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58. तीन साल बाद बा और बच्चों से मिलन

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 गांधी और गांधीवाद

 

निर्मलचरित्रएवंआत्मिकपवित्रतावालाव्यक्तित्वसहजतासेलोगोंकाविश्वासअर्जितकरताहैऔरस्वतःअपनेआसपासकेवातावरणकोशुद्धकरदेताहै।              

- महात्मा गांधी

58. तीन साल बाद बा और बच्चों से मिलन

जुलाई 1896

राजकोट पहुंचे

जुलाई, 1896 को गांधीजी राजकोट पहुंचे। तीन साल के बाद वे बा और बच्चों से मिलने वाले थे। आत्मकथा में कस्तूरबाई और दो बच्चों से मिलन के बारे में गांधीजी ने कुछ नहीं लिखा है। पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि यह तीन साल का अंतराल बा के लिए कम कठिन नहीं रहा होगा। छोटे भाई की पत्नी होने के नाते घर के सभी सदस्यों की देखा भाल की जिम्मेदारी तो रही ही होगी साथ ही अपने बच्चों की देखभाल भी! पति साथ में नहीं थे इसलिए बा की स्थिति और भी नाज़ुक रही होगी।

बा का बचपन


पोरबन्दर के व्यापारी गोकुलदास कपाड़िया (मकनजी) और ब्रजकुंवरबा कपाड़िया के घर 11 अप्रैल 1869 को कस्तूरबाई कपाड़िया का जन्म हुआ। कस्तूरबाई के दो भाई थे, एक बड़े और एक छोटे, माधवदास। गांधीजी के कई जीवनीकार बा को कस्तूरबाई मकनजी कहते रहे हैं। इसको लेकर भ्रम बना रहा। कारण अरुण गांधी (गांधी के पौत्र, मणिलाल गांधी के पुत्र) ने स्पष्ट किया है। कस्तूरबाई के दादा मकनजी कपाड़िया थे। उनके पिता गोकुलदास चूंकि मकनजी के बेटे थे, इसलिए कई लोग उन्हें गोकुलदास मकनजी कहने लगे। गोकुलदास कपड़े, अनाज और सूत के व्यापारी थे और पोरबंदर में गांधीजी के घर से कुछ ही दरवाज़े दूर रहते थे।

कस्तूरबाई ने अपना सारा जीवन अपने पिता के विशाल, सुसज्जित और खूबसूरती से सजाए गए घर में बिताया था। तत्कालीन समाज में लड़कियों को पढ़ाने का चलन नहीं रहा होगा। बा को भी नहीं पढ़ाया गया। अपनी मां की तरह वह भी निरक्षर रह गईं। कस्तूर को पढ़ाई-लिखाई के नाम पर घर में ही शिक्षा दी जा रही थी, एक कुशल गृहिणी, एक अच्छी धर्मपत्नी के गुण और एक अच्छी मां के कर्तव्य उसे सिखाए जा रहे थे। उन दिनों लड़कियों की शादी बहुत ही कम उम्र में कर दी जाती थी। इसलिए शादी के बाद के रीति-रिवाज़ को सिखाना बहुत ज़रूरी समझा जाता था। इसलिए कस्तूर का ज्ञान आदर्श पत्नी, महिलाओं के चरित्र द्वारा बढ़ाया गया। वे थीं, अनुसूया, सावित्री, सती, सीता, तारामती आदि। इस आधारशिला पर सात वर्ष की उम्र में कस्तूर की सगाई प्रताप कुंवरबा प्राथमिक विद्यालय में पढ़ रहे सात वर्षीय मोनिया (मोहनदास करमचन्द गांधी) से 1876 में तय हुई।

तेरह साल की उम्र में शादी

इस घटना से बेख़बर मोनिया की यह तीसरी सगाई थी। उनकी पहली दो सगाइयां विफल हो चुकी थीं, क्योंकि संभावित बालिका वधुओं का देहांत हो चुका था। गांधी परिवार पोरबन्दर के दीवान रहते आ रहे थे। गांधी परिवार और कपाड़िया परिवार एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते-पहचानते थे। तय हुआ कि शादी छह साल बाद होगी। उन दिनों जब कि अधिकांश लड़कियों की शादी आठ साल तक की उम्र पूरा होते-होते कर दी जाती थी, कस्तूरबाई के माता पिता इस मामले में ज़्यादा उदार थे।

