Quantcast
Channel: मनोज
Viewing all articles
Browse latest Browse all 465

फ़ुरसत में ... तीन टिक्कट महा विकट

$
0
0

फ़ुरसत में ... 110

तीन टिक्कट महा विकट

मेरा फोटोमनोज कुमार

हमारे प्रदेश में एक कहावत काफ़ी फ़ेमस है – तीन टिक्कट, महा विकट। इसका सामान्य अर्थ यह है कि अगर तीन लोग इकट्ठा हुए तो मुसीबत आनी ही आनी है। ऐसे ही कोई कहावत कहावत नहीं बनता है। कोई-न-कोई वाकया तो उसके पीछे रहता ही होगा। करण बाबूतो इसी पर एक श्रृंखला चला रहे थे .. आजकल उसे अल्पविराम दिए हैं। अब तीन टिकट महा विकट का भी ऐसा ही कोई न कोई वाकया ज़रूर होगा। जैसे तीन दोस्त ट्रेन से जाने के लिए निकले तीन टिकट लिया और गाड़ी किसी नदी पर से गुज़र रही थी, तो इंजन फेल हो गया; तीन टिकट लेकर तीन जने किसी बस से निकले, सुनसान जगह में जाकर उसका टायर बर्स्ट हो गया। तीन टिकट लेकर ट्राम में बैठे कि उसको चलाने वाली बिजली का तार टूट जाए। किस्सा मुख़्तसर ये कि तीन के साथ कोई न कोई बखेड़ा होना लिखा ही है।

जब घर से तीन जने निकलते, तो कोई न कोई टोक देता कि तीन मिलकर मत जाओ, तो दो आगे एक पीछे से आता, या एक आगे, दो पीछे से आते। एक मिनट-एक मिनट!!!! अरे हम इतना तीन तीन काहे किए हुए हैं, आप भी सोच में पड़ गए होंगे। अजी आज रात के बारह बजे हम भी तीन पूरे कर रहे हैं, पूरे तीन साल इस ब्लॉग जगत में। हो गया न हमारा भी तीन का फेरा। तो हमारे इस ‘मनोज’ब्लॉग का भी तीसरा टिकट कट गया ना। अब तीन का टिकट आसानी से तो नहीं ही कटना था। विकट परिस्थिति को महा-विकट होना ही था ... देखिये हो ही गया। ‘फ़ुरसत में’ तो हैं हम, लेकिन कुछ लिखने का फ़ुरसत नहीं बन रहा, ‘आंच’ लगाते हैं, तो अलाव बन जाता है। स्मृति के शिखरपर आरोहण में बहुत कुछ विस्मृत और गुप्त-सा हो चला है। क्या बधाइयां, क्या शुभकामनाएं, सब व्यर्थ लगता है। तीन साल इस ब्लॉग-जगत में अपना सर्वश्रेष्ठ देते-देते हमारे लिए भी ‘तीन टिक्कट - महा-विकट’ वाली स्थिति हो गई है।

तीन पूरे हुए ! अब तो चौथ है !

तीन पूरे हुए,

अब तो चौथ है!

सोचता हूँ

कैसा ये एहसास है?

या कोई पूर्वाभास है?

 

आज फिर

फ़ुरसत में

फ़ुरसत से ही

लिखने बैठा हूं,

सीधा नहीं

पूरी तरह से ऐंठा हूं

इतने दिनों के बाद

फिर से ब्लॉग पर लिखना लिखाना

आने वाली चौथ का आभास है?

मैं सोचता हूँ

कैसा ये एहसास है?

या कोई पूर्वाभास है?

 

चींटियों को भी तो हो जाता है

अपनी मौत से पहले

ही अपनी मौत का आभास

मानो उम्र उनकी आ चुकी है

खत्म होने के ही शायद आस-पास।

 

उस समय जगती है उनकी प्रेरणा

कि ज़िन्दगी के दिन बचे हैं जब

बहुत ही कम

तो हो जाती हैं आमादा

वे करने को कोई भी काम भारी

और भी भारी

है ताज्जुब

चींटियां अपनी उमर के साथ

कैसे हैं बदलतीं काम अपने

और बदलतीं काम की रफ़्तार को भी!

 

चींटियाँ...

ये नाम तो सबने सुना हीहोगा

पड़ा होगा भी इनसे वास्ता

चलते गली-कूचे, भटकते रास्ता.

लाल चींटी और कभी

काली सी चींटी

काट लेतीं और लहरातीं

खड़ी फसलें, कभी सब चाट जातीं

या घरों में बंद डिब्बों में भी घुसकर

सब मिठाई साफ़ कर जातीं हैं पल में

 

किन्तु हर तस्वीर का होता है

कोई रुख सुनहरा

चाटकर फसलों को ये

करती परागण हैं

जो फसलों को सहारा भी तो देता है.

