होंने की वह सही था या ग़लत, यह विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन इसका मलाल उन्हें भी काफ़ी दिनों तक रहा। फिर भी अपने पुत्रों के प्रति उन्होंने अपनी क्षमता से भी अधिक किया। उन्होंने जान-बूझ कर उस तरह की शिक्षा का एक अंग होने से अपने पुत्रों को दूर रखा, जिसे वे बुराईयों से रहित नहीं मानते थे।

***


कौवों से भी काला पनकौवा

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कौवों से भी काला पनकौवा

पनकौवा/Cormorant

वैज्ञानिक नाम: फैलाक्रोकोरेक्स नाइगर (Phalacrocorax niger)

सामान्य नाम : Little Cormorrant या छोटे पनकौवा

गण : बक (Order Ciconiformes)

कुल : जलकाक (Family Phalacrocoracidae)

स्थानीय नाम : बंगाल में इसे पनकौरी कहा जाता है। पंजाबी में जलकान, गुजराती में नानो काज्यो, मराठी में पनकाउला, तेलुगु में नातिकाकि, तमिल में नीर कागम, मलयालम में काक्तारावु और कन्नड़ में पुट्टा नीरू कागे।

पहचान

लगभग 50 से.मी. के आकार का यह आवासी प्रवासी पक्षी कौवों से भी अधिक काला होता है। इसकी कई जातियाँ सारे संसार में पाई जाती हैं। इसके पंख काले और चमकदार होते हैं। ये अपना अधिक समय पानी में ही बिताते हैं और पानी के भीतर मछलियों की तरह तैर लेते हैं। यह पानी में डूब कर मछलियों को पकड़ता है। तैरते समय इसका शरीर पानी के भीतर होता है, गरदन सीधी होती है और सिर और चोंच थोड़ा ऊपर की तरफ़ होते हैं। इसकी चोंच हुक के समान मुड़ी हुई होती है। चौड़ी पूंछ सीधी और तनी हुई होती है। इसके गले पर एक छोटा सा सफेद छाप होता है। इसकी टाँगें छोटी और उँगलियाँ ज़ालपाद होती है। बड़ा पनकौवा (Large Cormorrant) भी देखने में इसी की तरह होता है पर उसका आकार हंस के समान होता है और उसके दोनों तरफ़ बड़ा सफेद छाप होता है। नर और मादा पनकौवा में कोई अंतर नहीं होता। अकेला या 20 पक्षियों के झुंड में पाया जाता है। कभी-कभी झुंड इससे बड़ा भी होता है।

आवास-प्रवास

यह पक्षी पोखर, तालाब, झील, जलाशय, लैगून और सिंचाई के लिए बनाए गए जलस्रोतों के निकट पाया जाता है। मुख्यतः यह मछली, मेढ़क, घोंघे औए सीपी खाता है। शिकार पर ये दल बनाकर टूट पड़ते हैं। यह पानी में डूब कर मछलियों को पकड़ता है। हुक के समान मुड़ी चोंच में फंस कर शिकार निकल नहीं पाता। भरपेट भोजन खा लेने के बाद ये किनारे, चट्टानों, टीले, पेड़ों की शाखाओं आदि पर बैठ कर फ़ुरसत से अपने पंखों को फैलाकर सुखाते रहते हैं।

प्रजनन

इसके प्रजनन का कोई निश्चित समय नहीं होता। देश के विभिन्न भागों में इनका प्रजनन काल अलग-अलग देखा गया है। हां यह निश्चित है कि जिस समय इन्हें बहुतायत में भोजन मिलता है, उसी समय इनका प्रजनन काल शुरू हो जाता है। इसका कारण यह है कि इनके बढ़ते हुए चूजों को उस समय उचित खुराक मिल पाता है। उत्तर भारत में इस पक्षी में प्रजनन वर्षा ऋतु या मॉनसून के आगमनके समय, यानी जुलाई माह में शुरू होता है जो सितम्बर तक रहता है। क्योंकि इस मौसम में मछली और मेढ़कों की भरमार होती है। दक्षिण भारत में प्रजनन नवंबर से लेकर फरवरी तक होता है। जलाशयों के आसपास पाए जाने वाले वृक्षों पर यह अपना घोंसला बनाता है। यह चार से पांच नीले-हरे रंग का अंडा देता है। नर और मादा दोनों ही अंडों को सेते हैं।

अन्य प्रजातियां :

इस पक्षी की कई जातियाँ सारे संसार में पाई जाती हैं। सितकर्ण जलकौवा या इंडियन शैग (फेलाक्रोकोरेक्स फुसिकोलिस) : इसकी गरदन पतली और चोंच लंबी होती है। यह पक्षी देश भर में पानी के नजदीक पाया जाता है। बड़ा पनकौवा (Great Cormorant – P. carbo) 80 से.मी. के आकार का होता है। इसमें पीला gular pouch होता है।

*** *** ***

संदर्भ

1) The Book of Indian Birds – Salim Ali

2) A pictorial Guide to the Birds of the Indian Sub-continent – Salim Ali

3) Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal, BiswajIt Roychowdhury

4) The Book Of Indian Birds – Salim Ali

5) Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carol Inskipp and Tim Inskipp

6) Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande

7) हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी

The Birds – R. L. Kotpal

टॉल्सटॉय फार्म, कालेनबाक और सांपों का उपद्रव

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गांधी और गांधीवाद-154

1909

टॉल्सटॉय फार्म, कालेनबाक और सांपों का उपद्रव

कालेनबेक

गांधी जी के संसर्ग में आकर न जाने कितने लोगों के जीवन में परिवर्तन आया। कालेनबेक भी उनमें से एक थे। वे बड़े रईस का जीवन जीते थे। उन्होंने कभी भी दुनिया की सर्दी-गर्मी नहीं सही थी। न कोई तकलीफ़ उठाई थी न कोई अड़चन सहा था। असंयम उनका धर्म हो गया था। संसार का हर सुख भोगना उनकी आदत थी। स्वच्छंद जीवन जीते थे। पैसे से जो चीज़ मिल सकती थी उसे हासिल करने के लिए उन्होंने कभी हिचकिचाहट नहीं दिखाई। ऐसा आदमी टॉल्स्टॉय फार्म में रहता था, सोता-बैठता, खाता-पीता थ। फार्मवासियों के जीवन के साथ अपने जीवन को उन्होंने पूरी तरह से मिला दिया था। भारतवासीयों को उनके इस रहन-सहन पर न सिर्फ़ आश्चर्य बल्कि आनंद भी हो रहा था, लेकिन कुछ गोरों ने तो कालेनबेक को मूर्ख और पागल मान लिया था। लेकिन कालेनबेक ने अपने त्याग को कभी भी दुखस्वरूप न माना। उनके इस त्याग-शक्ति के कारण कई लोगों के दिल में उनके प्रति आदर भाव भी बढ़ गया था। जितना आनंद उन्होंने सुखों के भोग में पाया था उससे अधिक उन्हें त्याग में मिल रहा था। छोटे-बड़े सबों के साथ वे हिल-मिल कर रहते।

टॉल्सटॉय फार्म पर रहते हुए गांधी जी और कालेनबाक के बीच काफ़ी घनिष्ठ संबंध हो गया था। कालेनबाक क्प फलवाले बड़े पेड़ों का बहुत शौक था। इसलिए टॉल्सटॉय फार्म के माली का काम वे स्वयं करते थे। हां रोज़ सवेरे बच्चों और बड़ों से भी इनके काट-छांट और सींचने काम काम करवाते। हंसमुख स्वभाव के कालेनबेक मेहनत के सभी काम हंसते-हंसते करते और दूसरे लोगों को उनके साथ काम करने में बड़ा आनंद आता। वक़्त पड़ने पर रात के दो बजे उठकर टॉल्स्टॉय फार्म से जोहान्सबर्ग जाने वाली टोली के साथ पैदल निकल पड़ते।

गांधी जी के इस सिद्धांत में उन्हें विश्वास था कि ‘बुद्धि जिस वस्तु को स्वीकार कर ले उसका आचरण करना उचित और धर्म है’।गांधी जी के इस विचार से कि सांप आदि अन्य जानवर को मारना वे पाप है, शुरू में तो कालेनबाक को आघात पहुंचा पर अंत में तात्विक दृष्टि से उन्होंने इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया। कालेनबाक सांप को मारने के पक्ष में रहते थे। गांधी जी इससे सहमत नहीं थे।

फार्म में सांपों का उपद्रव

हालांकि अहिंसा के प्रति पूर्ण वचनबद्धत के बावजूद भी सांपों के मारने पर बिल्कुल न मारने की पाबंदी नहीं थी। फार्म में सांपों का उपद्रव काफ़ी था। इस फार्म की स्थापना के पहले यह स्थान निर्जन था। गांधी जी यहां सांपों के बीच रहे। उनको तसल्ली थी कि एक सांप भी उन्होंने नहीं मारा। एक दिन कालेनबाक के कमरे में अचानक ऐसी जगह एक सांप दिखाई दिया, जहां से उसे भगाना या पकड़ना लगभग असंभव था। फार्म के एक विद्यार्थी ने उसे देखा। उसने गांधी जी को बुलाया और पूछा – “क्या करना चाहिए? यदि आप आज्ञा दें तो इसे मार दूं?” उस सांप को मार देने की इजाज़त देना गांधी जी ने अपना धर्म समझा। उन्होंने आज्ञा दे दी। सांप को मारने की आज्ञा देने में गांधी जी को धर्म दिखाई दिया। गांधी जी कहते हैं, “सांप को हाथ से पकड़ लेने या फार्मवासियों को और किसी तरह भयमुक्त कर देने की मुझमें शक्ति न थी और आज भी उसे उत्पन्न नहीं कर सकता।”

इसी क्रम में कालेनबेक ने सांपों की विभिन्न प्रजातियों को पहचानने के लिए कई पुस्तकों का अध्ययन किया। उन्होंने जाना कि सभी सांप ज़हरीले नहीं होते। कई तो खेतों और फसलों की रक्षा भी करते हैं। गांधी जी की सहायता से उन्होंने सर्पों को पहचानना भी सीख लिया।