एक साथ तीन भाइयों की शादियां हुईं। गांधीजी के चाचा मोतीलाल के पुत्र तुलसीदास, उम्र 17 साल, की हरकुंवर से, गांधीजी के उनसे दो साल बड़े भाई करसनदास, उम्र 16 साल, की गंगा से, और मोहनदास, उम्र 13 साल, की कस्तूरबा से एक ही दिन शादिय़ां हुई।

... और इस प्रकार 1882 के शरद ऋतु में गांधीजी के ही शब्दों में दो तेरह- वर्षीय नादान बच्चों को जीवन-सागर में धकेल दिया गया।’ आगे चलकर मोनिया मोहनदास, फिर गांधीजी, फिर महात्मा और बापू बने, वहीं कस्तूरबाई कपाड़िया एक करिश्माई नेता की धर्मपत्नी के रूप में 62 वर्षों तक उनके साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलते हुए पहले कस्तूरबाई, और फिर बा (सबकी माता) बन गईं। निरक्षर कस्तूरबाई का स्वभाव सरल और स्वतंत्र था। वह परिश्रमी थीं, पर गांधीजी के साथ कम बोला करती थीं। अपने अज्ञान से उन्हें असन्तोष न था। गांधीजी को महात्मा बनाने में बा का बहुत बड़ा हाथ था। गांधीजी जैसे कठोर, निरंकुश, अनुशासनप्रिय, हठी व्यक्ति के साथ बा ने कदम-क़दम पर समझौता किया और उनकी हर अच्छी-बुरी बात को शिरोधार्य किया। गांधीजी ने खुद कहा है, “जैसे-जैसे मेरा सार्वजनिक जीवन उज्ज्वल बनता गया, वैसे-वैसे बा खिलती गई और पुख्ता विचारों के साथ मुझमें यानी मेरे काम में समाती गईं।

आकर्षक व्यक्तित्व की धनी बा

बा आकर्षक व्यक्तित्व की धनी थीं। बा को बहुत नज़दीक से देखने वाले एलीनर मॉर्टन ने अपनी पुस्तक वीमेन बिहाइंड महात्मा गांधी’ में लिखा है कि कद-काठी में कुछ छोटी कस्तूरबाई में आदर्श भारतीय सौंदर्य की विशेषताएं मौज़ूद थीं। रेशमी काले बाल, संवरी और सुडौल नाक और बड़ी-बड़ी आंखें मुखाकृति की शोभा और बढ़ाते थे। गांधीजी के पौत्र अरुण गांधी ने अपनी पुस्तक द फ़ॉरगॉटन वुमैन : द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कस्तूरबा; वाइफ़ ऑफ महात्मा गांधी’ में बा का ‘निर्भीक’, ‘स्वतंत्र’, ‘गर्वीली’, ‘दृढ’ और किसी हदतक ‘हठी’ महिला के रूप में वर्णन किया है। गांधीजी के जीवनीकार लुई फ़िशर ने उन्हें सौम्य स्त्री कहते हुए लिखा है गांधीजी न मनुष्य से डरते थेन सरकार सेन जेल से या ग़रीबी सेन मृत्यु से, लेकिन वे अपनी पत्नी से ज़रूर डरते थे।” बा जिस बात को अनुचित मानती थीं उसके प्रच्छन्न प्रतिरोध करती थीं। गांधीजी उनको झुका तो सकते थे, लेकिन तोड़ नहीं सकते थे। आगे चलकर हम इसके कई उदाहरण देखेंगे।

