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उदासी के धुएं में

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उदासी के धुएं में

श्यामनारायण मिश्र

लौट आईं
भरी आंखें
भींगते रूमाल-आंचल
      छोड़कर सीवान तक तुमको,
      ये गली-घर-गांव अब अपने नहीं हैं।

अनमने से लग रहे हैं
द्वार-देहरी
      खोर-गैलहरे
            दूर तक फैली उदासी के धुएं में।
आज वे मेले नहीं
दो चार छोटे घरों के
      घैले घड़े हैं
            घाट पर प्यारे प्यासी के कुएं में।
खुक्ख
सन्नाटा उगलती है
चौधरी की कहकहों वाली चिलम
नीम का यह पेड़,
      चौरे पर शकुन सी छांव अब अपने नहीं हैं।

पर्वतों के पार
घाटी से गुज़रती
      लाल पगडंडी
      भर गई होगी किसी के प्रणय फूलों से।
भरी होगी पालकी
फूलों सजी तुमसे
      औ’ तुम्हारा मन
            लड़कपन में हुई अनजान भूलों से।
झाम बाबा की
बड़ी चौपाल
रातों के पुराने खेल-खिलवाड़ें
      वे पुराने पैंतरे
            वे दांव अब अपने नहीं हैं।

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