आंच-120
चांद और ढिबरी
मनोज कुमार
जिन्होंने वी.एस.नायपॉल, ए पी जे अब्दुल कलाम, रोहिणी नीलेकनी, पवन के वर्मा सहित कई लेखकों की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया हो, उनकी साहित्यक सूझ-बूझ को अलग से रेखांकित करने की ज़रूरत मैं नहीं समझता। भारत सरकार में अनुवादक के पद का कार्यभार ग्रहण करने के पहले इन्होंने तीन साल तक प्रिंट मीडिया में काम कर के जीवन की जटिलता को काफ़ी क़रीब से समझने का अनुभव भी प्राप्त किया है। इनका नाम है दीपिका रानी। इस बार की आंच पर हमने इनकी कविता “चांद और ढिबरी” को लिया है। यह कविता इनके ब्लॉग ‘एक कली दो पत्तियां’ पर 20 सितम्बर 2012 को पोस्ट की गई थी।
दीपिका जी के ब्लॉग ‘एक कली दो पत्तियां’ पर पोस्ट की गई कविताएं पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है कि कविता के प्रति दीपिका जी की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है और उनकी लेखनी से जो निकलता है वह दिल और दिमाग के बीच कशमकश पैदा करता है। इस ब्लॉग पर मैंने यह भी पाया है कि ज़मीन से कटी, शिल्प की जुगाली करने वाली कविताओं के विपरीत उन्होंने सामाजिक सरोकारों के साथ कविताएं लिखी है। “चांद और ढिबरी” भी ऐसी ही एक रचना है।
यह कविता बहुत सरल भावभूमि पर रची गई है। ‘रचना से रचनाकार तक’यदि इस आम जुमले को मानकर चलें तो कह सकते हैं कि दीपिका जी भी एक सरल जीवन जीने की अभ्यस्त हैं और ज़मीन से जुड़े होने के कारण ग़रीब और हाशिए पर पड़े लोगों में उनका मन रमता है। साथ ही उनके दुख-सुख हर्ष-विषाद को लेकर अपनी संवेदना को कविता में विस्तार देती हैं। आलोच्य कविता का केन्द्र एक गरीब परिवार है। मां बुधिया, अपनी नन्हीं बच्ची, मुनिया के साथ एक झोंपड़ी में रहती है। बच्ची को अंधेरे से भय लगता है। बच्ची रात को जब डरकर उठती है, तो अंधेरे के कारण उसे मां की दुलार भरी आंखें और उसके माथे की लाल बिंदी नहीं दिखती। वह रो-रो कर अपनी भावना व्यक्त करती है और मां अपने अभाव का अफ़सोस। अपनी बच्ची को तसल्ली देने के लिए बुधिया अपनी झोंपड़ी में रात भर रोशनी रखना चाहती है। रात भर ढिबरी जलाए रखने के लिए उसे पहले से ही अपने अभावग्रस्त जीवन में और भी कई कटौतियां करनी पड़ती है, क्योंकि रात भर ढिबरी में मिट्टी तेल जलने से घर में जरूरत की अन्य चीजों में कटौती हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में चांद की रोशनी घर में आ जाने से उसे किसी कृत्रिम रोशनी की जरूरत नहीं होती, और यह छोटी सी बात भी उसके लिए एक बड़ी राहत का सबब होती है। यहां अंधेरा अभावग्रस्त जीवन की ओर संकेत करता है और चांद की रोशनी एक दिलासा, एक वादा, एक सपने की ओर, जो आती तो है लेकिन रोज़ कम होती जाती है और आखिर में एक दिन घुप्प अंधेरा दे जाती है।
दीपिका जी ने “चांद और ढिबरी”में जीवन के जटिल यथार्थ को बहुत ही सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। यह कविता किसी तरह का बौद्धिक राग नहीं अलापती, बल्कि अपनी गंध में बिल्कुल निजी है। इस कविता में बाज़ारवाद और वैश्वीकरण के इस दौर में अधुनिकता और प्रगतिशीलता की नकल और चकाचौंध की चांदनी में किस तरह अभावग्रस्त निर्धनों की ज़िन्दगी प्रभावित हो रही है, उसे कवयित्री ने दक्षता के साथ रेखांकित किया है।