तेरह वर्ष की उम्र में गांधी दंपती परिणय-सूत्र में बंधे(7. विवाह - विषयासक्त प्रेम)। कस्तूरबाई उम्र में गांधीजी से छ महीने बड़ी थीं। बा का गृहस्थ जीवन कांटों के ताज जैसा था। हालाकि बा की सास पुतलीबाई का उन पर विशेष स्नेह था, फिर भी शुरुआती दिनों में नवदंपती में बहुत खटपट रहती थी। गांधीजी को कस्तूरबाई का अनपढ़ होना अखरता था। वे उनको पढ़ना-लिखना सिखाते थे। धीरे-धीरे बा भी बापू की रंग में रंगती चली गईं। पूरे परिवार के कामकाज का बोझ उनपर आ गया। ससुरजी बीमार रहते थे। उनकी भी सेवा-टहल करना होता था। लंबी बीमारी के बाद ससुर करमचंद गांधीजी भी चल बसे(18. गांधीजी के पिता की मृत्यु)। खुद भी बीमार रहने लगीं। शारीरिक कमज़ोरी के कारण उनका पहला शिशु जन्म के दो-चार दिन बाद ही चल बसा। बा की जान मुश्किल से बच पाई।

लंबा विछोह

उसके बाद गांधीजी के इंग्लैंड जाने के पहले 1888 में हरिलाल का जन्म हुआ। 4 सितम्बर 1888 को गांधीजी इंग्लैंड चले गए(19. विलायत क़ानून की पढाई के लिए)। उनकी विदेशी शिक्षा के लिए कस्तूरबाई ने अपने दहेज की वस्तुएं बेचकर धन इकट्ठा किया था। लगभग तीन वर्ष इंग्लैंड में रहने के बाद जून 1892 में गांधीजी वापस आए(26. स्वदेश वापसी)। दक्षिण अफ़्रीका की इस जुदाई के पहले भी कस्तूरबाई लगभग इतने ही समय के लिए जुदाई झेल चुकी थीं। तब की जुदाई पर गांधीजी ने लिखा था, ‘‘यह एक लंबी और स्वस्थ विछोह की अवधि रही! इंग्लैंड से लौटने के बाद भी कुछ ऐसा संयोग रहा कि दोनों छह महीने से अधिक एक साथ नहीं रह पाए। 28 अक्तूबर 1892 को दूसरे पुत्र मणिलाल का जन्म हुआ। 30 अप्रैल 1893 को गांधीजी एक साल के लिए कहकर दक्षिण अफ़्रीका चले गए(29. दक्षिण अफ्रीका जाने का प्रस्ताव)। अफ़्रीका में उनपर इतनी जिम्मेदारियां और काम आ गए कि वे तीन साल बाद ही वापस आ पाए(56. छः माह के लिए भारत आगमन) ये तीन साल बा ने पति की याद और पूरे परिवार की सेवा टहल में बिताए।

दक्षिण अफ़्रीका से एक साल बाद जब वापस भारत आने का समय निकट आया तो कस्तूरबाई अपने छोटे-छोटे बच्चों से कहतीं जल्द ही तुम्हारे पिता आएंगे। वह तो नहीं आए उनका पत्र आया कि कुछ ऐसी स्थिति आ गई है कि उन्हें वहां और रुकना पड़ेगा। अब कस्तूर को इतना तो समझ नहीं आया कि वे कौन से काम कर रहे हैं वहां, पर जो भी कर रहे हैं देश के लोगों की भलाई के लिए ही कर रहे हैं, और पैसा आदि तो भेजते ही रहेंगे। इतने दिनों की शादी में मुश्किल से चार साल दोनों पति-पत्नी साथ रहे होंगे। कस्तूर को सहने की आदत सी पड़ गई थी। पर बच्चे ... न जाने क्या सोचते होंगे? हरिलाल तो फिर भी दो साल तक पिता की गोद और कंधों पर खेल चुका था। कुछ धुंधली सी यादें रही होंगी उसके मन में। पर मणिलाल तो मात्र छह ही महीने का था। उसे तो पिता की शक्ल भी नहीं याद थी। हरिलाल को चाचा लक्ष्मीदास के साथ पिता का व्यवहार मिलता रहा। मणिलाल भी अब चलने और बोलने लगा था।

