तुम न जाने किस जहाँ में खो गये
-सलिल वर्मा
दिल ढ़ूँढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात-दिन,
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए!
चचा ग़ालिब और फिर उनके बाद चचा गुलज़ार, दोनों इसी शे’र के मार्फ़त समझा गये हैं कि ज़िन्दगी में चाहे सब-कुछ मिल जाए फ़ुर्सत मिलना मुश्किल है. और ऐसे में बस फ़ुर्सत के पुराने दिनों को याद करने और मन मसोस कर रह जाने के अलावा हाथ आता भी क्या है. इन फ़ैक्ट, कभी-कभी तो मुझे भी शक़ होता था कि जितनी आसानी से अनुज मनोज कुमार जी धड़ाधड़ “फुर्सत में”लिख लिया करते थे, उतनी फ़ुर्सत क्या वास्तव में मिल पाती होगी? और मिलती भी हो तो “तसव्वुरे जानाँ” या “दीदारे यार” से निजात पाकर पोस्ट लिख लेते होंगे? और आज पहली बार ब्लॉग देवता/देवी को हाज़िर नाज़िर जानकर कहता हूँ कि मनोज जी से जलन भी होती थी कि यार कहाँ से इन्होंने फ़ुर्सत की खदान का अलॉटमेण्ट हासिल किया है, एकाध टोकरी हमारे पास भी भिजवा देते तो कौन सा अकाल पड़ जाता.
अब पता नहीं देश में कौन सी ईमानदारी की बयार चली कि कोयला खदान पर छापे पड़ने लगे और हमारी बुरी नज़र लग गई कि जो मोहर हम यहाँ फुर्सत में लूटते थे, उनपर मनोज जी ने ताले लगवा दिये. एकाध लाइसेंसी पोस्ट दिखाई भी दी, लेकिन उसमें वो बात कहाँ. छुप-छुप के पीने का मज़ा कुछ और था. और ये मासिक वेतन जैसी पोस्टों से भला किसी की प्यास बुझी है, अरे इस ब्लॉग की असली पोस्टें तो वो हैं, जो ऊपरी आय की तरह बहती हुई नदी रही हैं. जो मुसाफ़िर आया उसकी प्यास बुझी.
और यही नहीं, इस नदिया के घाट अनेक, जहाँ से पियें, वही मिठास और वही तृप्ति. आचार्य परशुराम राय जीकी ‘शिवस्वरोदय’ एक ऐसी दुर्लभ श्रृंखला थी जिसे उन्होंने हमारे लिये सरल भाषा में उपलब्ध करवाया. यही नहीं काव्य-शास्त्र की कड़ियों में जिस सिलसिलेवार ढ़ंग से उन्होंने लिखा है वो ख़ास तौर मेरे लिये किसी क्लासरूम में बैठकर सीखने से कम नहीं था. बल्कि काव्यशास्त्र की जमात में बैठकर ही मैंने अपने बारे में जाना कि अहमक़ उन जगहों पर दरवाज़ा धकेलकर दाख़िल हो जाते हैं. जहाँ फ़रिश्ते भी पेशक़दमी से डरते हैं. आचार्य जी की “आँच”पर की गई ब्लॉग पर प्रकाशित कविताओं की समीक्षा अपने आप में एक मानदण्ड रही हैं. कोई उनकी समीक्षा से सहमत हो या न हो, वे अपनी तालीम और समझ से हमेशा सहमत रहे हैं. अब परशुराम हैं तो कठोर तो होंगे ही, किंतु कभी रिश्तों के नाम पर समझौता नहीं किया और अपने फ़ैसले को कभी किसी के दबाव में आकर नहीं बदला.
इसी कड़ी में एक और नाम है श्री हरीश चन्द्र गुप्तका. “आँच” पर इनकी समीक्षायें पैनी, गहरी, गम्भीर और साहित्यिक हुआ करती थीं. यह अलग बात है कि “मनोज” पर इस अल्प-विराम के पूर्व भी इन्होंने एक लम्बी छुट्टी ले रखी थी. इन्हें कम पढ़ने का मौक़ा मिला, लेकिन जो भी मिला वो एक सीखने जैसा तजुर्बा रहा. अगर कोई रचना हरीश जी की कलम की कसौटी पर परख ली जाए और उसे यदि ये अच्छा कहें तो कोई सन्देह नहीं कि वह रचना चौबीस कैरेट होगी.