 

यह ‘हिमेनोप्टेरा’

ना तेरा, न मेरा

सबका,

सामाजिक सा इक कीड़ा

इसे कह ले कोई भी

राम की सीता, किशन की मीरा

या जोड़ी कहे राधा किशन की

धुन की पक्की,

सर्वव्यापी स्वरूप उसका

गृष्म, शीतल, छांव, चाहे धूप

जंगल गाँव

पर्वत, खेत या खलिहान

भूरी, लाल, धूसर, काली

छोटी और बड़ी,

बे-पर की, पंखों वाली

दीवारों दरारों में

दिखाई देती है बारिश के पहले,

और वर्षा की फुहारों में

कभी मेवे पे, या मीठे फलों पर

दिख भी जाते हैं ज़मीं पर,

और पत्तों पर,

नहीं तो ढेर में भूसे के

डंठल में यहां पर

या वहां पर

बस अकेले ही ये चल देती हैं

और बनता है इनका कारवां.

बीज, पौधों के ये खाती हैं

कोई फंगस लगी सी चीज़ भी

खाती पराग उन फूल के भी

फिर मधु पीकर वहाँ से भाग जातीं

 

कितनी सोशल हैं,

कोलोनियल भी हैं

चाहे कुछ भी कह लें

किन्तु यह प्राणी ओरिजिनल हैं

ज़मीं के तल में

अपना घोंसला देखो बनाती

अलग हैं रूप इन कीटों के

इनके काम भी कैसे जुदा है

बांझ मादा को यहाँ कहते हैं ‘वर्कर’,

और बे-पर के सभी हैं ‘सोल्जर’

दुश्मन के जो छक्के छुड़ातीं

कोख जिनकी गर्भधारण को हैं सक्षम

‘रानी’ कहलातीं हैं

न्यूपिटल फ़्लाइट में

“प्रियतम” का अपने

मन लगाती, दिल भी बहलाती!

 

छिडककर फेरोमोन वातावरण में

वे प्रकृति की ताल पर

करती थिरककर नाच

अपने ‘नर’ साथी को जमकर लुभाती.

जो मिलन होता है न्यूपिटल फ़्लाइट में

बनता है कारण मौत का

उसके ही प्रियतम की

औ’ रानी त्यागकर पंखों को अपने

शोक देखो है मनाती

साथ ही वो देके अंडे

इक नयी दुनिया बसाती है

ऐसे में वर्कर भी आ जाती

मदद को

सोल्जर भी करतीं रखवाली

अजन्मे बच्चों की

कितने जतन से.

और उधर रानी को जो भी ‘धन’ मिला नर से

उसे करती है संचय इस जतन से

जिसके बल पर

देती रहती है वो

जीवन भर को अंडे

रूप लेते है जो फिर

चींटी का.

 

कैसे चीटियां

अपनी बची हुई आयु का कर अनुमान

करती हैं बचा सब काम

अंदाजा लगाकर मौत का

हो जाती हैं सक्रिय

 

निरन्तर अग्रसर होती हैं

अपने लक्ष्य के प्रति

और लड़ती है सभी बाधाओं से

टलती नहीं अपने इरादे से

नहीं है देखना उनको पलटकर

और न हटना है कभी पथ से

उन्हें दिखता है अपना लक्ष्य केवल!!

लक्ष्य केवल लक्ष्य, केवल लक्ष्य..!!

 

लक्ष्य भी कितना भला

कि ग्रीष्म ऋतु में ही

जमा भोजन को करना

शीत के दिन के लिए पहले से!

ताकि उस विकट से काल में

ना सामना विपदा से हो!

मालूम है उनको

समय अच्छा सदा रहता नहीं है

दुख व संकट का सभी को सामना

पड़ता है करना.

 

चींटियां

देतीं हैंनसीहत हैं

बुरा हो वक़्त फिर चाहे भला हो

हम भला व्यवहार अपना क्यों बिगाडें

सीख देती हैं

कि निष्ठा से, लगन से

काम की खातिर रहें तैयार

हर हालात से लड़कर

 

हमें देती हैं वे यह ज्ञान

जब संतोष धन आये

तो सब धन है ही धूरि समान

कैसे जब उन्हें शक्कर मिले तो

ढेर से वो बस उठातीं एक दाना

छोड़ देती हैं वो बाकी दूसरों के नाम.

समझातीं है हमको

उतना ही लो जितना तुमको चाहिए

क्षमता तो देखो अपनी तुम

संचय से पहले!

 

चींटियां

कहती हैं हमसे

जो कमी है, दूर उसको कर

जिसे पाना है उसको पा ही लेने की

करो कोशिश

सभी बाधाएं खुद ही ढेर हो जायेंगी

चूमेगी तुम्हारे पाँव खुद आकर

सफलता, कामयाबी!!!

***


Viewing all articles
Browse latest Browse all 465

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>