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सरकार और भारतीयों के बीच समझौता

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गांधी और गांधीवाद-157

1911

सरकार और भारतीयों के बीच समझौता

सत्याग्रहियों की साख

टॉल्स्टॉय फार्म में रह रहे सत्याग्रहियों के जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते थे। कोई सत्याग्रही जेल जाने वाला होता था तो कोई छूटकर आया होता था। ऐसे ही छूटकर आने वाले सत्याग्रहियों में से दो ऐसे थे जिन्हें मजिस्ट्रेट ने जाती मुचलके पर छोड़ा था। उन्हें सज़ा सुनाने के लिए अगले दिन अदालत में हाज़िर होना था। वे बेठे आपस में बातें कर रहे थे। इतने में उनके लिए जो आख़िरी ट्रेन थी उसके जाने का वक़्त हो गया। ट्रेन वे पा सकेंगे या नहीं यह संदिग्ध हो गया था। वे दोनों और फार्म के कुछ लोग जो उन्हे विदा करने वाले थे लॉली स्टेशन की तरफ़ दौड़े। रास्ते में ही ट्रेन के आने की सीटी सुनाई दी। जब वे स्टेशन के बाहरी हद तक पहुंचे तो स्टेशन के छूटने की सीटी सुनाई दी। दोनों काफ़ी तेजी से दौड़ रहे थे। गांधी जी तो पीछे ही छूट गए थे। ट्रेन चल चुकी थी। दोनों युवकों को दौड़ते देखकर स्टेशन मास्टर ने चलती ट्रेन रोक दी और उनको बिठा लिया। स्टेशन पहुंचने पर गांधी जी ने स्टेशन मास्टर के प्रति कृतज्ञता प्रकट की। इस घटना से यह स्पष्ट है कि सत्याग्रहियों को जेल जाने और प्रतिज्ञा पालन करने की कितनी उत्सुकता होती थी। दूसरी यह कि स्थानीय कर्माचारियों के साथ उन्होंने काफ़ी मधुर संबंध स्थापित कर लिया था। ये युवक अगर उस ट्रेन को न पकड़ पाते तो अगले दिन अदालत में हाजिर न हो पाते। उन्हें महज भलमानसी के आधार पर ज़मानत मिली थी। सत्याग्रहियों की साख इतनी हो गई थी कि उनके ख़ुद जेल जाने से आतुर होने के कारण मजिस्ट्रेट उनसे जमानत लेने की ज़रूरत नहीं समझते थे। सत्याग्रह के आरंभ में अधिकारियों की ओर से सत्याग्रहियों को कुछ कष्ट आवश्य दिए गए थे, पर ज्यों-ज्यों लड़ाई बढती गई, अधिकारी पहले से कम कड़वे होते गए। कई तो स्टेशन मास्टर की तरह मदद भी करने लगे। इसका कारण था सत्याग्रहियों का सौजन्य, उनका धैर्य और कष्ट सहन करने की उनकी शक्ति।

दुख कभी अकेले नहीं आता। गांधी जी के साथ भी यही हुआ। पारिवारिक समस्याओं के साथ-साथ राजनैतिक समस्याएं भी आ गईं। आंदोलन बहुत लंबा खिंच गया था। सत्याग्रह की लड़ाई चार साल तक चली। इसकी वजह से लोगों का जोश ठंडा पड़ने लगा था। सत्याग्रही जेल जाते और जेल से छूट कर आते रहे। हालांकि भारतीय समाज के धनी वर्ग के लोगों में उतना जोश नहीं रह गया था, फिर भी गांधी जी के नेतृत्व में जो थोड़े चुने और पक्के लोग काम कर रहे थे उनके उत्साह और मनोबल में कोई कमी नहीं होने पाई। केवल फिनिक्स और टॉल्सटॉय फार्म के निवासी आन्दोलनकारियों के प्रतीक के रूप में बने रहे और संघर्ष चलता रहा।

‘साउथ अफ़्रीकन इमीग्रेशन रजिस्ट्रेशन एक्ट’

इस बीच भारतीयों पर होने वाले दमन बहुत बढ़ गए थे। भारतीय निवासियों के अवयस्क बच्चों की पत्नियों को अधिकारी अक्सर परेशान करते थे और कई बार लड़कियों को देश छोड़ने के आदेश मिल जाते। भारतीयों को व्यापार के लाइसेंस मिलने मुश्किल हो गए थे। जो भारतीय बंधुआ बन कर आए थे उन पर भारी टैक्स लगा दिए गए थे। जले पर नमक छिड़कने के लिए सरकार ने ‘साउथ अफ़्रीकन इमीग्रेशन रजिस्ट्रेशन एक्ट’ भी लागू कर दिया। भारतीयों ने एक्ट का विरोध किया। इस का विरोध करने के लिए असहयोग आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई। गांधी जी ने जनरल स्मट्स से बातचीत की। उनका कहना था कि इमीग्रेशन एक्ट में कुछ ऐसे संशोधन कर दिए जाएं जिससे किसी भी प्रकार का जातीय भेदभाव न फैले।

भारत में

भारत का जनमत भी इस प्रश्न पर विक्षुब्ध हो रहा था। कलकत्ते की बड़ी काउंसिल में गोखले जी ने गिरमिटियों का दक्षिण अफ़्रीका भेजना बंद करने का प्रस्ताव पेश किया। यह प्रस्ताव स्वीकार हो गया। भारत में बादशाह जॉर्ज पंचम के दरबार का समय नज़दीक आता जा रहा था। इंग्लैंड की सरकार मामले को सुलझाकर भारतीयों को ख़ुश करना चाह रही थी।

सरकार और भारतीयों के बीच समझौता

इसका नतीज़ा यह हुआ कि 1911के फरवरी महीने में दक्षिण अफ़्रीका की सरकार ने घोषणा की कि वह रंगभेद वाली रोक को उठा लेगी। एशियावासी होने के कारण ट्रांसवाल में भारतीयों के प्रवेश पर जो प्रतिबंध लगा हुआ है वह नहीं रहेगा। उसके बदले सिर्फ़ उनकी शिक्षा संबंधी योग्यता की कड़ी जांच का प्रतिबंध रहेगा। ट्रांसवाल में प्रवेश एक शैक्षिक परीक्षण के आधार पर दिया जाएगा।

27मई 1911को ‘इंडियन ओपिनियन’ ने घोषणा की कि सरकार के साथ एक अस्थायी समझौता हो गया है। इसलिए सभी भारतीयों को अपने काम-धंधे पर लग जाना चाहिए। पहली जून को सभी सत्याग्रही क़ैदी रिहा कर दिए गए। पर यह एक साल तक भी नहीं चल सका।

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