एक विशाल अजगर जो फार्म में मिला था, उसे कालेनबेक ने पाल लिया था। उसको सदा अपने हाथ से खाना देते। उसे पिंजड़े में उन्होंने रखा था। यह देखकर गांधी जी ने कहा, “हालांकि आपका भाव शुद्ध है, फिर भी अजगर तो उसे पहचानने से रहा। आपकी प्रीति के साथ भय मिला हुआ है। उसको खुला रखकर उसके साथ खेलने की हिम्मत आपकी नहीं है। इसलिए इस सांप को पालने में मैं सद्भाव तो देखता हूं, पर उसमें अहिंसा नहीं देखता। इस सांप के तौर-तरीक़े, इसकी आदतें जानने के लिए आपने उसे क़ैद कर रखा है। यह एक प्रकार की विलासिता हुई। दोस्ती में किसी को बन्दी नहीं बनाया जाता।‘’

हालांकि कालेनबेक को गांधी जी की यह दलील जंची, फिर भी उसे तुरंत छोड़ देने की उनकी इच्छा नहीं हुई। पर इस सांप ने क़ैद से निकलने का रस्ता खुद निकाल लिया। शायद पिंजड़े का दरवाजा खुला रह गया हो। एक सुबह कालेनबेक उसे देखने गए तो देखा कि पिंजड़ा खाली है। वह ख़ुश हुए।

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धूमिल ने हिंदी कविता की एक नयी परंपरा का सूत्रपात किया

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पुण्य तिथि पर

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धूमिल ने हिंदी कविता की एक नयी परंपरा का सूत्रपात किया

सुदामा पाण्डेय धूमिल के प्रथम काव्य-संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ की ‘कविता’ शीर्षक रचना से लिया गए काव्यांश से बात की शुरुआत करते हैं ..

उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे

कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं

और हत्या अब लोगों की रूचि नहीं

आदत बन चुकी है

वह किसी गँवार आदमी की ऊब से

पैदा हुई थी और

एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ

शहर में चली गयी

अपेक्षाकृत धूमिल की यह छोटी कविता है। यह ‘कविता’ उनके नये अंदाज़, कविता के प्रति उनकी गहरी सोच को अभिव्यक्त करती है। इस कविता में कवि संवेदना और अभिव्यंजना के संकटों की पहचान करता है। शब्दों की खोती हुई ताकत के कारण कविता रचने का काम कठिन होता जा रहा है। भाषा और मनोभाव की जिस पवित्र आत्मीयता से कविता रची जाती है, वे संबंध-सूत्र जीवन से लगातार टूट रहे हैं। कवि की दृष्टि में कविता की उत्पत्ति जिस मनः स्थिति में हुई थी और जिस सार्थक उद्देश्य से उसका सरोकार था, वह पूरी तरह उससे कट गई है।

भाषा और अर्थ का आपसी संबंध सामाजिक जीवन की आधारशिला पर टिका होता है। सामाजिक जीवन में व्यक्ति अकेला होता जा रहा है, इसलिए कविता भी संक्षिप्त एकालाप बनकर रह गई है। उसमें बौखलाए हुए आदमी का आक्रोश है लेकिन एक प्रकार की विवशता से वह ग्रस्त है। वास्तव में साठोत्तरी कविता नवीन काव्याभिरुचि, नवीन सौन्दर्यबोध तथा नये संवेदन की कविता है। वह मुख्यतः साधारण आदमी की पहचान और उस पहचान की तलाश की कविता है। जब कवि यह कहता है - उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे / कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं / और हत्या अब लोगों की रूचि नहीं – / आदत बन चुकी है तो कविता की वर्तमान दशा पर स्वयं कविता की यह सोच कितना भेदक है। आज जिस तरह असलियत को शब्दों की ओट में दिखाया जाता है, उससे स्पष्ट है कि कविता की चिन्ता जनकल्याण न होकर उन चेहरों को छिपाना हो गया है, जिन्हें नंगा किया जाना चाहिए। पोल खोलने के नंगेपन को धूमिल वर्तमान वस्तु-स्थिति में अनिवार्य मानते हैं। इसी से कविता की हत्या हो रही है। अब हत्या करना रुचि नहीं आदत बन गई है। कविता का यह दुरुपयोग खुद कविता को ही खलता है। स्पष्ट है कि धूमिल समकालीन कविता के अपने मूल उद्देश्य आदमी होने की पहल से भटकने को लेकर चिन्तित हैं। दुराव आदमी के चरित्र का सबसे घातक पहलु है और कविता आज उसी शगल में फंस गई है।

धूमिल कविता के उद्भव के आदि स्रोत के रूप में ‘गंवार की ऊब’ को मानते हैं। वे कविता को उसके मूल सरोकार से जोड़कर देखते हैं, केवल मनोरंजन से नहीं। आदिम श्रम से ऊबे लोगों ने कविता को अपनी ऊब के लिए खोजा था, ताकि ऊब को सक्रियता दी जा सके। उसे जीवन-संघर्ष में अग्रसर करने का मनोबल दे। पढ़े-लिखे और शहरी संस्कृति में पलने वाले लोगों की करामात से ही कविता यथार्थ परिदृश्य को ओझल कर दुराव के तहत अपनी जड़ से कट चुकी है।

धूमिल की कविता को गहराई तक समझने के लिए उनके कविता संबंधी दृष्टिकोण को जानना निहायत ज़रूरी है। उनकी सृजन प्रक्रिया के संबंध में काशीनाथ सिंह के शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा जा सकता है कि वे कविता करते नहीं थे, बनाते थे। पहले उनके दिमाग में समस्या आती थी और वे उसकी पूर्ति ऊपर की तीन या सात पंक्तियों से करते थे। उनके दिमाग में जुमले आते थे और ये जुमले कभी तो उनके उपजाऊ दिमाग की उपज होते थे और कभी उन्हें लोगों की बातचीत से हासिल होते थे। इस प्रकार का जुमले ‘कविता’ में भी देखा जा सकता है, जैसे – अब उसे मालूम है कि कविता / घेराव में / किसी बौखलाये हुए आदमी का / संक्षिप्त एकालाप है।

साठोत्तरी दशक में धूमिल पहला ऐसा कवि हैं, जिन्होंने सबसे अधिक कविताएं ‘कविता’ के बारे में लिखी है। वे इस बात का प्रमाण हैं कि धूमिल कविता के भविष्य, कविता की सार्थकता को लेकर कितने चिंतित थे। उन्होंने हिंदी कविता को एक नयी भाषा दी है। उन्होंने अनुभव किया कि कवि का पहला काम कविता को भाषाहीन करना है। साथ ही वे मानते थे कि अनावश्यक बिम्बों और प्रतीकों से उसे मुक्त करना है। इसके कारण कविता की स्थिति उस औरत जैसी हास्यास्पद हो जाती है, जिसके आगे एक बच्चा हो, गोद में एक बच्चा हो और एक बच्चा पेट में हो। प्रतीक, बिम्ब जहां सूक्ष्म सांकेतिकता और सहज सम्प्रेषणीयता में सहायक होते हैं वहीं अपनी अधिकता से कविता को ग्राफिक बना देते हैं। आज महत्व शिल्प का नहीं कथ्य का है। सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्या कहा है? इससे स्पष्ट है कि धूमिल पच्चीकारी और अनावश्यक बिम्बों और प्रतीकों से कविता को मुक्त करना चाहते थे। स्पष्ट है ऐसी भाषा कविता और पाठक के बीच दीवार बनकर खड़ी होती है, धूमिल कविता को भाषाहीन करके इसी दीवार को तोड़ते नज़र आते हैं।

इस काव्ययात्रा की शुरुआत धूमिल के आत्मसंघर्ष से होती है। आदमी होने का उनका अपना अनुभव जो कुछ रहा, उसे उन्होंने कविता में अभिव्यक्त किया है। धूमिल वैयक्तिक अनुभवों को निर्वैयक्ति बनाकर पेश करते हैं। उनका काव्य-सरोकार आत्मकेन्द्रित न होकर सर्वात्म केन्द्रित है। उनकी कविता आदमी की आज़ादी के संघर्ष की कविता है, उसे किसी विशिष्ट काव्य मानदण्ड पर तौलना उसका अपमान होगा। इसलिए उनकी कविता निर्वैयक्तिक कही जाएगी क्योंकि उसमें उनका आत्मविसर्जन तो नहीं हुआ है, पर वह आत्म आम आदमी के आत्म का पर्याय अवश्य बन गया है। वे आत्मसंवेदना को विचार से जोड़कर ही उसे रचनात्मकता का दर्ज़ा देते हैं।

धूमिल जब कहते हैं कि कविता हर तीसरे पाठ के बाद धर्मशाला जो जाती है, तो उनका आशय स्पष्ट है कि पाठ-प्रक्रिया के दुहराव के बाद उसमें नये अर्थसंधान का आकर्षण समाप्त हो जाता है। उन्हें दुख यह भी है कि शब्दों के पीछे / कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं / आदत बन चुकी है। -

“इस लिए गँवार आदमी की ऊब से पैदा हुई कविता एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ / शहर में चली गई।” क्योंकि गाँव में रहकर संघर्ष करना पढ़े-लिखे नफ़ासत जीवन जीने के लोलुप आदमी के लिए आसान नहीं है। इस तरह शहरीकरण पर कविता के माध्यम से की गई यह टिप्पणी उन लोगों पर गहरा व्यंग्य है, जो सुविधाभोग के स्वार्थ में अपनी ज़मीन को ही भूल जाते हैं। ऐसे लोग ही उस कविता को भी अपनी ज़मीन से उखाड़कर शहर में स्थापित करने की चेष्टा करते हैं। उनकी कविता पर धूमिल का व्यंग्य उल्लेखनीय है - नहीं – अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है / पेशेवर भाषा के तस्कर – संकेतों / और बैलमुत्ती इबारतों में / अर्थ खोजना व्यर्थ है ये तस्कर संकेत उन प्रतीकों और उपमानों की ओर संकेत हैं, जिन्होंने गोल-गोल शब्दावली में वास्तविक अनुभव को दरकिनार कर दिया है। तभी धूमिल नए कवि को सलाह देते हैं हाँ, हो सके तो बगल से गुज़रते हुए आदमी से कहो – / लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा, / यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था