दो साल और बा को व्यग्रता से गांधीजी के घर आने की प्रतीक्षा करनी पड़ी। शादी के बाद से ही दोनों किसी न किसी कारण से लंबे समय तक साथ नहीं रह पाए। विवाह 13 की उम्र में हुआ थी और 19 साल की उम्र में इंग्लैंड चले गए। इन छह सालों में मुश्किल से तीन साल साथ रहे। हर छह-आठ महीने पर कस्तूरबाई का मायके से बुलावा आ जाता। गांधीजी इंग्लैंड से लौटने के बाद बम्बई और राजकोट के बीच चक्कर लगाते रहे। फिर तीन साल दक्षिण अफ़्रीका में रहे।

बापू के पत्र आते थे

इन वर्षों में गांधीजी के पत्र भाइयों को आते थे उनमें ज़्यादातर तो व्यापार की बाते होती थीं। थोड़ा बहुत जो भी उनकी पत्नियां बताती उससे कस्तूर को मालूम हुआ था कि गांधीजी ने वहां एक ऑफिस खोल लिया है और वे लगातार रुपए भेजते रहे जिससे घर क़र्ज़ चुकाया जाता रहा।

समय के बीतने के साथ बच्चे भी बड़े होते गए और मां कस्तूर को बच्चों को अधिक समय देना पड़ता। पर पति मोहनदास तो दिल-दिमाग में बसे ही रहते। हमेशा चिन्ता लगी रहती कि कैसे रहते होंगे, क्या खाते होंगे? पर धीरे-धीरे मालूम चला कि उन्होंने एक बड़ा मकान ले लिया है, रसोइया रख लिया है। मन को राहत मिली। वह हमेशा ईश्वर से प्रार्थना करतीं कि वे उनकी रक्षा करते रहें।

भावपूर्ण मिलन


जुलाई 1896 को दोनों जब एक-दूसरे के आमने-सामने हुए तो यह दो समझदार व्यक्तियों के भावपूर्ण मिलन का दृश्य था। पति के बगैर जीवन बिताना काफ़ी कठिन था पर पति के साथ तो और भी व्याकुल कर देने वाला था। यह बात कस्तूर को गांधीजी के तीन साल के बाद राजकोट आने के कुछ ही दिन के अन्दर समझ में आ गई। ऐसा नहीं था का उनका आना सुखद नहीं था, ऐसा भी नहीं था कि उनके वापस आने से वह धन्य नहीं हुईं थीं। पर खुशी को वह जगजाहिर नहीं कर सकती थीं। उन दिनों एक पत्नी अपनी इस तरह की भावनाएं खुलकर समाज तो क्या परिवार के सदस्यों यहां तक कि अपने बच्चों के समक्ष भी प्रकट नहीं कर सकती थीं। उन्होंने दूसरा जरिया ढूंढ़ निकाला। गांधीजी की पसंदीदा चीज़ों को रसोई घर में बनाने लगीं। पर यहां भी लिहाज का सामना करना पड़ता था। इतने प्यार से पकाए भोजन को वह परोस नहीं सकती थीं। यह अधिकार तो घर की बड़ी बहू, नन्दकुंवरबेन का था। अब सास पुतलीबाई तो नहीं थी, इसलिए रिवाज़ के अनुसार यह कर्तव्य गृहस्वामिनी नन्दकुंवरबेन निभातीं और गांधीजी को परोस कर खिलाती थीं।

बीते तीन सालों का पोथा

कस्तूर के पास बीते तीन सालों का पोथा था सुनाने के लिए। पर गांधीजी को काम से फ़ुरसत मिले तब ना। गांधीजी बा को दक्षिण अफ़्रीका के अपने समय और आन्दोलन और आगे की योजना के बारे में बताते रहे। फिर यह भी बताया कि इस बार वह भी उनके साथ जाएंगी। यह सुनकर उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि ख़ुश हों कि भयभीत। जब गांधीजी ने दक्षिण अफ़्रीका के घर बीच ग्रोव विला के बारे में बताना शुरु किया तो लगा कि यह तो सपने के साकार होने जैसा है। कस्तूर का मन करता कि गांधीजी ऐसे ही सुनाते जाएं और वह सुनती रहें। पर गांधीजी के सामने और भी कई लक्ष्य थे और वह अपने काम में व्यस्त हो गए। पत्रों को जवाब देना, और अन्य काम में गांधीजी इतने थक जाते थे कि रात में पत्नी से बात करते-करते कब नींद में चले जाते पता ही नहीं चलता, और कस्तूर टुकुर-टुकुर उनका मुंह देखती रहती। उन्हें जगा कर और प्रश्न पूछने की उनकी हिम्मत नहीं होती। चुपचाप उनकी बगल में लेटी वह काफ़ी गौरवान्वित होतीं कि यह मेरा पति है, जो इतने बड़े-बड़े काम कर रहा है।