“मनोज” पर एक और नियमित स्तम्भ रहा है “देसिल बयना”. ठेठ भाषा में कहें तो देसी कहावतें. कहावतें सिर्फ शब्दों को सजाकर एक निरर्थक से लगने वाले वाक्य का निर्माण नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक लम्बी दास्तान होती है, एक परम्परा और एक गुज़रे ज़माने की खुशबू. यह खुशबू लेकर आपके सामने लगातार आते रहे श्री करण समस्तीपुरी. इनके देसिल बयना को अगर तस्वीर के रूप में आपके सामने रखूँ तो बस यही कह सकता हूँ कि जहाँ बाकी सारे लेख, समीक्षाएँ और संस्मरण मॉडर्न पार्टी हैं, वहीं देसिल बयना ज़मीन बैठकर पत्तल में खाने का आनन्द. रेवाखण्ड की बोली में पगा, मिठास का वह पकवान, जिसे जो न खाए बस वो पछताए. व्यक्तिगत रूप से मैंने हमेशा करण जी से ईर्ष्या की है कि आंचलिक बोली में लिखने की बावजूद भी मैं उनकी मिठास तक कभी नहीं पहुँच पाया. फिर दिल को यह कहकर तसल्ली दे लेता हूँ कि राजधानी (पटना) और गाँव में फर्क तो होता ही है. गुलिस्तान के गुलाब और गुलदस्ते के गुलाब की ख़ुशबू भी जुदा होती है.
अंत में यदि मनोज कुमार जीका ज़िक्र न किया जाए तो मेरी पोस्ट ही अधूरी रह जायेगी. कोलकाता में बैठे हुए तू ना रुकेगा कभी, तू ना झुकेगा कभी वाले स्टाइल में एक मैराथन लेखन, बिना इस बात की परवाह किये कि कौन पढ़ता है कौन नहीं. हर आलेख एक सम्पूर्ण शोध के बाद और विषय पर पूरे अधिकार के साथ लिखा हुआ. कविता और कहानी, संस्मरण और साक्षात्कार, जीवनी और दर्शन किसी भी विषय को इन्होंने अनछुआ नहीं रखा. कई बार तो लगने लगता है कि साहित्य (विज्ञान भी) की विधाओं में शायद कोई भी पत्थर इन्होंने बिना पलटे नहीं छोड़ा. केवल साहित्य को ही नहीं समेटा इन्होंने, बल्कि रिश्तों को भी समेटा.. स्वयम कोलकाता में रहकर कानपुर, बेंगलुरू, दिल्ली जैसी जगहों से सम्पर्क बनाए रखा और आचार्य जी, गुप्त जी, करण जी और मुझे जोड़े रखा.
मैंने भी दुबारा ब्लॉग लिखना शुरू कर दिया है. फ़ुरसत मिले न मिले, एकाकी जीवन (बाध्यता) ने इतना समय तो फिलहाल मुझे दिया है कि हफ्ते में एक पोस्ट लिख लेता हूँ. ऐसे में जब कभी उन पुरानी गलियों से गुज़रता हूँ तो एक अजीब सा सन्नाटा दिखाई देता है. आँखें फेरकर आगे बढ़ता हूँ तो लगता है कि कोई आवाज़ देकर बुला रहा है पीछे से. लेकिन पलटकर देखता हूँ तो वही ख़ामोशी. सर्दियाँ अपने शबाब पर हैं. तो फिर आइये रिश्तों की गरमाहट महसूस करें सम्बन्धों की “आँच” तापते हुये कविता-कहानी सुने-सुनायें और याद करें अपनी जड़ों को जहाँ न जाने कितना देसिल बयना आपका बाट जोह रहा है.
आज के दिन तो एक सफ़ेद बालों वाला और लाल कपड़ों वाला बाबा कन्धे पर बड़ा सा मोज़ा लिये तोहफ़े बाँटता फिरता है. आप सब लोगों से गुज़ारिश है. मेरे लिये सैण्टा बन जाइये और मुझे मेरा तोहफा दे ही डालिये. तभी तो होगी “मेरी क्रिसमस!!”