कविता को आदमी को उसकी पहचान देना है, जो सामयिक भीड़ में कहीं खो गया है। धूमिल की आदमी से यह सम्बद्धता इसलिए आ पायी है कि वे उसी की तरह ज़िन्दगी के संघर्ष में उसके हिस्सेदार हैं। भाषा में आदमी होने की तमीज़ से उनका आशय नगरीय-बोध से जुड़ी सभ्यता नहीं, वह आदिम संस्कार है जो उसकी अपनी पहचान है। वे आदमी को सांचे में ढालने की अपेक्षा उसकी वैयक्तिक स्वतंत्रता के पक्षधर हैं, जिसके तहत वह अपने ढंग से जीवन संघर्ष करने में सफल हो सकता है। इसके अभाव में वह भीड़ का एक हिस्सा बनकर रह जायेगा।

धूमिल की कविताएं अपनी अंतर्वस्तु और शिल्पगत बनावट-बुनावट की ताज़गी और सादगी के कारण हिंदी पाठकों और आलोचकों का ध्यान एक दम से अपनी ओर आकृष्ट करती है। धूमिल की कविताओं में आक्रोश है और उस आक्रोश के मूल में सभी शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध मानवीय मुक्ति का पक्ष सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। भाषा और शैली की दृष्टि से धूमिल ने अपनी एक नयी पहचान बनायी है। हिंदी काव्य की परम्परागत रूपक योजना, मिथक रचना-प्रतीक-विधान का परित्याग कर इन्होंने भाषा एवं शैली – दोनों ही दृष्टियों से सपाट बयानी को अपनी कविता के लिए श्रेयष्कर समझा है। सामान्य बोल चाल की चालू भाषा और बिना लाग-लपेट के कहने का कौशल धूमिल की कव्य-शैली का प्रमुख आकर्षण है। धूमिल ने अकविता और श्मशानी भूखी-क्रुद्ध पीढ़ी के दौर में एक सार्थक विद्रोह भाव ही नहीं, एक नया काव्य-शिल्प भी हिंदी की आगे आने वाली पीढ़ी को दिया। भाव, भाषा और शिल्प – सभी दृष्टियों से धूमिल ने हिंदी कविता की एक नयी परंपरा का सूत्रपात किया है। धूमिल ने विभिन्न काव्यान्दलोनों को चुनौती देकर अपना अलग व्यक्तित्व बनाये रखा।

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लाल लंबी टांगों वाला गजपांव

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लाल लंबी टांगों वाला गजपांव या टिंगुड़

@ Manoj Kumar at Giddhi Pokhar, Nalanda
@ Manoj Kumar at Giddhi Pokhar, Nalanda
Black-winged Stilt (Himantopus himantopus)

 स्थानीय नाम : बंगाल में इसे लाल गोन, लाल ठेंगी, लम गोरा कहा जाता है, जबकि पंजाबी में लामलट्टा, मराठी में शेकटा, बिहारी में सरगैन या सरगाइन, तमिल में पाविल्ला कल उल्लान और सिंध में गुस्लिंग।

@ Manoj Kumar at Giddhi Pokhar, Nalanda
पहचान : शरीर के अनुपात में सबसे लंबी टांगों वाला पक्षी गज पांवनदी या पानी के अन्य स्रोतों के किनारे पाया जाने वाला बड़ा ही आम पक्षी है। यह 25 सें.मी. के आकार का पतला और बहुत ही ख़ूबसूरत पक्षी है जिसके पंख काले, सलेटी भूरे और शरीर बगुला की तरह सफेद होता है। इसकी काले रंग की चोंच लंबी और पतली होती है। सबसे पहले हमारी नज़र इसकी टांग पर पड़ती है, जो काफ़ी लंबी और लाल रंग की होती है। लंबी टांगों के कारण ही इसे गज (मीटर) पांव कहा जाता है। नर और मादा के रंग में अंतर होता है। प्रजनन के समय पंख का रंग गहरा हरा हो जाता है। झील, पोखर आदि में ये जोड़ों की झुंड में होते हैं।

वितरण : यह पूरे भारत में पाया जाता है। इसके अलावा बांगलादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यानमार में भी पाया जाता है। ये निवासी (Resident) और स्थानीय प्रवासी पक्षी हैं। ये सर्दियों के आगंतुक हैं।

@ Manoj Kumar at Giddhi Pokhar, Nalanda
स्वभाव : दलदली इलाक़े, झील, तालाब, पोखर, खारे खेतों और ज्वार से बने कीचड़ भरी जगहों पर पाया जाता है। Stilt एक लकड़ी होती है जिस पर पांव रखकर चलते हैं। इसकी Stilt टांग इसे गहरे जल में आराम से चलने में सहायक होती हैं। यहां यह पानी की सतह पर केंचुए, कोमल कवचधारी जीव, जलीय कीट आदि का शिकार करता है। कीचड़ या तलहटी में स्थित कीड़े, मोलस्क सीप, आदि को खाते समय ये सिर और गरदन को पानी के भीतर घुसा लेते हैं, जबकि इनका शरीर बाहर रहता है। तैरने में भी ये माहिर होते हैं। ये तेजी से नहीं उड़ पाते। उड़ते समय इनकी पतली गरदन आगे विस्तारित रहती है, जबकि लंबी लाल पतली टांग पीछे की ओर। ये उड़ते समय तीव्र बिप्‌-बिप्‌ कि आवाज़ करते हैं। गुस्से में ये चरचराने वाली चिक-चिक-चिक की चीखती हुई आवाज़ निकालते हैं।

नीड़न : इनके घोंसला बनाने का समय आमतौर पर अप्रैल से अगस्त के बीच होता है। इनका घोंसला झील या तालाब या पानी के स्रोत के निकट होता है। ज़मीन पर रहने वाले इनके शत्रुओं का ध्यान घोंसलों की तरफ़ आकर्षित न हो इसलिए ये घोंसले मिट्टी कुरेद कर एक छोटे से गड्ढ़े के रूप में बनाते हैं। या फिर किसी ऊंचे प्लेटफ़ॉर्म पर पानी के बीच पत्थरों से घेर कर ये घोंसला बनाते हैं जिसे ये फूस, पत्ते से घेर देते हैं। ये 3 से 4 अंडे देते हैं जो हलके बादामी रंग के होते हैं। नर और मादा दोनों मिलकर अंडे सेते हैं और चूजों की देखभाल करते हैं।

@ Manoj Kumar at Giddhi Pokhar, Nalanda


संदर्भ
1) The Book of Indian Birds – Salim Ali
2) A pictorial Guide to the Birds of the Indian Sub-continent – Salim Ali
3) Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal, BiswajIt Roychowdhury
4) The Book Of Indian Birds – Salim Ali
5) Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carol Inskipp and Tim Inskipp
6) Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande
7) हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी
8) The Birds – R. L. Kotpal

संत रविदास के उपदेश हमें कर्म, सच्चाई और सेवा के लिए प्रेरित करते हैं

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संत रविदास के उपदेश हमें कर्म, सच्चाई और सेवा के लिए प्रेरित करते हैं

संत रविदास जयंती पर …

मध्ययुगीन साधकों में संतकवि रैदास या रविदास का विशिष्ट स्थान है। निम्नवर्ग में समुत्पन्न होकर भी उत्तम जीवन शैली, उत्कृष्ट साधना-पद्धति और उल्लेखनीय आचरण के कारण वे आज भी भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में आदर के साथ याद किए जाते हैं।

संत रैदास के जीवनकाल की तिथि के विषय में कुछ निश्चित रूप से जानकारी नहीं है। इसके समकालीन धन्ना और मीरा ने अपनी रचनाओं में बहुत श्रद्धा से इनका उल्लेख किया है। ऐसा माना जाता है कि ये संत कबीरदास के समकालीन थे। ‘रैदास की परिचई’में उनके जन्मकाल का उल्लेख नहीं है। डॉ. भगवत मिश्र ने अपने अध्ययन के अनुसार यह निष्कर्ष निकाला है कि उनका जन्म पंद्रहवीं शताब्दी में संत कबीर की जन्मभूमि लहरतारा से दक्षिण मडूर या मडुआडीह गांव, बनारस में विक्रम संवत 1456 (सन 1398) की माघ पूर्णिमा को हुआ था। इनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) है। वे विवाहित थे और उनकी पत्नी का नाम लोना था। उन्होंने सीद्धियां प्राप्त कर धर्मोपदेशक के रूप में यश कमाया। अपना परिचय देते हुए वे लिखते हैं :

काशी ढिंग माडुर स्थाना,

शूद्र वरण करत गुमराना,

माडुर नगर लीन अवतारा

रविदास शुभ नाम हमारा।

संत रविदास जी ने किसी स्कूल से शिक्षा नहीं पाई थी। संतों की संगति में रहकर उन्होंने ज्ञानार्जन किया था। बाल्यकाल में उनका अधिकांश समय साधुओं की सेवा में बीतता था। उनके पास जो भी धन होता उसे वे साधुओं की सेवा में ख़र्च कर देते। उनका यह व्यवहार उनके पिता को ठीक नहीं लगता। वे अपने पुत्र से क्रुद्ध रहते। पिता पुत्र में इस विषय लेकर विवाद भी हो जाता। एक बार पिता ने पुत्र को घर से निकाल दिया और उनके हाथ एक कौड़ी भी नहीं दी। संत रैदास एक झोपड़ी में रहने लगे। किसी तरह अपनी जीविका चलाते। भगवान के धुन में मस्त गाते रहते –

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानी।

प्रभु जी तुम धन बन हम मोरा, जैसे चितवत चन्द चकोरा।

प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।

प्रभु जी तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भगति करै रैदासा।

उन्होंने कई तीर्थयात्राएं भी की। हरिद्वार, मथुरा, वृंदावन, प्रयाग, भरतपुर, जयपुर, पुष्कर, चित्तौड़ आदि स्थानों का भ्रमण किया। सिकंदर लोदी के निमंत्रण पर वे दिल्ली भी गए थे। संत कबीर उनके गुरुभाई थे। रैदास को स्वामी रामानंद ने दीक्षा दी थी। संत रविदास रामानन्द के बारह शिष्यों सें से एक थे। बचपन से ही वे बड़े दयालू और परोपकारी थे। वे कर्म को ही पूजा मानते थे। उनका मानना था कि जो व्यक्ति अपने कर्म पूरे मन से करता है, वही सच्चा धार्मिक व्यक्ति है।