एक स्कूल जाते विद्यार्थी के रूप में जो पति मिला था, कोई बहुत खास मेधावी छात्र भी नहीं था। जैसे-तैसे कॉलेज की पढ़ाई कर विलायत से बैरिस्टर की डिग्री लेने चला गया। वहां से आने के बाद कोर्ट में बहस नहीं कर पाया(27. आजीविका के लिए वकालत)। घर की आर्थिक स्थिति नाज़ुक होने पर फिर विदेश चला गया, ताकि एक व्यापारी के वकीलों को ज़रूरी मदद दे सके। पर आज जो व्यक्ति सामने है वह मज़बूत इरादों वाला वकील है, सभी उसकी इज़्ज़त करते हैं, क्या बड़े, क्या छोटे! दक्षिण अफ़्रीका के अनुभव ने उन्हें अधिक परिपक्व, अधिक उद्यमी, अधिक दृढ़, अधिक शक्तिशाली और अधिक विचारवान बना दिया था। पहले से अधिक समृद्ध और सफल तो थे ही।

नई ज़िन्दगी की चिंता में


इस सब के साथ एक नई ज़िन्दगी शुरु होने जा रही थी। बा के मन में तरह-तरह के सवाल उठ रहे थे। पता नहीं कैसा जीवन होगा वहां का?जब देश में परिस्थितियां इतनी विकट रहीं, तो परदेश में न जाने क्या होगा? जो भी हो जाना तो है ही। कस्तूरबाई अफ़्रीका जाने की तैयारी में लग गईं। बच्चों के भी पोशाक, कपड़े-लत्ते, सब बांधना था। हरिलाल 12 साल के और मणिलाल 4 साल से भी कम के बच्चे थे। पिता के पास अब भी उनके लिए पर्याप्त समय नहीं था। वह तो एक मिशन में आते ही लग गए थे। कस्तूरबाई ने देखा कि गांधीजी कुछ लिख रहे हैं। पूछा, “क्या लिख रहे हैं?”गांधीजी ने बताया, “दक्षिण अफ़्रीका में रह रहे भारतीयों की शिकायतों को लिख रहा हूं।कस्तूरबाई ने विनम्रता से कहा, “आप इस काम में बच्चों को भी क्यों नहीं लगाते? आपकी मदद भी हो जाएगी, बच्चों को पिता का साथ भी रहेगा।गांधीजी ने पल भर कस्तूरबाई का चेहरा देखा और उनके मुख पर मोहक मुस्कान तैर गई। बोले, “ठीक ही कह रही हो। हरिलाल की लिखावट भी काफ़ी साफ़सुथरी है। और मणिलाल लिफ़ाफ़ों पर डाक टिकट तो लगा ही सकता है। भेजो उन्हें ...!कस्तूरबा को परम संतोष हुआ। घर के काम करने में और दक्षिण अफ़्रीका की तैयारिओं में अब उन्हें पहले से भी अधिक आनंद आ रहा था।

संदर्भ

1.    Mohanadas A True Story of a Man, his People and an Empire – Rajamohan Gandhi

2.    कस्तूरबा गांधी – महेश शर्मा

3.    The Untold Story of Kasturba – Wife of Mahatma Gandhi – Arun & Sunanda Gandhi

4.    गांधी की कहानी, लुई फ़िशर, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन

5.    The Life And Death Of Mahatma Gandhi – Robert Payne

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मनोज कुमार

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