अपनी झोंपड़ी में
रात भर जलाती है ढिबरी
हवाओं से आग का नाता
उसकी पलकें नहीं झपकने देता
रात भर जलती ढिबरी
कटौती कर जाती है
बुधिया के राशन में
कविता का अंत, वर्त्तमान समय के ज्वलंत प्रश्नों को समेट बाज़ारवादी आहटों और मनुष्य विरोधी ताकतों के विरुद्ध एक आवाज़ उठाता है। यह आवाज़ अपनी उदासीनताओं के साथ सोते संसार की नींद में खलल डालती है। कविता का अंत बताता है कि सपने देखने वाली बुधिया की आंखों की चमक और तपिश बरकरार है।
महबूब का चेहरा या
बच्चे का खिलौना नहीं
बुधिया का चांद तो एक ढिबरी है।
बुधिया जैसे लोग हमारे बी.पी.एल. समाज के चरित्र हैं, जो अपने बहुस्तरीय दुखों और साहसिक संघर्ष के बावजूद जीवंत है। इस कविता में ममतामयी मां के लिए बेटी की खुशियां मायने रखती हैं, उसका अपना अर्थशास्त्र नहीं, अपनी अन्य ज़रूरतें नहीं। यही जज़्बा उन्हें जीवन्त बनाए रखता है।
जब चांद की रोशनी
उसकी थाली की रोटियों में
ग्रहण नहीं लगाती
सोती हुई मां की बिंदी में उलझी मुनिया
खिलखिलाती है
इस कविता में त्रासद जीवन की करुण कथा है जिसमें कथ्य और संवेदना का सहकार है। कवयित्री ने ग़रीबों के जीवन के दुख की तस्वीर और आम जन की दुख-तकलीफ को बड़ी सहजता के साथ सामने रखा है। यह कविता अभावग्रस्त लोगों की दुनिया की थाह लगाती है। इसमें मां की ममता और निर्धनता का द्वन्द्व नहीं, स्पष्ट विभाजन है, जहां ममता के आगे सब कुछ पीछे छूट जाता है।
पारसाल तीज पर खरीदी
कांच की चूड़ियां भी
बस दो ही रह गई हैं।
चूड़ियों की खनक के बगैर
खुरदरी हथेलियों की थपकियां
मुनिया को दिलासा नहीं देतीं
यह एक ऐसी संवेद्य कविता है जिसमें हमारे यथार्थ का मूक पक्ष भी बिना शोर-शराबे के कुछ कह कर पाठक को झकझोर देता है। इस कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें ‘सामाजिक-बोध’ को यथार्थवादी ढंग से चित्रित करने का प्रयास दिखाई देता है। कवयित्री का दृष्टिकोण रूमानी न होकर यथार्थवादी है। इन्होंने साधारण जनता की बदहाली को किताबी आँखों से नहीं, बल्कि यथार्थ-बोध की आँख से अनुभव किया है।
काजल लगी बड़ी बड़ी आंखें
जब अंधेरे से टकरा कर लौट जाती हैं
मां के सीने से लगकर भी सोती नहीं
अंधेरी रातों में
कितना रोती है मुनिया
इस कविता को पढ़ने के बाद मुझे यह लगा कि इन मुद्दों पर लिखने की ज़रूरत है। हम सब मानते हैं कि समाज और संसार न्यायसंगत नहीं है। आम आदमी सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक व्यवस्था की चक्की के नीचे पिसता जा रहा है। इन मुद्दों को नज़रंदाज़ कर हवाई कविताएं लिखना भी उचित नहीं है। इसलिए जो है उससे बेहतर चाहिए, तो हमें इन मुद्दों को उठाना ही होगा, ताकि परिवर्तन आए। इस सहज-सरल कविता की अंतर्ध्वनियां देर तक और दूर तक हमारे मन मस्तिष्क में गूंजती रहती है। जीवन के बुनियादी मुद्दों पर केंद्रीत यह कविता हमें विचलित तो नहीं करती पर, यह सोचने के लिए बाध्य ज़रूर करती है कि अपने आसपास की जिंदगी से सरोकार रखने वाली इन स्थितियों के प्रति क्या हम असंवेदनशील हैं? मुझे लगता है कि इस कविता की धमक दूर तलक जाएगी।