संत रैदास ने सामाजिक विषमता के प्रति अपना विरोध दर्ज़ किया। उन्होंने वर्णवादी व्यवस्था की असमानता के प्रति आक्रोश अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रकट किया। वे कविताओं में बार-बार अपने को चमार कह कर संबोधित करते हैं। ‘ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारं’, ‘चरन सरन रैदास चमैइया’, ‘कह रैदास खलास चमारा’ आदि। यह एक प्रकार से कवि का प्रतिरोध ही है। इस जाति का शोषण और अपमान अनंत काल से होता रहा है। इस भेदभाव की तीव्रता का अनुभव करते हुए कभी-कभी उनके धैर्य का बांध टूट जाता था –

जाके कुटुंब सब ढोर ढोवत

फिरहिं अजहूँ बानारसी आसपासा।

आचार सहित बिप्र करहिं डंडौति

तिन तनै रविदास दासानुदासा॥

हजारों वर्षों से दबाई हुई शोषित जाति का कंठ इसी आवेग से फूटता है। रैदास की आचारनिष्ठ विप्रों का दंडवत करना भक्ति-आन्दोलन की उस धारा की ओर संकेत करता है जिसके प्रखर प्रवाह में जाति-पांति के बांध एक सीमा तक टूट-फूट गये थे। जाति-प्रथा और कर्मकांड को उन्होंने तोड़ने का उपदेश दिया। उन्होंने बाह्य विधान का विरोध किया और आंतरिक साधना पर बल दिया। उन्होंने लोगों को निश्छल भाव से भक्ति की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न किया। अपने भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने सरल व्यावहारिक ब्रजभाषा को अपनाया, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ीबोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का मिश्रण है।

इनकी रचनाओं का कोई व्यवस्थित संकलन नहीं है, वह मात्र फुटकल के रूप में ही उपलब्ध होता है। उनके 40 पद “आदिग्रंथ” गुरुग्रंथ साहिब में संगृहीत हैं। अनन्यता, भगवत्‌ प्रेम, दैन्य, आत्मनिवेदन और सरल हृदयता इनकी रचनाओं की विशेषता है। सामाजिक एकता, सौहार्द्र और समरसता के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। सारा जीवन वे लोककल्याण हेतु कार्य करते रहे। मीरा स्मृति ग्रंथ के अनुसार विक्रम संवत 1584 (सन 1527) में वे ब्राह्मलीन हुए। उनका मोक्ष स्थान काशी का गंगा घाट था। भक्तमाल के अनुसार चित्तौड़ की रानी उनकी शिष्या बन गई थीं। चित्तौड़ में उनके सम्मान में मंदिर और तालाब बनवाए गए थे। वहां आज भी रैदास जी की छतरी बनी है।

उन दिनों भारत के समाज में जातिवाद और छुआछूत जैसी कुप्रथाएं विद्यमान थी और समाज इन बुराईओं को इन कुरीतियों को दूर करने के लिए संघर्षरत था। समाज में विघटन था, विद्वेष था, असमानता थी। ऐसे हिंदू समाज के बीच संत रैदास ने बहुत ही सीधी-सादी ज़बान में समाज को एक्जुट रखने का प्रचार किया। सामाजिक बुराईयों का खुलकर विरोध किया। अंधविश्वास, कुरीतियों और कुप्रथाओं के ख़िलाफ़ प्रचार किया। जो अपने लिए कोई भी इच्छा न रखे और परोपकार में अपना जीवन बिताए ऐसे लोगों को संत कहते हैं। रविदास सच्चे मायनों में सही संत थे। उनके उपदेश हमें हमेशा कर्म, सच्चाई और सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।

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फ़ुरसत में … प्रेम-प्रदर्शन

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फ़ुरसत में … 

प्रेम-प्रदर्शन


मनोज कुमार
आज के विशिष्ट दिन पर इसी ब्लॉग से पुरानी रचना को झाड़-पोंछ कर सामने रख रहा हूं ...

एक वो ज़माना था जब वसंत के आगमन पर कवि कहते थे,
अपनेहि पेम तरुअर बाढ़ल
कारण किछु नहि भेला ।
साखा पल्लव कुसुमे बेआपल
सौरभ दह दिस गेला ॥ (विद्यापति)

आज तो न जाने कौन-कौन-सा दिन मनाते हैं और प्रेम के प्रदर्शन के लिए सड़क-बाज़ार में उतर आते हैं। इस दिखावे को प्रेम-प्रदर्शन कहते हैं। हमें तो रहीम का दोहा याद आता है,
रहिमन प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन॥
खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान।
रहिमन दाबे ना दबत जान सकल जहान॥

हम तो विद्यार्थी जीवन के बाद सीधे दाम्पत्य जीवन में बंध गए इसलिए प्रेमचंद के इस वाक्य को पूर्ण समर्थन देते हैं, “जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति मात्र है --- जिसका कोई टिकाव नहीं।”

आज सुबह-सुबह नींद खुली, बिस्तर से उठने जा ही रहा था कि श्रीमती जी का मनुहार वाला स्वर सुनाई दिया, “कुछ देर और लेटे रहो ना।”

जब नींद खुल ही गई थी और मैं बिस्तर से उठने का मन बना ही चुका था, तो मैंने अपने इरादे को तर्क देते हुए कहा, “नहीं-नहीं, सुबह-सुबह उठना ही चाहिए।”

“क्यों? ऐसा कौन-सा तीर मार लोगे तुम?”

मैंने अपने तर्क को वजन दिया, “इससे शरीर दुरुस्त और दिमाग़ चुस्त रहता है।”

अब उनका स्वर अपनी मधुरता खो रहा था, “अगर सुबह-सुबह उठने से दिमाग़ चुस्त-दुरुस्त रहता है, तो सबसे ज़्यादा दिमाग का मालिक दूधवाले और पेपर वाले को होना चाहिए।”

“तुम्हारी इन दलीलों का मेरे पास जवाब नहीं है।” कहता हुआ मैं गुसलखाने में घुस गया। बाहर आया तो देखा श्रीमती जी चाय लेकर हाज़िर हैं। मैंने कप लिया और चुस्की लगाते ही बोला, “अरे इसमें मिठास कम है ..!”

श्रीमती जी मचलीं, “तो अपनी उंगली डुबा देती हूं .. हो जाएगी मीठी।”

मैंने कहा, “ये आज तुम्हें हो क्या गया है?”

“तुम तो कुछ समझते ही नहीं … कितने नीरस हो गए हो?” उनके मंतव्य को न समझते हुए मैं अखबार में डूब गया।

मैं आज जिधर जाता श्रीमती जी उधर हाज़िर .. मेरे नहाने का पानी गर्म, स्नान के बाद सारे कपड़े यथा स्थान, यहां तक कि जूते भी लेकर हाजिर। मेरे ऑफिस जाने के वक़्त तो मेरा सब काम यंत्रवत होता है। सो फटाफट तैयार होता गया और श्रीमती जी अपना प्रेम हर चीज़ में उड़ेलती गईं।

मुझे कुछ अटपटा-सा लग रहा था। अत्यधिक प्रेम अनिष्ट की आशंका व्यक्त करता है।

जब दफ़्तर जाने लगा, तो श्रीमती जी ने शिकायत की, “अभी तक आपने विश नहीं किया।”

मैंने पूछा, “किस बात की?”

बोलीं, “अरे वाह! आपको यह भी याद नहीं कि आज वेलेंटाइन डे है!”

ओह! मुझे तो ध्यान भी नहीं था कि आज यह दिन है। मैं टाल कर निकल जाने के इरादे से आगे बढ़ा, तो वो सामने आ गईं। मानों रास्ता ही छेक लिया हो। मैंने कहा, “यह क्या बचपना है?”

उन्होंने तो मानों ठान ही लिया था, “आज का दिन ही है, छेड़-छाड़ का ...”

मैंने कहा, “अरे तुमने सुना नहीं टामस हार्डी का यह कथन – Love is lame at fifty years! यह तो बच्चों के लिए है, हम तो अब बड़े-बूढ़े हुए। इस डे को सेलिब्रेट करने से अधिक कई ज़रूरी काम हैं, कई ज़रूरी समस्याओं को सुलझाना है। ये सब करने की हमारी उमर अब गई।”

“यह तो एक हक़ीक़त है। ज़िन्दगी की उलझनें शरारतों को कम कर देती हैं। ... और लोग समझते हैं ... कि हम बड़े-बूढ़े हो गए हैं।

“बहुत कुछ सीख गई हो तुम तो..।”

वो अपनी ही धुन में कहती चली गईं,
“न हम कुछ हंस के सीखे हैं,
न हम कुछ रो के सीखे है।
जो कुछ थोड़ा सा सीखे हैं,
तुम्हारे हो के सीखे हैं।”

मैंने अपनी झेंप मिटाने के लिए विषय बदला, “पर तुम्हारी शरारतें तो अभी-भी उतनी ही अधिक हैं जितनी पहले हुआ करती थीं ...”

उनका जवाब तैयार था, “हमने अपने को उलझनों से दूर रखा है।”
उनकी वाचालता देख मैं श्रीमती जी के चेहरे की तरफ़ बस देखता रह गया। मेरी आंखों में छा रही नमी को वो पकड़ न लें, ... मैंने चेहरे को और भी सीरियस कर लिया। चेहरे को घुमाया और कहा, “तुम ये अपना बचपना, अपनी शरारतें बचाए रखना, ... ये बेशक़ीमती हैं!”

अपनी तमाम सकुचाहट को दूर करते हुए बोला, “लव यू!”
और झट से लपका लिफ़्ट की तरफ़।

शाम को जब दफ़्तर से वापस आया, तो वे अपनी खोज-बीन करती निगाहों से मेरा निरीक्षण सर से पांव तक करते हुए बोली, “लो, तुम तो खाली हाथ चले आए …”

“क्यों, कुछ लाना था क्या?”

बोलीं, “हम तो समझे कोई गिफ़्ट लेकर आओगे।”

मन ने उफ़्फ़ ... किया, मुंह से निकला, “गिफ़्ट की क्या ज़रूरत है? हम हैं, हमारा प्रेम है। जब जीवन में हर परिस्थिति का सामना करना ही है तो प्रेम से क्यों न करें?

लेकिन वो तो अटल थीं, गिफ़्ट पर। “अरे आज के दिन तो बिना गिफ़्ट के नहीं आना चाहिए था तुम्हें, इससे प्यार बढ़ता है।”

मैंने कहा, “गिफ़्ट में कौन-सा प्रेम रखा है? ...” अपनी जेब का ख्याल मन में था और ज़ुबान पर, “जो प्रेम किसी को क्षति पहुंचाए वह प्रेम है ही नहीं।” मैंने अपनी बात को और मज़बूती प्रदान करने के लिए जोड़ा, “टामस ए केम्पिस ने कहा है – A wise lover values not so much the gift of the lover as the love of the giver. और मैं समझता हूं कि तुम बुद्धिमान तो हो ही।”

उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि आज ... यानी प्रेम दिवस पर उनके प्रेम कभी भी बरस पड़ेंगे। मेरा बार बार का एक ही राग अलापना शायद उनको पसंद नहीं आया। सच ही है, जीवन कोई म्यूज़िक प्लेयर थोड़े है कि आप अपना पसंदीदा गीत का कैसेट बजा लें और सुनें। दूसरों को सुनाएं। यह तो रेडियो की तरह है --- आपको प्रत्येक फ्रीक्वेंसी के अनुरूप स्वयं को एडजस्ट करना पड़ता है। तभी आप इसके मधुर बोलों को एन्ज्वाय कर पाएंगे।

मैंने सोचा मना लेने में हर्ज़ क्या है? अपने साहस को संचित करता हुआ रुष्टा की तरफ़ बढ़ा।

“हे प्रिये!”

“क्या है ..(नाथ) ..?”

“(हे रुष्टा!) क्रोध छोड़ दे।”

“गुस्सा कर के मैं कर ही क्या लूंगी?”

“मुझे अपसेट (खिन्न) तो किया ही ना ...”

“हां-हां सारा दोष तो मुझमें ही है।”

“चेहरे से से लग तो रहा है कि अब बस बरसने ही वाली हो।”

“तुम पर बरसने वाली मैं होती हूं ही कौन हूं?”

“मेरी प्रिया हो, मेरी .. (वेलेंटाइन) ...”

“वही तो नहीं हूं, इसी लिए ,,, (अपनी क़िस्मत को कोस रही हूं) ...”

"खबरदार! ऐसा कभी न कहना!!"

"क्यों कहूंगी भला! मुझे मेरा गिफ्ट मिल जो गया. सब कुछ खुदा से मांग लिया तुमको मांगकर!"

"........................"
***
हमारे जीवन में हमारा प्रेम-प्रदर्शन इसी तरह होता आया है।


हमेशा ख़ुश दिखाई देता पत्रिंगा

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पत्रिंगा

मेरॉप्स ओरिएंटेलिस– Merops orientalis

(Merops : Gr – the bee-eater, orientalis : L, eastern)

स्मॉल ग्रीन बी-ईटर

स्थानीय नाम : इसे हिन्दी में हरियल और पत्रिंगा या हरियल कहते हैं। पंजाबी में यह छोटा पत्रंगा, बांग्ला में बांशपाती, मराठी में ताईलिंगी, वेदराघू, पतुर, पेतरी, गुजराती में नानो पत्रंगियो, कच्छ में छोटा हजामदा, असमिया में हरियल सोराई, कन्नड़ में सन्ना पतंगा, तेलुगु में चिन्ना पज़ेरिकी और मलयालम में वेलि तट्टा कहलाता है।

पहचान : पत्रिंगा एक रंगीन खूबसूरत और शहर के आस-पास, गांव के गाछों पर, हाईवे के किनारे टेलीफोन या बिजली के तार पर दिखने वाली बहुत ही आम चिडिया है। एक डाल से दूसरी डाल पर फुदकती हुई यह चिड़िया हमेशा ख़ुश दिखाई देती है। आराम के समय एक जगह से उड़ कर फिर उसी जगह आकर बैठना इनकी आदत में शुमार है। इसका आकार गौरैया के समान 21 से.मी. का होता है। इस पक्षी का रंग मुख्य रूप से हरी घास सा चमकता हुआ होता है। इसके सर ओर गले पर कत्थई रंग का हल्का सी परछांई होती है। इसकी पूंछ के बीच में दो पंख काफ़ी लंबे होते हैं और आगे जाकर भोथरे पिन की तरह दिखाई देते हैं। इसकी चोंच लम्बी-पतली और जरा मुडी हुई होती है, जिससे कीडे पकडने में आसानी होती है। व्यस्क के गले में एक गहरी काली धारी होती है जो नैकलेस जैसी लगती है, किशोर में यह धारी नहीं होती। नर-मादा समान रंग और आकृति के होते हैं।

स्वभाव : इन्हें जोडे में या छोटे समूह में टेलीफोन के तारों, पेड क़ी टहनियों पर बैठे देखा जा सकता है। इसे खुले हरे-भरे इलाके, बाग, खेत, हलके जंगल, गोल्फ लिन्क, परती भूमि, आदि में रहना ही पसंद है। कभी कभी नदी के रेतीले किनारे और समुद्र तटों पर भी पाई जाती है। हवा में उड़कर ये मधु मक्खी आदि को अपनी लंबी-पतली चोंच में तड़क से पकड़ते हैं फिर पंखों से घेर कर अपने बसेरे तक पहुंचते हैं जहां अपने शिकार को मारकर निगल जाते हैं। यह पक्षी उड़ते और आराम करते समय भी टिट-टिट या ट्रीऽऽ ट्रीऽऽ जैसी आवाज निकालता है।

वितरण : हिमालय की 1000 मी की ऊंचाई से लेकर पत्रिंगा पूरे भारत में पाया जाता है। पाकिस्तान, बांगलादेश, श्रीलंका, म्यानमार का भी यह निवासी या स्थानीय प्रवासी पक्षी है।

भोजन : पत्रिंगा का भोजन उड़ने वाले कीट-पतंगे जैसे तितलियां, मधुमक्खियां, ड्रेगन फ़्लाई आदि होता है।

प्रजनन : इसका नीडन समय फरवरी से मई के बीच होता है। इसका घोंसला एक लंबी पतली सुरंग सा होता है जिसे ये नदी के किनारे, भूमि कटाव की जगहों और कभी-कभी सपाट ज़मीन पर मिट्टी या रेत के अन्दर बनाते हैं। इनके घोंसले एक कॉलोनी के रूप में बसे होते हैं। इनके घोंसले आगे से संकरे होते हैं, पीछे जहाँ अण्डे होते हैं वहाँ थोड़ा चौड़ा कमरा होता है। नर और मादा दोनों मिलकर घोंसला बनाते हैं, अण्डे सेते हैं और अपने बच्चों को खाना खिलाते हैं, उडना सिखाते हैं। मादा एक बार में 4 से 7 गोलाकार अण्डे देती है जो कि एकदम सफेद होते हैं।

अन्य प्रजातियां : इसकी पांच और प्रजातियां हमारे देश में पाई जाती हैं।

1. बड़ा पत्रिंगा या ब्ल्यू टेल्ड बी-ईटर (मेरोप्स फिलीपाइनस)

2. ब्ल्यू चीक्ड बी-ईटर (मेरोप्स परसिकस)

3. ब्ल्यू बीयर्डेड बी-ईटर (नेक्टियोर्निस एथरटोनी)

4. चेस्टनटहेड बी-ईटर, (मेरोप्स लेस्चेनौल्टी)

5. यूरोपियन बी-ईटर (मेरोप्स एपिएस्टर)

***


गांधी जी का त्याग

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गांधी और गांधीवाद-155

1909

गांधी जी का त्याग

निरामिषभोजी होने की हैसियत से उन्हें दूध लेने का अधिकार है या नहीं, इस विषय पर गांधी जी ने खूब विचार किया। खूब पढ़ा भी। काफ़ी सोच-विचार कर उन्होंने दूध त्याग कर दिया। वे केवल सूखे और ताजे फलों पर रहने लगे। आग पर पकाई गई हर तरह की खुराक उन्होंने त्याग दी। केवल फल खाकर वे पांच साल तक रहे। इससे न उन्होंने कोई कमज़ोरी महसूस की और न उन्हें किसी प्रकार की कोई व्याधि ही हुई। शारीरिक काम करने की उनमें पूरी शक्ति वर्तमान थी। यहां तक कि वे एक दिन में पैदल 55 मील की यात्रा कर सकते थे। दिन में 40 मील की मंजिल तय कर लेना तो उनके लिए मामूली बात थी। गांधी जी का मानना है कि, “ऐसे कठिन प्रयोग आत्मशुद्धि के संग्राम के अंदर ही किए जा सकते हैं। आख़िर लड़ाई के लिए टॉल्स्टॉय फार्म आध्यात्मिक शुद्धि और तपश्चर्या का स्थान सिद्ध हुआ।”

दूध का त्याग

ब्रह्मचर्य की दृष्टि से गांधी जी के आहार में पहला परिवर्तन दूध के त्याग का हुआ। उन्हें रायचन्द भाई से मालूम हुआ था कि दूध इन्द्रिय-विकार पैदा करने वाली वस्तु है। अन्नाहार विषयक अंग्रेज़ी पुस्तक के पढ़ने से इस विचार में उनकी वृद्धि हुई। उन्हें लगने लगा कि शरीर के निर्वाह के लिए दूध आवश्यक नहीं है और इन्द्रिय-दमन के लिए दूध छोड़ देना चाहिए। उन्हीं दिनों कलकत्ते से कुछ साहित्य आया। जिसमें गाय-भैंस पर ग्वालों द्वारा किए जाने वाले क्रूर अत्याचारों की कथा थी। इस साहित्य में उन्होंने पढ़ा था कि भैंसों का दूध बढ़ाने के लिए उनके साथ निर्मम व्यवहार किया जाता है। इसका उन पर चमत्कारी प्रभाव हुआ। इसकी चर्चा उन्होंने कालेनबैक से की।कालेनबैक ने सलाह दी, “दूध के दोषों की चर्चा तो हम प्रायः करते ही हैं। तो फिर हम दूध छोड़ क्यों न दें? उसकी आवश्यकता तो है ही नहीं।गांधी जी ने इस सलाह का स्वागत किया और उन दोनों ने उसी क्षण टॉल्स्टॉय फार्म में दूध का त्याग किया।

गांधी जी ने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था। समस्या यह थी कि जननेन्द्रीय पर नियंत्रण किस प्रकार से किया जाए। उहोंने पढ़ रखा था कि यौन-प्रक्रियाओं को व्यक्ति का आहार प्रभावित करता है। उनका मानना था कि विकार से भरा मन ही विकारयुक्त आहार की तलाश करता है। इसलिए ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि आहार की मर्यादा बनाए रखी जाए। दूध उन्हें सबसे ज़्यादा विकारी लगता था। गांधी जी के अंग्रेज़ मित्र कालेनबाख ने राय दी कि दूध का त्याग किया जाए। दूध छोड़ने में नुकसान नहीं है। फ़ायदे ही हैं। और टाल्सटाय फार्म पर1912 में गांधी जी ने दूध के त्याग का व्रत ले लिया।

फलाहार का निश्चय

दूध छोड़ने के कुछ ही दिनों के बाद गांधी जी ने फलाहार के प्रयोग का भी निश्चय किया। फलाहार में भी जो सस्ते फल मिले, उनसे ही अपना निर्वाह करने का उनका और कालेनबाक का निश्चय था। अमीर, मोटे तौर पर समृद्ध व्यक्ति, कालेनबाख, मेहनत के हर काम और आहार संबंधी प्रयोगों में उनका साथ देते थे। ग़रीब से ग़रीब आदमी जैसा जीवन बिताता है, वैसा ही जीवन बिताने की उमंग उन दोनों की थी। फलाहार में चूल्हा जलाने की आवश्यकता तो होती ही नहीं थी। बिना सिकी मूंगफली, केले, खजूर, नीबू और जैतून का तेल यह उनका साधारण आहार बन गया।

हालांकि गांधी जी का मानना था कि ब्रह्मचर्य के साथ आहार और उपवास का निकट संबंध है और उसका मुख्य आधार मन पर है। फिर भी वे मानते थे कि मैला मन उपवास से शुद्ध नहीं होता। आहार का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। मन का मैल तो विचार से, ईश्वर के ध्यान से और आखिर ईश्वरी प्रसाद से ही छूटता है। किन्तु मन का शरीर के साथ निकट संबंध है। विकारयुक्त मन विकारयुक्त आहार की खोज में रहता है। विकारी मन अनेक प्रकार के स्वादों और भोगों की तलाश में रहता है। बाद में उन आहारों और भोगों का प्रभाव मन पर पड़ता है। इसलिए उस हद तक आहार पर अंकुश रखने की और निराहार रहने की आवश्यकता उत्पन्न होती है। विकारग्रस्त मन शरीर और इन्द्रियों को अंकुश में रखने के बदले शरीर के इन्द्रियों के अधीन होकर चलता है। इसलिए उपवास की आवश्यकता पड़ती है। जिसका मन संयम की ओर बढ़ रहा होता है, उसके लिए आहार की मर्यादा और उपवास बहुत मदद करने वाले हैं।

उपवास

जिन दिनों गांधी जी ने फलाहार का प्रयोग शुरू किया था, उन्हीं दिनों उन्होंने संयम हेतु उपवास भी शुरू कर दिया था। इसमें भी कालेनबैक उनका साथ देने लगे थे। किसी मित्र ने उनसे कहा था कि देह-दमन के लिए उपवास की आवश्यकता है। बचपन से ही उन्होंने व्रत आदि किया था। बाद में आरोग्य की दृष्टि से उपवास रखा करते थे। किन्तु अब अपने ब्रह्मचर्य-व्रत को सहारा देने के लिए उपवास रखने का उन्होंने निश्चय किया था। फलहारी उपवास तो अब वे रोज़ ही रखने लग गए थे। इसलिए अब पानी पीकर उपवास रखने लगे थे। फार्म में बहुत से लोगों ने एकादशी व्रत का उपवास रखने लगे थे। बहुत से लोगों ने चतुर्मास किया।

फार्म पर हिंदू, मुसलमान, पारसी और ईसाई सब धर्मों के बच्चे थे। गांधी जी यह खास ध्यान देते कि हर बच्चा अपने धर्म का पालन करे। श्रावण का महीना था। यह रमज़ान का भी महीना था। इस महीने उन्होंने उपवास का व्रत रखना चाहा। इस प्रयोग का प्रारम्भ टॉल्स्टॉय आश्रम में हुआ। कालेनबैक के साथ उन दिनों वे सत्याग्रही क़ैदियों के परिवार के सदस्यों की वे देख-रेख किया करते थे। इनमें बालक और नौजवान भी थे। उनके लिए स्कूल चलता था। इन नौजवानों में चार-पांच मुसलमान भी थे। उनके लिए नमाज़ वगैरह की सारी सुविधाएं मौज़ूद थीं। गांधी जी ने मुसलमान नौजवानों को रोज़ा रखने के लिए प्रोत्साहित किया। उन लोगों को कठिन उपवास सहन हो और उन्हें अकेलापन महसूस न हो, इसलिए गांधी जी और कालेनबाक भी उन लोगों के समान दिन-भर का निर्जला व्रत रखते थे। गांधी जी के द्वारा प्रोत्साहित किए जाने के बाद न सिर्फ़ मुसलमानों ने बल्कि पारसियों और हिन्दुओं ने भी रोज़ा रखने में उनका साथ दिया। मुसलमान तो शाम तक सूरज डूबने की राह देखते थे, जबकि हिन्दू या पारसी उससे पहले खा लिया करते थे, जिससे वे मुसलमानों को परोस सकें और उनके लिए विशेष वस्तु तैयार कर सकें। इसके अलावे मुसलमान सहरी खाते थे। इस प्रयोग का परिणाम यह हुआ कि लोग उपवास और एकाशन का महत्व समझने लगे। इससे एक-दूसरे के प्रति उदारता और प्रेमभाव में वृद्धि हुई।

आश्रम में अन्नाहार का नियम था। रोज़े के दिनों में मुसलमानों को मांस का त्याग कठिन तो प्रतीत हुआ लेकिन उन्होंने गांधी जी को उसका पता भी नहीं चलने दिया। वे आनंद और रस-पूर्वक अन्नाहार करते थे। इस प्रकार आश्रम में संयम का वातावरण बना रहा। उपवास आदि से गांधी जी पर आरोग्य और विषय-नियमन की दृष्टि से बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। गांधी जी का मनना था कि इन्द्रिय-दमन हेतु किए गए उपवास से ही विषयों को संयत करने का परिणाम निकल सकता है। संयमी के मार्ग में उपवास आदि एक साधन के रूप में हैं, किन्तु ये ही सबकुछ नहीं हैं। यदि शरीर के उपवास के साथ मन का उपवास न हो, तो वह हानिकारक सिद्ध होता है।

***

सफेद और काली धारियों वाला - हुदहुद

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सफेद और काली धारियों वाला

हुदहुद (Common Hoopoe – Upupa epops - उपुपा एपोप्स)

स्थानीय नाम : इसे हिंदी, उर्दू, मराठी, गुजराती में हुदहुद कहते हैं। पंजाबी में चक्कीराहा बेबेदुख और गुजराती में घंटी हांकनो कहते हैं। तेलुगु में इसे कोंडा पिट्टा, किरीटम पिट्टा और कूकूडु गुवा नामों से जाना जाता है। तमिल में इसे चावल कुरूवि तथा मलयालम में उप्पुप्पन कहा जाता है। बंगाल में इसे मोहनचूड़ा कहा जाता है।

विवरण व पहचान :

लंबाई में 12 ईंच (30 से.मी) का यह एक बहुत सुंदर पक्षी है। इसका आकार लगभग मैना जैसा होता है। इस पक्षी में नर और मादा देखने में एक से ही होते हैं। इसका सारा शरीर पीला-भूरा या हलके बादामी रंग का होता है, जिस पर सफेद और काली धारियां होती हैं। सिर पर एक पंखे के आकार की चोटी होती है जिसे कलगी (Crest) कहते हैं। कलगी इनके सौन्दर्य को बढ़ाती है। कलगी का सिरा काला-सफेद होता है। इस चोटी को यह पंखी की तरह फैला लेता है। शरीर की पोशाक काफ़ी भड़कीली होती है। पंख लाल-सा भूरा-हलके पीले रंग का होता है। पीठ, पंख और पूँछ पर काली-सफेद जेब्रा जैसी धारियाँ होती हैं। गर्दन का अगला हिस्सा बादामी रंग का होता है। जबकि दुम का भीतरी हिस्सा सफेद और बाहरी काले रंग का होता है। इसके पंखों की कलम (Quill) और चोंच काली होती है। इसका पेट सफेद होता है। इसकी फोरसेप यानी चिमटी जैसी जरा सी खुली लम्बी पतली चोंच हलकी सी मुडी हुई होती है, जिससे कि इसे कीडे पकडने में आसानी रहती है। कई लोग इसे वुडपैकर यानि कठफोडवा समझने की गलती करते हैं।

व्याप्ति :

हुदहुद विश्व में सबसे अधिक स्थानों पर पाए जाने वाले दस पक्षियों में से एक है। दक्षिणी यूरोप, अफ़्रीका और पूरे एशिया में पाया जाता है। यह पूरे भारत में पाया जाता है।

अन्य प्रजातियां :

a) U. orientalis – उत्तरी भारत में बहुतायत में पाया जाता है।

b) U. ceylonensis – सिलोन तक पाया जाता है।

c) U. epops – हिमालय के क्षेत्र में प्रजनन करता है और जाड़े के ऋतु में समतल इलाकों में चला आता है। जाड़ों में बंगाल और बिहार के कई हिस्सों में यह देखा गया है।

hudhud116 मार्च 2014 को गांगासागर (प. बंगाल) की यात्रा के दौरान सड़क के किनारे हरी घास के समतल क्षेत्र पर इसे फुदकते देखा। जब यह छोटी-छोटी उड़ान भर रहा था तो इसकी कलगी खुली और फैली थी। जब यह मिट्टी के अन्दर कीड़े आदि का शिकार कर रहा था तो इसकी कलगी सिमटी थी। जब इसके काफी नज़दीक पहुंचा तो उड़ कर भाग गया।

आदत और वास

घने जंगलों में रहना पसंद नहीं करता। इसे गार्डन, बैकयार्ड और हरी घास के मैदान पसंद आते हैं, इसे शहरों, गाँवों में और हमारे आस-पास ही रहना अच्छा लगता है। ज़मीन पर यह आसानी से चहलकदमी करता है और दौड़ता भी है। इसकी उडानें छोटी होती हैं, और कई बार यह फुदक-फुदक कर दौड क़र भी काम चला लेता है। छेड़े जाने पर यह यह पेड़ की शाखाओं या भवनों के ऊपर जा बैठता है लेकिन यह यह ज़मीन पर हरे-भरे मैदानों में ही खाना पसंद करता है। इसका भोजन कीडे और उनके अण्डे और लार्वा-प्यूपा होते हैं। यह अपनी तीखी चोंच से जमीन पर से कीडे चुन कर खाता है। जब यह मिट्टी खोद कर कीडे चुनता है तब इसकी पंखेनुमा क्रेस्ट बंद रहती है, बाक़ी वक्त वह इसे खोलता-समेटता रहता है। हुदहुद किसानों के लिए बहुत ही उपयोगी पक्षी है क्योंकि यह काफ़ी हानिकारक कीड़ों और ज़मीन के भीतर दबी लार्वी को चट कर जाता है, जिन तक दूसरे पक्षी पहुंच ही नहीं सकते। इसकी आवाज बडी अच्छी और सुरीली होती है जो कि इसके नाम से मिलती है, दरअसल इस आवाज से ही इसका नाम हूप्पो पडा होगा। यह हू-पो या हू-पो-पो की लगातार आवाज निकालता है और अकसर कुछ पलों के अन्तर से पाँच मिनट तक यह आवाज क़रता रहता है। हुदहुद धूल से नहाने वाले पक्षियों में से एक है।

प्रजनन :

इसका प्रजनन काल फरवरी से जुलाई तक होता है, लेकिन अधिकांश हुदहुद अप्रैल से मई के बीच अपना घोंसला बनाते हैं। इसके घोंसले बस यूं ही कभी पेड क़े खोखले कोटर में या किसी पुरानी इमारत की दीवारों, छतों की दराद में बने होते हैं। यह घोंसला बनाने में कोई खास मेहनत नहीं करता बस घास-तिनकों, बाल, पत्ते या पंखों, कूडे-क़रकट से अपना घोंसला बनाता है। इसका घोंसला बहुत ही अस्त-व्यस्त, बेढ़ंग और गंदा होता है। जब अंडे देने का वक़्त होता है, तो मादा हुदहुद बहुत ही खराब बदबू विकसित कर लेती है और शायद ही कभी घोंसला छोड़ती है। यह अंडों पर से तब तक नहीं हटती जब तक कि उन्हें फोड़कर बच्चे बाहर नहीं निकल आते। इस दौरान उसके भोजन की व्यवस्था नर ही करता है। जब अंडों के सेती है तो घोंसला कभी साफ़ नहीं करती। सारी गन्दे पदार्थ ज्यों-के-त्यों छोड़े रहती है। इसलिए इसका घोंसला गन्दगी और बदबू से भरा होता है। इसके अण्डे सफेद होते हैं और मादा हूप्पो एक बार में 3 से 10 तक अण्डे देती है। अंडा लंबा अंडाकार और सफेद रंग का होता है। सिरे पर नुकीला भी होता है। इनके बढ़ते चूजे हमेशा भूखे होते हैं और नर और मादा दोनों मिलकर बच्चों को पालते हैं, उन्हें भोजन लाकर खिलाते हैं और शत्रुओं से रक्षा करते हैं। मादा साल में दो बार अण्डे देती है।

***

संदर्भ

1. भारतीय वन्य प्राणियों के संरक्षित क्षेत्रों का विश्वकोश – शिवकुमार तिवारी

2. The Book Of Indian Birds – Salim Ali

3. Birds of the Indian Subcontinent – Richard Grimmett, Carol Inskipp and Tim Inskipp

4. Latin Names of Indian Birds – Explained – Satish Pande

5. The Migration of Animals – R. Alviin Cahn*

6. हमारे पक्षी – असद आर. रहमानी

7. The Birds – R. L. Kotpal

8. प्रवासी पक्षी – डॉ. अशोक कुमार मल्होत्रा, श्याम सुंदर शर्मा

9. भारत का राष्ट्रीय पक्षी और राज्यों के राज्य पक्षी – परशुराम शुक्ल

10. A Birds Eye View – Salim Ali , (vol-one) Ed – Tara Gandhi

11. A Birds Eye View – Salim Ali , (Vol-Two) Ed – Tara Gandhi

12. Pashchimbanglar Pakhi – Pranabesh Sanyal & Biswajit Roychowdhury

13. The migration of Birds - Jean *

14. A Poular Handbook of Indian Birds, Hugh Whistler

15. एन्साइक्लोपीडिया – पक्षी जगत – राजेन्द्र कुमार राजीव

मैं तुम्हारे स्वप्न का संसार बन कर क्या करूँ....

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मैं तुम्हारे स्वप्न का संसार बन कर क्या करूँ?


-         करण समस्तीपुरी

मैं तुम्हारे स्वप्न का संसार बन कर क्या करूँ?
मैं तुम्हारे विश्व का आधार बन कर क्या करूँ??
मुख के ऊपर हैं मुखौटे अनगिनत,
मैं तुम्हारे रूप का श्रृंगारबन कर क्या करूँ??

शब्द लज्जित, सर उठाती वेदना।
भाव कुंठित, मूक सी संवेदना॥
बिम्ब है बौना बड़ा प्रतिबिम्ब है।
किस नये युग का कहो आरंभ है॥
धूल-धुसरित मान्यताएँ रो रहीं,
मैं तुम्हारी नीति के अनुसार बन कर क्या करूँ?

खा रही हैं सीपियों को मोतियाँ।
शव के ऊपर सेंकते हैं रोटियाँ॥
फूल से सहमी हुई फुलवारियाँ।
इस फ़सल पे रो रही है क्यारियाँ॥
मृत्यु की अभ्यर्थना के अर्थ में,
मैं तुम्हारे मंत्र का उच्चार बन कर क्या करूँ??

हर सिंहासन पर जमा धृतराष्ट्र है।
मूक, बधीरों, कायरों का राष्ट्र है॥
सत्य पर प्रतिबंध, झूठे हैं भले।
छोड़ दामन सर्प छाती में पले॥
छल से छलनी आत्मा अपनी लिए,
मैं तुम्हारे प्रेम का व्यवहार बन कर क्या करूँ??



भुजंगा : एक चौकीदार पक्षी

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भुजंगा : एक चौकीदार पक्षी

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अंग्रेज़ी में नाम : Black Drongo

वैज्ञानिक नाम :डिक्रुरस मैक्रोसरकस (Dicrurus macrocercus) {Dikros gr. Forked, orous – tailed = long tailed)

स्थानीय नाम : हिंदी में इसे कोतवाल, कालकलछी, कोलसा कहा जाता है। पंजाबी में जपल कालकलिची और बांग्ला में फिंगा के नाम से जाना जाता है जबकि कच्छ में इसे कांछ और कालकांछ कहते हैं। गुजराती में कोसीता, कालो कोषी तथा मराठी में कोतवाल कहा जाता है। असमिया में यह फैंचु और घेन्घ्यू सोराई तथा उड़िया में काजलपाती के नाम से जाना जाता है। कन्नड़ में कारी भुजंगा, मणिपुरी में चरोई, तेलुगु में पसाला पोलि गुड्डु, तमिल में कारी करूमन, करूवटु वलि और मलयालम में तम्पुरट्टि अनारंछि कहलाता है।

विवरण व पहचान : बुलबुल के आकार के 31 से.मी. की लंबाई वाले इस दुबले-पतले पक्षी का रंगकौए की तरह चमकदार काला, बेहद कुरूप और अनाकर्षक होता है। नर और मादा एक ही तरह के होते हैं। इसकी पूंछ 6 इंच लंबी और दुपंखी होती है। ऊपरी भाग अधिक काला होता है। गरदन का भाग चमकीला नीला-काला होता है। टांगें छोटी होती हैं। आंख के आगे एक काला धब्बा होता है। आंख की पुतली लाल और चोंच और पैर काला होता है।

व्याप्ति : सम्पूर्ण भारत में, बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका अफ़गानिस्तान, इंडोनेशिया, और म्यानमार में।

अन्य प्रजातियां : पंख,पूंछ और चोंच के आधार पर अन्य प्रजातियां पाई जाती हैं।

1. भीमराज या भांगराज Greater Racket-tailed Drongo (डिक्रूरस पैराडिसेएसस) – पूंछ के पंख दो तार के समान लंबे होते हैं। ये पंख अंत में चम्मच या रैकेट के समान संरचना बनाते हैं।

2. लेसर रैकेट टेल्ड ड्रोंगो (डिक्रूरस रेमिफर) – हिमालय क्षेत्र में पाया जाता है।

3. ब्रोंज्ड ड्रोंगो (डिक्रूरस एनेयस) – चौड़ी पत्तियों वाले जंगलों में पाया जाता है।

4. Ashy Drongo – D. leucophaeus

5. White-bellied Drongo – D. caerulescens

6. Crow-billed drongo – D. annectans

7. Hair-crested Drongo or Spangled Drongo – D. hottentottus

8. Andaman Drongo – D. andamanensis

9. Ceylon Crested Drongo – D. lophorinus

आदत और वास : खुले देहातों, खेतों, प्रायः घास चरते जानवरों के झुंड का पीछा करते हुए या टेलीफोन के तारों पर बैठा हुआ इसे देखा जा सकता है। यह एक कीटभक्षी पक्षी है। इसका मुख्य आहार छोटे-छोटे कीड़े और पतंगे हैं। किसानों के लिए यह बहुत उपयोगी पक्षी है। फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों को यह बहुत बड़ी संख्या में खा जाता है। कीड़ों की कोई भी गतिविधि इससे छुपी नहीं रह सकती। खुली जगह से यह कीटों पर नज़र जमाए रहता है। दिखते यह उन पर झपट पड़ता है और पैरों में जकड़ कर ले उड़ता है। फिर उनके टुकड़े कर डालता और निगल जाता है। चरते हुए जानवरों की पीठ पर बैठ कर यह उनके द्वारा घासों में उत्पन्न हलचल से इधर-उधर भागते कीटों को पकड़ कर उनका शिकार करता है। जंगल में आग लगने पर या किसानों द्वारा फसल की बोआई के लिए खेतों में आग लगाए जाने पर बड़ी संख्या में कीटों को पकड़ने में लग जाता है। कीटों के अलावा यह फूलों के मकरंद को भी खाता है। यह बहुत बहादुर, निर्भीक और लड़ाकू पक्षी होता है। यह चील जैसे बड़े-बड़े पक्षियों पर हमला कर देता है। यह चौकीदार पक्षी की श्रेणी में आता है। जब भी दुश्मन को आसपास फटकते देखता है यह ज़ोर-ज़ोर से शोर मचाने लगता है ताकि अन्य पक्षी भी सावधान हो जाएं। इसके इस गुण के कारण इसे ‘कोतवाल’ नाम से भी जाना जाता है।यह किसी भी पक्षी को अपने घोंसले के पास फटकने नहीं देता। कौओं और चीलों से अपने घोंसले की रक्षा काफ़ी उग्रता से करता है। कभी-कभी तो यह बन्दर की भी खबर ले लेता है यदि वे इनके घोंसले की तरफ़ जाने की चेष्टा करता है तो! चोंच से यह उन पर प्रहार करता है और मार-मार कर उन्हें भागने पर विवश कर देता है। उसके इस गुण का फ़ायदा अन्य पक्षी भी उठाते हैं। फ़ाख्ता जैसे कुछ डरपोक पक्षी अपने नवजात बच्चों की सुरक्षा के लिए ऐसे पेड़ पर अपना घोंसला बनाते हैं, जहां कोतवाल जैसा साहसी पक्षी रहता है।कोतवाल अपने साहस के लिए जाना जाता है। भुजंगा अन्य दुशमन पक्षी को उस पेड़ के आस-पास आने नहीं देता बल्कि उन बड़े पक्षियों पर हमला बोल देता है। इसलिए जिस पेड़ पर कोतवाल रहता है उस पेड़ पर अन्य पक्षियों के पल रहे बच्चे सुरक्षित रहते हैं। ‘टि-टिउ’ और ‘चिक्‌-चिक्‌’ की इसकी आवाज़ बहुत ही कर्कश होती है।

प्रजनन :

इसका प्रजनन काल अप्रैल से अगस्त तक होता है। इसका घोंसला प्याले के आकार का होता है जो किसी वृक्ष की द्विशाखित शाखा पर टंगा होता है। घोंसलों का निर्माण टहनियों और रेशों से होता है जिसमें मकड़ी के जालों से इसके सतह को ढंक दिया जाता है। कभी-कभी यह पत्ते रहित पेड़ पर भी पाया जाता है। यह किसी को भी दिख सकता है। मादा 3-5 अंडे देती है। अंडे का रंग सफेद होता है जिसपर भूरा-लाल धब्बे होते हैं। नर और मादा दोनों मिलकर बच्चे का लालन-पालन करते हैं।

मनोज कुमार

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बिगड़े लड़के

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गांधी और गांधीवाद-156

1909

बिगड़े लड़केDSC00078

टॉल्सटॉय फार्म में गांधी जी ने सह-शिक्षा का प्रयोग किया। लड़के-लड़कियां वहां आज़ादी से साथ उठते-बैठते। इस कारण आश्रम जीवन में कुछ परेशानियां भी आईं। आश्रम में लड़के और लड़कियां मुक्त रूप से मिलते थे। लड़के और लड़कियों को साथ नहाने के लिए भेजा जाता। इसके पहले गांधी जी ने उन्हें मर्यादा धर्म के बारे में विस्तार से समझाया था। स्नान का समय नियत था। लड़के-लड़कियां साथ जाते। गांधी जी भी उसी वक़्त वहां पहुंचते। गांधी जी उन बच्चों पर एक मां की तरह नज़र रखते थे। रात में सभी खुले बारामदे में सोते। दो बिस्तरों के बीच मुश्किल से तीन फुट का अंतर होता। स्कूल के युवकों को इस इस बात के लिए प्रेरित किया जाता कि बीमारी में वे एक-दूसरे की सेवा करें।

यहां कुछ बिगड़े लड़के भी थे। इनके कारण वहां का वातावरण दूषित हो रहा था। गांधी जी के अपने बच्चे भी उनकी संगति में थे। कालेनबाख ने गांधी जी को बताया कि लफ़ंगे लड़के के साथ रहकर उनके खुद के तीनों लड़के बिगड़ रहे हैं। उन्हें मना करें कि वे उनके साथन घूमें-फिरें। लेकिन गांधी जी ने ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि वे अपने पराए में भेद नहीं कर सकते। आगे चलकर उनके अपने बच्चों में गहरे विकार आ गए थे। कस्तूर को यह सब देख-सुनकर डर लगा रहता था। उनके बेटे बड़े हो रहे थे। ये उम्र ऐसी थी जब लड़के-लड़कियों को एकसाथ रखना खतरे से खाली नहीं था। उन्होंने गांधी जी को ऐसा प्रयोग करने के बारे में चेतावनी भी दी थी।

एक दिन किसी विद्यार्थी ने गांधी जी को ख़बर दी कि एक लड़के ने दो लड़कियों के साथ मज़ाक़ किया है। गांधी जी ने जांच की तो उन्हें पता लगा कि बात सच है। उन्होंने युवकों को समझाया। लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं था। वे चाहते थे कि दोनों लड़कियों के शरीर पर कोई चिह्न हो, जिससे हर युवक यह समझ सके कि लड़कियों पर बुरी नज़र नहीं डाली जा सकती। लड़कियां भी यह समझ सकें कि उनकी पवित्रता पर कोई हाथ नहीं डाल सकता। ऐसा कौन सा चिह्न दिया जाए इस पेशोपेश में वे रात भर सो नहीं सके। सुबह में उन्होंने लड़कियों को बुलाया। उन्हें समझाया और सलाह दी कि वे उन्हें उनके केश कतर देने की इजाज़त दें। बड़ी महिलाओं को भी उन्होंने बात समझाई। सभी ने गांधी जी के मकसद को समझा और इसकी इजाज़त उन्हें दे दी। गांधी जी ने उन लड़कियों के केश काट दिए। इसका परिणाम अच्छा रहा। इसके बाद लड़कों ने इस तरह का दुस्साहस नहीं किया।

एक सह-शैक्षिक प्रयोग में मठों जैसे ब्रह्मचर्य को बनाए रखना हमेशा आसान नहीं होता। यौन संबंधी दुस्साहस को गांधी जी सबसे अधिक पापपूर्ण भटकाव मानते थे। एक बार एक लड़की बीमार पड़ी। एक लड़का, गांधी जी की हिदायतों के मुताबिक, प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से उसका इलाज कर रहा था। लड़की को फ़ायदा भी हो रहा था। इसी बीच कानाफ़ुसी भी शुरू हो गई। गांधी जी ने किसी भी अफ़वाह को मानने से इंकार कर दिया। वे टॉल्सटॉय फार्म पर थे और ये युवक फिनिक्स में। एक दिन गांधी जी ने सुना कि उनके बेटे और कुछ अन्य युवकों ने यौन भावनाओं के वशीभूत होकर उनके विश्वास के प्रतिकूल काम किया है। अभी तक तो वे मानते थे कि शादी और यौनाचार के बारे में उनके विचारों को उनके बेटों ने आत्मसात कर लिया होगा। लेकिन जब फीनिक्स बस्ती में हुए इस “नैतिक भूल” (संभवतः विषयासक्ति संबंधी) का पता चला, और यह सुना कि उनके बेटे ने भी पशुवत व्यवहार किया है, तो उन्हें बेहद गहरा सदमा लगा। वे बिल्कुल चुप हो गए। एकांतवास में चले गए। उन्होंने अपना सभी समाज कार्य बंद कर दिया। वे ट्रांसवाल से नेटाल चले गए। कई दिनों के बाद उन्होंने मुज़रिमों से बात की।

लड़कों को तो उन्होंने माफ़ कर दिया लेकिन युवाओं के पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने सात दिनों का उपवास रखा। यह उनके जीवन के 18प्रसिद्ध व्रतों में पहला था। दूसरों में दोष देखने के बजाए अपने को दोषी समझना उनका जीवन भर का धर्म रहा। अपने संरक्षितों के दुराचरण के लिए उन्होंने ख़ुद को दोषी माना। इसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने सात दिनों के व्रत का और साढ़े चार मास तक दिन में केवल एक बार भोजन करने का दंड खुद को दिया। प्रायश्चित, प्रार्थना, आत्मानुशासन या शुद्धिकरण के रूप में उपवास उन सभी के लिए भीषण रूप ले चुकी थी जो उन्हें प्यार करते थे। उपवास की समाप्ति तक वे डर के साये में जीते और इनमें से कई तो भय व प्रायश्चित के मारे उनके साथ उपवास भी रख लेते। हालांकि वे जो यह सब कुछ करते वे तर्कहीन होते, लेकिन उसका प्रभाव अवश्य पड़ा और यह सब उन्होंने अपनी अंतरात्मा के निर्देश पर किया।

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